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Magazine - Year 1946 - Version 2

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क्रोध का स्वास्थ्य पर प्रभाव

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(श्री डा. बनारसीदास जैन)

क्रोध एक भयंकर शत्रु है। क्रोध में आकर मनुष्य अपना सर्वनाश कर बैठता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि “जिस प्रकार बवंडर अपने प्रकोप से पेड़ों को चीरता फाड़ता हुआ प्रकृति की आकृति को बिगाड़ देता है या भूकम्प अपने क्षोभ से बड़े-2 नगरों को उलट-पुलट देता है ठीक उसी तरह मनुष्य का क्रोधावेग अपने आसपास अनेक उत्पात खड़े कर लेता है। संकट और विनाश तो उसके सिर पर ही मंडराया करते हैं।” इससे स्पष्ट है कि जहाँ क्रोध है वहाँ शान्ति नहीं रह सकती। गीता में कहा है कि “क्रोधात् भवति सँमोह सँमोहात् स्मृति विभ्रमः। स्मृति भ्रंशाद बुद्धि नाशो बुद्धि नाशात् प्रणश्यात”॥ अर्थात् जिस मनुष्य पर क्रोध का भूत सवार हो जाता है उसकी विवेक बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। वह सुपथ को त्याग कुपथ को ग्रहण करता है और अन्त में नाश को प्राप्त होता है। क्रोधी व्यक्ति अन्धे और बहरे की भाँति चेतन रहते हुए भी अचेतन के समान कोई भी कर्त्तव्य स्थिर करने में असमर्थ होता है। क्रोधी मनुष्य को उचित अनुचित का ध्यान नहीं रहता। वह सदा डाँवा-डोल रहता है, कभी-कभी तो वह पागल होकर मर तक जाता है। क्रोधी मनुष्य शारीरिक, मानसिक, नैतिक या अध्यात्मिक किसी भी प्रकार की उन्नति नहीं कर सकता।

विद्वानों का कथन है कि इस मनोविकार के प्रबल हो जाने पर खून में एक प्रकार का विष पैदा हो जाता है जिससे क्रोधी मनुष्य को बहुत हानि होती है। यही वजह है कि क्रोधी प्रायः दुर्बल रहते हैं। क्रोधी मनुष्य का खून इतना जहरीला हो जाता है कि उसके उसके खून की एक बून्द खरगोश आदि जीवों के शरीर में पिचकारी द्वारा डालने से उनकी दशा बड़ी खराब हो जाती है। जिस खरगोश के शरीर में उसका प्रयोग किया जाता है वह दूसरे खरगोश को फाड़ खाता है और कभी-कभी मर तक जाता है। इसी से क्रोध आत्मघात के तुल्य है। क्रोध में आकर मनुष्य ऐसे-2 काम कर डालता है कि जिससे उसे बाद में पछताना पड़ता है तथा भयंकर सन्ताप सहना पड़ता है।

क्रोधी मनुष्य कभी स्वस्थ नहीं रह सकता। उसका चेहरा पीला पड़ जाता है। शरीर सूखकर काँटा हो जाता है। पाचन-शक्ति तो बिल्कुल ही बिगड़ जाती है जिसके फलस्वरूप शरीर रोगों का घर बन जाता है। क्रोधी मनुष्य की नाड़ी की गति तेज हो जाती है। रगें ऊपर की ओर खड़ी हुई दिखाई देती हैं। क्रोध वेश में वह दाँत पीसने लगता है, उसकी साँस जल्दी-2 चलने लगती है, भौएं और हाथ सिकुड़ने लगते हैं। उसका शरीर रोमाँचित हो जाता है, वाणी बदल जाती है, चेहरा लाल हो जाता है, जुबान खुश्क हो जाती है और खून में गर्मी पैदा हो जाती है। हारवर्ड मेडीकल कालेज के प्रोफेसर डाक्टर वाल्टरकेनिन लिखते हैं कि “मनुष्य के दोनों गुर्दों के ऊपर चने के दाने के बराबर दो छोटी-2 ग्रन्थियाँ होती हैं जिनमें से एक प्रकार का पदार्थ निकलता है जिसको एडरेनलिन (्नस्रह्द्गठ्ठड्डद्यद्बठ्ठ) कहते हैं। यह पदार्थ जब खून में मिलकर जिगर में पहुँचता है तो वहाँ जमे हुये गलाईकोजन (त्रद्यब्द्गशद्दद्गठ्ठ) को शक्कर में बदल देता है। यह शक्कर खून में मिल कर नाड़ियों के द्वारा शरीर के तमाम हिस्सों में पहुँच जाती है जो रोग और पट्ठो में बहुत खिंचावट पैदा करती है।

