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Magazine - Year 1946 - Version 2

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अमित दानी भर्ता

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(श्रीमती रत्नेश कुमारी नीराँजना, मैनपुरी)

अमित दान भर्ता वैदेही।

अधम सोनारि जो सेव न तेही॥

ये हिन्दू संस्कृति का विपत्ति काल में पुनरुद्वार करने वाले महाकवि तुलसीदास के शब्द हैं जिनसे मानस सरोवर रूपी दान पाकर हिन्दू जनता जब तक अपनी संस्कृति के महत्व का ज्ञान शेष है तब तक कृतज्ञ रहेगी। और ये शब्द उन्होंने महासती अनुसुइया द्वारा देवी सीता को उपदेश करवाये हैं अतः इनकी सत्यता में सन्देह के लिये तनिक भी स्थान नहीं है। पाठिकाओं! क्या आपने कभी विचार किया है कि और सब सम्बन्धियों को तो मितप्रद पर पति को “अमित दान” देने वाला क्यों कहा गया है? अमित के अर्थ हैं असीम जिसकी तादाद न हो और इन्द्रियों के द्वारा जो भी विषय उपभोग किये जाते हैं वे सभी क्षण भंगुर हैं अस्तु इनसे परे जो परमात्मा है उसी को असीम कहा जा सकता है। अब प्रश्न ये उठता है ‘भर्ता’ अमित का दान कैसे दे सकता है? यहाँ पर यही गोस्वामी जी का संकेत प्रतीत होता है कि पति को प्रतीक बनाकर उसमें जगत्पति की श्रद्धा विश्वास पूर्वक उपासना करने पर ‘अमित’ को ‘भर्ता’ द्वारा पाया जा सकता है।

जो ऐसा सुअवसर पाकर भी उससे लाभ न उठाये घर आई गंगा से पवित्र न होकर उसमें गन्दी नाली साफ करने में लगाये अकस्मात प्राप्त हुआ अमृत गली सींचने में व्यय कर दे ऐसी दयनीय दुर्भागिनी नारी

को यदि महाकवि ने ‘अधम’ कहा तो उसमें तनिक भी

अतिशयोक्ति नहीं यदि इस अमित दान कर्ता से मित दान ही लेते-लेते अपनी सारी आयु हम खों डालें तो शरीर त्यागने पर हम अवश्य ही अनुभव करेंगी कि अनन्त जीवन का ये इतना भाग हमने व्यर्थ ही खो डाला। ऐसी दुखदाई परिस्थिति में हमको अज्ञान वश न पड़ना पड़े इसीलिए तो तुलसीदासजी की चेतावनी है-”अ मितदान भर्ता वैदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही” वैदेही शब्द भी यहाँ बड़े विचारपूर्वक रखा है देह से अहं भाव त्याग देने पर ही हम इस सदुपदेश से लाभ उठा सकेंगी। यदि हम देह को ‘मैं’ मानतीं रहीं तब तो हम ये सोचने ही क्यों लगीं कि मरने के बाद हमारे इस जन्म में किये हुए कार्य हमारे लिये आगे की जीवन यात्रा के लिये कुछ उपयोगी सिद्ध होंगे अथवा नहीं? अतएव यह उपदेश उन्हीं के लिए है जो आर्य संस्कृति के अनुसार इस शरीर के त्याग के पश्चात् भी जीवन की स्थिति रहती है ये मानती हैं।

अतः जो समय खो चुका उसे जाने दीजिये आइये आज से ही हम अपने जीवन को पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिये पूर्ण शक्ति से प्रयत्नशील हों। महाकवि की चेतावनी से लाभ उठायें ताकि जब पुराने वस्त्रों के समान हम इस शरीर को त्याग दें तब हमें ये पश्चाताप न करना पड़े कि हमने इस जन्म में ऐसा कुछ भी नहीं किया जो हमारी अनन्त जीवन यात्रा में कुछ भी सहायता दे सके इतना सारा समय व्यर्थ ही चला गया।

यज्ञोपवीत के-तीन लड़, नौ तार और 16 चौवे।

त्रिरस्यता परमा सन्ति सत्या स्पार्हा देवस्य

जनिमान्यग्नेः अनन्ते अन्तः परिवती आगा

च्छुचिः शुक्रो अर्य्योरोरुचानः।

ऋग्वेद 4।7।1

इस उपवीत के तीनों तार महान हैं। उससे सत्य, तेजस्वी और पवित्र व्यवहार को ग्रहण करो। इसके मध्य में (ब्रह्म ग्रन्थि में) अनन्त परमात्मा की शुचिता तेजस्विता और श्रेष्ठता प्रकाशवान है। यह यज्ञोपवीत भली प्रकार प्राप्त हो।

