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Magazine - Year 1946 - Version 2

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शक्ति संचय के पथ पर

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अनेक प्रकार की कठिनाइयों विपत्तियों तथा तथा संकटों का प्रधान कारण निर्बलता है। निर्बल के ऊपर रोग, नुकसान, अपमान आक्रमण आदि के पहाड़ आये दिन टूटते रहते हैं। निर्बलता में एक ऐसा आकर्षण है जिससे विपत्तियाँ अपने आप आकर्षित हो जाती हैं। जिसका कुछ नहीं बिगाड़ा है वह भी निर्बल का शत्रु बन जाता है। बकरी की निर्बलता उसके प्राणों को घातक सिद्ध होती है। जंगली जानवर, मनुष्य यहाँ तक कि देवी देवता भी उसी के रक्त के प्यासे रहते हैं। बदला लेने की शक्ति रखने वाले और आसानी से हाथ न आने वाले सिंह व्याघ्र, भेड़िया आदि का माँस लेने की किसी की इच्छा नहीं होती। देवी देवता भी इनकी ओर आँख उठाकर नहीं देखते।

हिन्दू जाति बहुत समय से बकरी बनी हुई है। उस पर भीतर और बाहर से लगातार आक्रमण होते रहते हैं। पिछली शताब्दियों की ओर दृष्टिपात करते हैं तो प्रतीत होता है कि उसे बहुत समय से आक्रमणों का शिकार होना पड़ रहा है। यूनानियों ने हिन्दुस्तान पर हमला किया, सिकन्दर ने चढ़ाई करके काफी धन जन की हानि पहुँचाई। इसके बाद मुसलमानों के हमले शुरू हुए, एक के बाद एक हमला हुआ। नये-नये वंश आते रहे और मन चाही लूट खसोट करते रहे। धर्म विस्तार के लिए उन्होंने जो ज्यादतियाँ कीं, हिन्दू अबलाओं जिस प्रकार इज्जत लूटी वह किसी से छिपा नहीं है। इसके बाद अंग्रेज, फ्राँसीसी पोर्तगीज आदि के आक्रमण हुए उन्होंने भी अपने ढंग से हुकूमत चलाई और हुकूमत से मिलने वाले लाभों को खूब लूटा।

इतने बड़े देश पर, इतनी बहु संख्यक जाति पर थोड़े से लोगों ने इस प्रकार आक्रमण किये और ऐसी लूट खसोट मचाई इसे देखकर हैरत होती है। बड़ी संख्या को देखकर छोटी संख्या वाले खुद डर जाते हैं और दुर्व्यवहार करने का दुस्साहस नहीं करते, पर यहाँ तो बिल्कुल उलटा हुआ। मुट्ठी-मुट्ठी भर हमलावरों को तनिक से प्रयत्न में सफलता मिल गई। और वे काफी लंबे समय तक निधड़क होकर कब्जा किये बैठे रहें, यह सचमुच ही एक आश्चर्य की बात है।

आज साम्प्रदायिक दंगों का वातावरण गरम है। जगह-जगह से साम्प्रदायिक दंगों के दिल दहला देने वाले समाचार प्राप्त होते रहते हैं। जिनसे प्रतीत होता है कि थोड़े से गुंडे उबल पड़ते हैं और हजारों नर नारियों को गाजर मूली की तरह काट कर रख देते हैं। अपार धन जन की हानि कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। हम अनाथ बालकों की तरह रोते चिल्लाते और इधर-उधर भागते हैं अखबारों में लेख छापते हैं प्रस्ताव पास करते हैं, और अन्त में माथा पीट कर चुप हो बैठते हैं। गुण्डों का हौसला बढ़ाते हैं, वे एक के बाद दूसरा आक्रमण अधिक जोर से करते हैं और अधिक उत्पात मचाते हैं। हर उत्पात के साथ उनकी पशुवृत्ति तृप्त होती है और लूट का माल हाथ लगता है। इस घटनाक्रम की बार-बार पुनरावृत्ति होती रहती है।

इस दुखद स्थिति पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि हम या तो अशक्त हो गये हैं या हमने अपने को इस रूप में रखा है कि दूसरों द्वारा अशक्त समझे जाने लगे हैं। जरूरत से ज्यादा जो सीधे होते हैं वे बकरी की भाँति सताये जाते हैं। इसी कारण हिन्दू जाति को अनेकों प्रकार के संकटों का आये दिन सामना करना पड़ता है।