एक प्रसिद्ध विद्वान “सेकेका” का कथन है कि “क्रोध दुर्भाग्य की तरह जिस पर सवार होता है उसका विनाश करके छोड़ता है। यह लकवे की तरह अन्त में अंगों को शक्तिहीन करके छोड़ता है। क्रोधावेश में प्रथम तो मनुष्य नशे की तरह उत्तेजित होता है और अपने अन्दर कई गुनी कार्य-शक्ति अनुभव करने लगता है, किन्तु अन्त में क्रोध का नशा उतरते ही वह निर्बल हो जाता है। शराबी की तरह वह दुबला-पतला हो जाता है, मस्तिष्क एवं विचार शक्ति क्षीण हो जाती है। यह क्षणभर का आवेग दीर्घ कालीन पश्चाताप का कारण बन जाता है।”

बाइबिल में भी लिखा है कि है कि “जो मनुष्य क्रोधावस्था में शयन करता है मानो वह एक विषधर सर्प को अपनी बगल में दबाकर सोता है।” सचमुच क्रोध विषधर से किसी प्रकार कम नहीं है। विषधर तो शरीरान्त करता है किन्तु क्रोध धीरे-धीरे कष्ट पहुँचाता हुआ देह एवं आत्मा दोनों का पतन करता है। इसका कष्ट चिरकालीन होता है। अतः यह सर्प से भी बढ़कर भयंकर शत्रु है।

केलूलैंड के डॉक्टर अरोली ने इस संबंध में कई तरह के परीक्षण किये हैं। उनका कथन है कि खून में शक्कर की अधिकता के कारण कुछ ऐसे तेजाब पैदा हो जाते हैं जो स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त हानिकारक और घातक हैं। यही वजह है कि उन्नतिशील पाश्चात्य देशों में शारीरिक दण्ड की घृणित प्रथा स्कूलों से उठती जा रही है। किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारे देश में अब भी इस घातक दण्ड पद्धति का बोलबाला है जिसके फलस्वरूप बालक अपना विकास पूर्णरूपेण नहीं कर सकते। क्या माता-पिता और शिक्षक इन नवीन गवेषणाओं से फायदा उठाकर निर्दोष बालकों को डराना या उन पर हाथ उठाना एक अक्षम्य अपराध समझेंगे?

क्रोध से बचने के उपाय-

क्रोध से बचने का स्थायी और वास्तविक उपाय तो यही है कि हम क्रोध के कारण को मालूम करने की कोशिश करें। क्रोध का आरम्भ या तो मूर्खता से या दुर्बलता से अथवा मानव स्वभाव से अनभिज्ञता के कारण होता है। अब कोई व्यक्ति हमारा कहना नहीं मानता या हमारी इच्छा के विरुद्ध काम करता है तो हम आपे से बाहर हो जाते हैं और उस पर बेतहाशा बरस पड़ते हैं। हम यह समझने की तकलीफ ही नहीं करते कि हमें दूसरों को अपनी इच्छानुसार चलाने का क्या अधिकार है। हम अपने रोजमर्रा के अनुभव से भली प्रकार जान सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य की वृत्ति दूसरे मनुष्य से भिन्न होती है ऐसी हालत में सभी मनुष्य एक ही लाठी से कैसे हाँके जा सकते हैं। मनोविज्ञान के इस अटल सिद्धाँत को समझ लें तो हम बहुत हद तक क्रोध के चंगुल में पड़ने से बच सकते हैं और आनन्द से जीवन व्यतीत कर सकते हैं। सर्वसाधारण के लाभार्थ कुछ सरल उपाय भी नीचे दिये जाते हैं जिन पर अमल करने से क्रोध को शान्त किया जा सकता है।

जब क्रोध के उत्पन्न होने की तनिक भी सम्भावना हो तब हमें सावधान हो जाना चाहिए या उस समय कहीं चले देना चाहिए। अगर क्रोध का आक्रमण हो चुका हो तो कुछ देर के लिए उस प्रसंग को बदल देना चाहिए तथा किसी दूसरे मनोरंजक विषय या अन्य काम की ओर अपने चित्त को लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। मौनावलम्बन तो क्रोध शाँति का एक अचूक साधन है। एक गिलास ठण्डा जल पी लिया जावे या स्नान कर लिया जावे तो भी क्रोध पूर्णरूपेण शान्त नहीं तो घट अवश्य जाता है। जैसे जलती हुई लकड़ी पर पानी डालने से उसका वेग कम हो जाता है उसी प्रकार गुस्से में ठण्डा जल पीने से उसका वेग कम हो जाता है। एक बात और है-अगर हम दूसरों की आलोचना न करके अपनी ही आलोचना करने की आदत डाल लें तो क्रोध वेग से बहुत कुछ छुटकारा पा सकते हैं। पर अफसोस तो यह है कि हम अपनी आँख का तो शहतीर भी नहीं देखते किन्तु दूसरे की आँख का तिल भी हमें खटकने लगता है। यदि क्रोध से छुटकारा पाना है तो हमें अपनी इस बुरी आदत को बदलना होगा, दूसरों पर जबरन अपनी बात लादने का मोह छोड़ना होगा और सबके साथ मृदुता से पेश आना होगा क्योंकि किसी ने ठीक ही कहा है कि मधुर जवाब क्रोध को दूर भगाता है।

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