जायमानो ह वै ब्राह्मस्त्रिभिऋणैऋणवान् जायते। ब्रह्मचर्य्येण ऋषिभ्यो यज्ञेन देवेभ्यः प्रजया पितृभ्यइति।

तै. सं. 6, 3, 10, 5

तीन सूत्रों से तीन ऋणों का बोध होता है। ब्रह्मचर्य से ऋषि ऋण, यज्ञ से देव ऋण और प्रजापालन से पितृऋण चुकाया जाता है।

मनुष्य के ऊपर तीन ऋणों का भार रहता है। ऋषि, देवऋण, और पितृऋण। इन ऋणों को चुकाने का सतत् प्रयत्न करना चाहिए। ब्रह्मचर्य से ब्रह्म के अनुकूल आचरण करने से, स्वाध्याय, तप, संयम, सत्संग आदि के द्वारा आत्मोन्नति करने से ऋषि ऋण चुकाया जाता है। ऋषियों ने जीवन भर तपश्चर्या करके लोक कल्याण के लिए जो आत्मोन्नति का पथ निर्धारित किया है उसको अपनाकर हमें ऋषियों का उद्देश्य सफल बनाना चाहिए। ऋषि तत्व का विस्तार करना चाहिए। अपने और दूसरों के अन्दर अधिकाधिक मात्रा में ऋषित्व की अभिवृद्धि करनी चाहिए। यह ऋषि ऋण से उऋण होने का मार्ग है।

देवता वे होते हैं जो देते हैं, लेवता वे होते हैं जो लेते हैं। देवता का गौरवास्पद पद उन्हें ही प्राप्त होता है जो संसार को कुछ न कुछ देने का, परोपकार का कार्य निरन्तर करते रहते हैं। जब देव पुरुषों की कृपा से हम प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अनेकों प्रकार के लाभ प्राप्त करते हैं तो हमारा भी कर्त्तव्य है कि अपनी शक्तियों से संसार का अधिकाधिक उपकार करें। यज्ञ-परोपकार को कहते हैं। यज्ञ में, लोक सेवा में, अपने को जुटाये रह कर हमें देव ऋषि से उऋण होने का निश्चय करना चाहिए।

पितृ ऋण-पितरों का पूर्वजों का ऋण है। जिनकी कृपा से हमें स्वर्गादपि गरीयसी पुण्यमयी भारत भूमि में जन्म मिला है, सुरदुर्लभ मानव शरीर पाया है उन पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता के भाव रखना, उनके नाम को उज्ज्वल करना अपना कर्त्तव्य है। कोई ऐसे दूषित कार्य न करने चाहिए जिससे स्वर्गीय पूर्वजों को भी लज्जित होना पड़े। पूर्वजों का श्राद्ध, उनके नाम को, कीर्ति को स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए। गृहस्थ की सुव्यवस्था, बालकों की उचित शिक्षा दीक्षा, अपने परिवार को आदर्श बनाने का प्रयत्न यह सब पितृऋण से उऋण करने वाले कार्य है।

यज्ञोपवीत धारी को इन तीनों ऋणों से उऋण होने का प्रयत्न करना चाहिए।

यज्ञोपवीत के तीन प्रधान तार होते हैं। यह तीन तीर सृष्टि के समस्त पहलुओं में व्याप्त त्रिविधि धर्मों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं। उन तीनों पक्षों को स्मरण रखने और तद्विषयक कर्त्तव्यों को ठीक प्रकार पालन करने का संकेत करते हैं। वे त्रिवर्ग इस प्रकार हैं।

1. ईश्वर, जीव और प्रकृति। इन तीनों के आपसी सम्बन्धों को समझने के लिए अध्यात्म विज्ञान का अध्ययन करना चाहिए। और माया के चंगुल से छुटकारा प्राप्त करके शाश्वत सुख की उपलब्धि के लिए अग्रसर होना चाहिए।

2. उत्पत्ति, सियति और विनाश। सृष्टि के हर एक पदार्थ को इन तीन अवस्थाओं में होकर अनिवार्यता गुजरना पड़ता है। इसलिए वस्तुओं तथा प्राणियों के जन्म मरण की घटनाओं से, एवं परिवर्तन चक्र के अनुसार बदलती हुई परिस्थितियों को देखकर विचलित न होना चाहिए।

3. ब्रह्मा, विष्णु और महेश। परमात्मा की इन तीन शक्तियों को तीन नामों से पुकारा जाता है। एक मात्र परमात्मा ही उत्पादक है, वह पालनकर्ता तथा मृत्युरूप है। उसे प्रसन्न करने के लिए ईश्वरीय नियमों पर चलना चाहिए।

4. सत्, रज और तम। यह तीन तत्व सर्वत्र व्यापक हैं। इनके गुण दोषों को समझते हुए अपने में से इनका हानिकारक भाग हटाने और लाभदायक भाग बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए।

