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Magazine - Year 1946 - Version 2

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भगवान कैसे दिखाई देंगे?

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(श्री स्वामी शिवानन्दजी सरस्वती)

भगवान की व्यक्तिगत सूरतों को ईश्वर, अल्लाह, हरि, जेंहोवाह, स्वर्गीय-पिता, विष्णु, शिव आदि कहा जाता है।

वेदान्ती- लोग उन्हें ब्रह्म कहते हैं। हर्वट-स्पेन्सर उन्हें “जो न जाना जा सके” ऐसा कहते हैं। सकोपेन हेनर उन्हें ‘इच्छा’ के नाम से पुकारते हैं। ‘पूर्ण’, ‘पुरुषोत्तम’ आदि नामों से भी कुछ लोग उन्हें पुकारते हैं और स्पिनोजा उन्हें ‘तत्व’ कहकर सम्बोधन करते हैं।

भगवान को पहचानने में, धर्म में, विश्वास और उनकी पूजा में निष्ठा होनी चाहिये। यह विषय किसी गोष्ठी या क्लब में बैठ कर बहस करने का नहीं है। यह तो सत्य-आत्म की प्राप्ति का विषय है। यह मानव की सबसे गहरी आवश्यकता की पूर्ति है।

अतः अपने जीवन को उच्च बनाने के लिये धर्म की शरण लो। उसकी प्राप्ति के लिये प्रति-क्षण उद्योग करो और प्रत्येक पल धार्मिक बनने के लिये जीवित रहो। बिना धर्म के जीवन से मृत्यु बहुत अच्छी है।

स्वार्थान्धता को दूर करो। इच्छाओं का दमन करो। वहम या शंकाओं को हटाओ, हृदय को पवित्र करो। अपने विचारों पर मनन करो। अपने सिद्धान्तों पर विचार करो। जो गन्दगी या कूड़ा-करकट हो, उसे साफ करो और इस प्रकार भगवान् को प्राप्त करो। यही हर युग के सन्त-महात्माओं के उपदेशों का सार है। बुद्ध, ईसा, मुहम्मद शिन्टो, चैतन्यदेव, शंकर आदि के उपदेश को पढ़ो। तुम्हें साधना का यही सार मालूम होगा। यही भगवत्प्राप्ति का मार्ग है। भगवत्प्राप्ति ही तुम्हारा मुख्य-कर्त्तव्य है।

जिस प्रकार एक गाड़ी को कुशल हाँकने वाला अपनी गाड़ी में जुते चंचल घोड़ों की रास या लगाम के द्वारा रोक-थाम करता है, उसी तरह तुम भी अपनी चंचल-इन्द्रिय-रूपी घोड़ों को विवेक और वैराग्य की लगामों के द्वारा रोक-थाम करो। तभी तुम्हारी उस परब्रह्म भगवान या सुमधुर आत्मा तक पहुँचने की यात्रा सकुशल पूरी होगी और तुम्हें वास्तविक सुख-शान्ति प्राप्त होगी।

सदैव सत्य बोलो सत्य के पथ से कभी विचलित मन हो वो। यह ध्यान रक्खो कि सत्य का अभ्यास करने और पवित्र-जीवन बिताने के लिये ही तुम पैदा हुए हो। नेकी में ही सत्य का निवास है। सीधे खड़े हो, सुदृढ़ बनो, निर्भाव हो वो, सत्यवादी बनो और सत्य का अभ्यास करो। हर जगह सत्य का ही प्रचार करो।

वह व्यक्ति जो सदैव सत्य बोलता हो, जो दयावान हो, उदार हो, जो क्षमाशील और शान्त हो, जो हर प्रकार के भय से निर्भय हो, जिसने क्रोध और लालच को जीत लिया हो, जो परम पवित्र और प्रेमी हो, वही वास्तव में ब्रह्म है वही सच्चा ब्राह्मण है। जिसमें उपरोक्त गुण न हों, वे तो वास्तव में शुद्र ही हैं।