हिन्दू धर्म, दया, शान्ति, क्षमा और सहिष्णुता का धर्म है। हमारी धार्मिक शिक्षाएं शान्ति का उपदेश देती हैं। यह शिक्षा बहुत ही उच्च एवं महान हैं। यह जितनी उच्च हैं, उतने ही उच्चकोटि के व्यक्तियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने योग्य हैं। जिस समय आर्य जाति सब प्रकार उन्नत अवस्था में थी चक्रवर्ती साम्राज्य उसके हाथ में था उस समय वह इन शिक्षाओं को चरितार्थ करने की स्थिति में थी, जिसमें बल है, जो दंड देने की योग्यता से सम्पन्न है उसी वीर को क्षमा शोभा देती है। पैर मैं चींटी काट ले तो मनुष्य चाहे तो उसे क्षणभर में मसल कर रख दे सकता है, ऐसी स्थिति में यदि वह उस चींटी के प्रति क्रोध न लावे और दया पूर्वक उसे क्षमा कर दे तो यह क्षमा उसके लिए शोभनीय है, प्रशंसा के योग्य है। परन्तु यदि कोई भयंकर भेड़िया आक्रमण कर और नृशंसता पूर्वक अपने बालकों को खाने लगे तो उसका प्रतिरोध न करना ‘क्षमा’ नहीं कही जा सकती, यह कायरता या अशक्यता ही ठहरेगी।

क्षमा वीरों का धर्म है, अशक्तों का नहीं। जो पूर्ण स्वस्थ है उसके लिए खीर, पुआ मोहनभोग, घी, रबड़ी का सेवन लाभदायक है पर जो रोग से चारपाई पे रहा है, उठकर खड़े होने की शक्ति जिसमें नहीं, उसके लिए वे पौष्टिक पदार्थ लाभदायक नहीं है, उसके लिए तो वे अहित कर परिणाम ही उपस्थित करेंगे। वे निर्बल जो अपने न्यायोचित अधिकारों की रक्षा नहीं कर सकते, अपनी आत्म रक्षा में सफल नहीं होते, यदि शान्ति और क्षमा की रट लगाते हैं तो समझना चाहिए कि अपनी निर्बलता और कायरता छिपाने का एक थोथा बहाना ढूँढ़ते हैं। मुकाबला करने को धर्म ग्रन्थों और राजकीय कानूनों का समर्थन प्राप्त है।

हमें अपनी दुर्गति को रोकना है तो बकरी की स्थिति से ऊँचा उठना होगा। किसी पर आक्रमण करने का किसी को सताने का उद्देश्य कदापि न रखते हुए भी आत्मरक्षा के लिए हमें शक्ति सम्पन्न बनना चाहिए आतताइयों के आक्रमण का मुँह तोड़ उत्तर देने की क्षमता हमारे अन्दर जैसे उत्पन्न होती जायगी वैसे ही वैसे अकारण सिर के ऊपर टूटते रहने वाले अनर्थों से छुटकारा मिलने लगेगा।

अंग्रेजी की एक कहावत है कि शक्ति का प्रदर्शन, शक्ति के प्रयोग को रोकता है। जिसके पास शक्ति होती है उसको उसका प्रयोग बहुत कम करना पड़ता है उसका परिचय पाकर ही दुष्ट लोग दहल जाते हैं और दुष्टता का दुस्साहस करने की हिम्मत नहीं पड़ती। पर जहाँ वह निधड़क होते हैं कि न तो हमारे आक्रमण का मुकाबला किया जायगा और न पीछे कोई दण्ड मिलेंगे वहाँ उनकी दुष्टता नंगे रूप में नाचने लगती है। ऐसी विषम स्थिति से बचने का एक मात्र उपाय शक्ति का परिचय देना ही है। बकरे की माँ कब तक दुआ माँगती रहेगी निर्बल की रक्षा बातूनी जमा खर्च से नहीं हो सकती।

धन कमाने और धर्म चर्चा करने की ओर आज हमारे समाज की प्रवृत्तियाँ विशेष रूप से हैं पर यह दोनों कार्य भी तब तक ठीक प्रकार नहीं हो सकते, जब तक अमन चैन का वातावरण न हो। अशान्त वातावरण का कारण शक्ति सन्तुलन का बिगड़ जाना है। इसे ठीक किये बिना जीवन की कोई दिशा स्थिर नहीं रह सकती, आज समय का तकाजा है कि हम अपनी निर्बलता और कायरता को निकाल फेंके। संगठन करें, शारीरिक बल बढ़ावें, आत्मरक्षा के लिए लाठी आदि की शिक्षा प्राप्त करें और मुसीबत के समय एक दूसरे की सहायता करते हुए आततायियों के आक्रमण को विफल बनाने की तैयारी करें। हम आत्मरक्षा के साधनों से जब सुसज्जित हो जायेंगे तभी बकरी की स्थिति से छुटकारा पा सकेंगे। बाहर से और भीतर से होने वाले आक्रमण से बचने के लिए शक्ति संचय के पथ पर अग्रसर होना चाहिए। शक्ति से ही शान्ति स्थापित होती है।

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