5. माता, पिता और आचार्य। यह तीन प्रत्यक्ष देव हैं। इनको सुखी एवं संतुष्ट रहकर सच्ची देव पूजा करनी चाहिए।

6. भूत, भविष्य और वर्तमान। यह तीन काल हैं। भूत काल की बातों से अनुभव लेकर, सुन्दर भविष्य के निर्माण के लिए वर्तमान काल का कार्यक्रम निर्धारित करना चाहिए।

7. धर्म, अर्थ और काम। संसार के यह तीन प्रयोजन है। इन तीनों सूत्रों को ब्रह्मग्रन्थि रूपी मोक्ष के साथ बाँध देना चाहिए। अर्थात् हमारा धर्म अर्थ और काम मोक्ष में सहायक होना चाहिए।

8. ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ। साँसारिक अवस्था के इन तीन आश्रमों को संन्यास रूपी ब्रह्मग्रन्थि के साथ जोड़ना चाहिए। अर्थात् हर एक आश्रम का उद्देश्य संन्यास संस्कारों को परिपक्व एवं पुष्ट करना होना चाहिए।

9. दैहिक, दैविक, और भौतिक। तीन प्रकार के सुख दुख संसार में है। यह सब कर्मरूपी ब्रह्मग्रन्थि से बंधे हुए हैं। इससे ऐसे शुभ कर्म करने चाहिए जिससे इन तीनों प्रकार के दुखों से बचकर परमानन्द प्राप्त हो सके।

10. योग, यज्ञ और तप। यह तीन साधन लौकिक और परलौकिक समस्त सिद्धियाँ और सफलताएं देने वाले हैं। इन्हें जीवन में ओत-प्रोत कर लेने से सच्चा जीवन फल प्राप्त होता है।

11. देश, धर्म और जाति। इनकी श्रीवृद्धि करना आवश्यक कर्तव्य है।

इसी प्रकार अन्य अनेक त्रिवर्ण हैं। उन पर सूक्ष्म विचार करने, कर्त्तव्य निर्धारित करने एवं तदनुसार कार्य करने का एक प्रेरक, संकेत दीपक यज्ञोपवीत है। उसकी उपस्थिति से प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए।

नौ लड़ें क्यों होती है?

यज्ञोपवीत कुर्बीत सूत्रेण नवतान्तवम्!

देवतास्तत्र वक्ष्यामि आनुपूर्वेण याः स्मृताः

ओंकारः प्रथमे तन्तौ द्वितोयेऽमि स्तथैवच।

तृतीयेनागादेवत्यं चतुर्थे सोमदेवता।

पंचमे पितृदेवत्यं षष्ठे चेव प्रजापतिः!

सप्तमे मारुतश्चैव अष्टमे सूर्य एव च

सर्वे देवास्तु नवम इत्येतास्तन्तु देवताः

-सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र (परिशिष्ट)

अर्थात्- यज्ञोपवीत के नौ सूत्रों में 9 देवता वास करते हैं (1) ओंकार-ब्रह्म (2) अग्नि-तेज (3) अनन्त-धैर्य (4) चन्द्र, शीतल-प्रकाश (5) पितृगण-स्नेह शीलता (6) प्रजापति-प्रजापालक (7) वायु-स्वच्छता (8) सूर्य-प्रताप (9) सब देवता-समदर्शन।

इन नौ देवताओं को-नौ गुणों को धारण करना भी नौ तार का अभिप्राय है। ब्रह्म परायणता, तेजस्विता, धैर्य, नम्रता, दया, परोपकार, स्वच्छता एवं शक्ति सम्पन्नता यह नौ गुण उपरोक्त नौ देवताओं के हैं। नव सूत्री उपवीत धारण करने वाले इन नौ गुणों को अपनाने के लिए निरन्तर प्रयत्न शील रहना चाहिए।

यस्यादेकगुणं शरासनमिंद सुव्यक्त मुर्वीभुजान्।

अस्माकं भवतो यतो नवगुणं यज्ञोपवीत वलम्।

भगवान राम ने परशुरामजी से कहा- हमारे पास तो शरासन का केवल एक ही गुण है परन्तु आपके पास तो नवगुण यज्ञोपवीत का बल है। फिर हीन बल होने के कारण हम आपसे भला संग्राम किस प्रकार कर सकते हैं।