जब तक तुम अपने को बिना शर्त, बिना किसी स्वार्थ और निष्काम भाव से अपने को प्रभु की शरण में अर्पण नहीं कर देते, तब तक तुम उनकी कृपा के अधिकारी कैसे हो सकते हो? भगवान तुमसे कहीं अच्छी तरह यह बात जानते हैं कि तुम्हारा हित-अहित क्या है? पूर्ण रूप से अपना समस्त अपनत्व उन्हीं भगवान के पावन पाद-पदों में समर्पण करना मन्दिरों में जाकर दर्शन करने, घंटा घड़ियाल बजा कर पूजा करने और अन्य प्रकार की भगवत्सेवाओं से कहीं बढ़-चढ़ कर है। भगवान तुम्हारा ऊपरी दिखावा नहीं चाहते। वे तो तुम्हारा हृदय चाहते हैं। एक बार प्रेम से ऐसा कह दो-प्रभु! तेरी इच्छा पूरी करूंगा, मैं तेरा हूँ, मेरे पास जो कुछ भी है सभी तो तेरा ही है। किन्तु यह बात हृदय की अन्तरात्मा से निकले। सचाई और निष्ठा के साथ। शुद्ध प्रेम में मतवाले बन कर रुदन करो एकान्त में उनके लिए विलाप करो ऐसे ढंग से रोओ कि तुम्हारे सब वस्त्र तुम्हारी अश्रु-धारा से भीग कर सराबोर हो जाय।

अपनी आँखों को बन्द करो। दुनिया, शरीर और समस्त वासनाओं को नष्ट करो। सब और से मन को खींच लो। केवल एक प्रभु में लीन हो जाओ। तब असली अमरत्व के अमृत का पान करो।

भगवान श्रीकृष्ण का सच्चा भक्त अपने कृष्ण को समस्त संसार में देखता है जिस ओर उसकी दृष्टि जाती है, उधर ही उसे कृष्ण दिखाई देते हैं। उसे दिव्य योग के चक्षु और योग की दृष्टि प्राप्त हो गई है।

ऐसा सोचना कि तुम दुनिया से पृथक हो, भारी मूर्खता है। तुम दुनिया में हो और दुनिया तुम में है दुनिया के किसी प्राणी को कष्ट पहुँचाना तुम्हें अपने को ही कष्ट पहुँचाने के बराबर है। विश्व रंजन का हानि लाभ तुम्हारा ही हानि लाभ है। चन्द्रशेखर को प्रेम करना अपने को ही प्रेम करना है। दुई का भाव निकाल दो। दुई में मृत्यु है और एकत्व में असली जीवन है।

मित्रो! भगवान के दर्शन पाना बहुत कठिन नहीं है। उन प्रभु को प्रसन्न करना उतना अधिक कठिन नहीं है। वे सर्वव्यापी और घट-घट वासी हैं। वे तुम्हारे हृदय में निवास करते हैं। उन्हीं का सदैव चिन्तन करो। उनके साकार और सगुण रूप का ही ध्यान करो। नित्य ऐसी प्रार्थना करो-हे भगवान! मुझ पर दया करो। मेरी अन्तः दृष्टि खोल दो। मुझे दिव्य चक्षु प्रदान करो। मुझ पर ऐसी अनन्त दृष्टि कृपा कर दो कि मैं विश्व रूप दर्शन कर सकूँ। भक्त गण आपको पतित-पावन कह कर आपके गुणों का गान करते हैं। भक्तवत्सल! दीनदयाल!! मुझ पर भी दया करो। हे दयासागर! जिस प्रकार पक्षी अपने बालकों को अपने पंखों के भीतर छुपा कर रक्षा करते हैं, उसी प्रकार तुम भी मुझे अपनी चिर-शान्तिदायिनी शरण में लेकर मेरा उद्गार करो।

ऐसी प्रार्थना सच्चे हृदय से, प्रेम और निष्ठा से नित्य करने पर अवश्य ही तुम्हें भगवान के दर्शन होंगे। तब तुम सा भाग्यवान फिर कौन होगा?

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