नौ गुणों का बोध कराने वाले भी नौ सूत्र हैं। “धृति, क्षमा दमोस्तेय, शौचमिन्द्रय निग्रह, धीर्विधा सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्॥” इस श्लोक में (1) धृति (2) क्षमा (3) दम (4) अस्तेय (5) शौच (6) इन्द्रिय निग्रह (7) धी (8) विद्या (9) सत्य (10) अक्रोध। यह दस लक्षण धर्म के बताये हैं। इनमें दम और इन्द्रिय निग्रह लगभग एक ही बात है। बहुत थोड़ा अन्तर है। इसलिए कई शास्त्रकार इन्हें नौ लक्षण ही बताते हैं। यही मनुष्य के परम पुनीत नौ गुण कहे जाते हैं। इन नौ गुणों का प्रतिनिधित्व करने वाले यज्ञोपवीत के नौ तार है। जनेऊ पहनने वाले का कर्त्तव्य है कि नौ तारों के सूत्रों के वास्तविक भेद उन नौ गुणों को भी अपने में धारण करे।

ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कृतम्।

कृतो ग्रन्थिस्त्रिनेत्रण गायत्र्या चाभिमंत्रितम्।

-सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र परिशिष्ट

अर्थात्- ब्रह्माजी ने वेदत्रियी से तीन तन्तु का एक सूत्र बनाया विष्णु ने कर्म उपासना और ज्ञान तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी के गायत्री से अभिमंत्रित करके ब्रह्म गाँठ दी। इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार का बन गया।

इस प्रकार ऋग्, युज्, साम तीन वेदों का ज्ञान कर्म उपासना का तथा जन्म, पालन एवं मृत्यु का आभास यज्ञोपवीत से मिलता है। तीनों देवताओं के त्रिविधि कर्मों से नौ सूत का यज्ञोपवीत बना है।

96 चापे का ऋण-

चतुर्वेदेषु गायत्री चतुर्षिं शतिकाक्षरी।

तस्माच्चतुगुणं कृत्वा ब्रह्मतन्तुमुदीरयेत्।

(1) अर्थात्- गायत्री 24 अक्षर की है। वेद 4 हैं। चौबीस का चौगुना 96 होता है। यह भी 96 चप्पों का हेतु है। वेद और गायत्री के अभिमत को स्वीकार करना 96 चौवे लगाने का अभिप्राय है।

तिथिर्वारंच नक्षत्रं तत्ववेदगुणान्वितम्।

कालत्रयं च मासाश्च ब्रह्मसूत्रं हि षण्णवम्

सामेवेदी छान्दोगय सूत्र

(2) तिथि 15, वार 7, नक्षत्र 27, तत्व 25, वेद 4, गुण 3, काल 3, मास 12 इन सबका जोड़ 96 होता है। ब्रह्म पुरुष के शरीर में सूत्रात्मा प्राण का 96 वस्तु रूप कन्धे से कटि पर्यन्त यज्ञोपवीत पड़ा हुआ है, ऐसा भाव यज्ञोपवीत धारण करने वाले को मन में रखना चाहिए। मैं समय का विश्व का, सृष्टि का, तथा धर्म का एक घटक हूँ, ब्रह्म पुरुष को सूत्र रूप से अपने में धारण किये हुए हूँ। मैं विश्व में ओत-प्रोत हूँ विश्व मुझमें समाया हुआ है। विश्व की समस्याएं मेरी समस्याएं, विश्व के हित में मेरा हित है। इन विचारों को अपना कर मनुष्य तुच्छ स्वार्थों को तिलाँजलि देकर परमार्थी बने यह भी 96 चौवों का अभिप्राय है।

(3) चारों वेदों में 1 लाख श्रुतियाँ है। इनमें 80 हजार कर्मकाण्ड, 16 हजार उपासना काण्ड और शेष 4 हजार ज्ञान काण्ड की है। इनमें से कर्मकाण्ड और उपासना काण्ड गृहस्थों ब्रह्मचारियों के लिए तथा ज्ञान काण्ड संन्यासियों के लिए है। कर्मकाण्ड की 80 हजार और उपासना की 16 हजार मिला कर 96 हजार होती है। एक चप्पे में एक हजार श्रुतियों का प्रतिनिधित्व लिया गया है। और 96 चप्पे का यज्ञोपवीत बनाया गया है। इसका तात्पर्य इतनी श्रुतियों को धारण करना है। संन्यासी यदि यज्ञोपवीत पहनते तो उनका 100 चोपे का होता पर शास्त्र में संन्यासी को उपवीत त्यागने का आदेश है इसलिए वे नहीं धारण करते।

(4) सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार मनुष्य अपनी उंगलियों से 84 से लगा कर 108 अंगुल तक का होता है। 84 और 108 के बीच का मध्यान्तर 96 है साधारणताः औसतन, 96 अंगुल को मनुष्य शरीर मान कर जनेऊ में 96 चप्पे रखे गये हैं शरीर को, जीवन को ब्रह्ममय बनाने का बोझ कन्धे पर धारण करना, यह भी 96 चप्पे के यज्ञोपवीत का अभिप्राय है।

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