
विपत्तियों से छुटकारा
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काठिन्यं विविधं घोर ह्यापदाँ संहतिस्ताथा।
शीघ्रं विनाशताँ यान्ति विविधा विघ्नराजयः।
(विविधं) नाना प्रकार की (घोरं) घोर (काठिन्यं) कठिनाई (तथा) वैसे ही (हि आपदाँ ) आपत्तियों का (संहति) समूह (विविधा) नाना प्रकार के (विघ्न राजयः) विघ्नों का समूह इससे (शीघ्र) शीघ्र ही (विनाशताँयान्ति ) नष्ट हो जाते हैं।
विनाशदुक्तशत्रूणामन्तः शक्तिर्विवर्धते।
संकटानामनायासं पारं याति तयानरः।।
(उक्त शत्रूणाँ) उपर्युक्त शत्रुओं के (विनाशात्) विनाश से (अन्तः शक्तिः) आन्तरिक शक्ति (विवर्धते) बढ़ती है (तया) उस अन्तः शक्ति से (नरः) मनुष्य (अनायासं) बिन परिश्रम के (संकटानाँ) संकटों के (पार ) पार ( याति ) हो जाता है।
मनुष्य जीवन में अनेक प्रकार के कष्ट, विघ्न, दुर्दैव, सामने आते रहते हैं। दैविक, दैहिक, भौतिक आपत्तियां सामने आती रहती हैं। अभी एक से छुटकारा प्राप्त हुआ नहीं कि दूसरा विघ्न, सामने आ खड़ा हुआ। इस प्रकार आये दिन मनुष्य को विपत्तियों का, चिन्ता, शोक, भय, क्लेश, कलह, शोषण, उत्पीड़न आदि का शिकार होना पड़ता है और दुख की घटाएं ऊपर छाई रहती हैं, इस तरह आनन्द की प्राप्ति के उद्देश्य से स्वर्गादपि गरीयसी-धरती माता पर अवतीर्ण हुआ सुख स्वरूप आत्मा, स्वर्गीय सुख भोगने के स्थान पर नारकीय अनुभूतियों के साथ अपनी यात्रा पूरी करता है।
यह स्थिति अस्वाभाविक, अवाँछनीय तथा अनुचित है। आत्मा आनन्दस्वरूप है उसकी यह उद्यान यात्रा-जीवन धारण-भी आनन्दमय होनी चाहिए। दुख के कारण स्वाभाविक नहीं- अस्वाभाविक होते हैं, जिन्हें व्यक्ति अपनी भूल से, आलस्य से, अकर्मण्यता से, अपने ऊपर लादते हैं और दुखी बनते हैं। दुख के कारण तीन हैं (1) अज्ञान (2) अशक्ति (3) अभाव। इन तीनों कारणों को जो जिस सीमा तक अपने से दूर करने में समर्थ होगा वह उतना ही सुखी बन सकेगा।
अज्ञान के कारण मनुष्य का दृष्टिकोण दूषित हो जाता है, तत्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण उलटा उलटा सोचता है और उलटे काम करता है, तदनुसार उलझनों में अधिक फँसता जाता है और दुखी बनता है। स्वार्थ, भोग, लोभ अहंकार, अनुसार और क्रोध की भावनाएं मनुष्य को कर्तव्यच्युत करती हैं और वह दूरदर्शिता को छोड़कर क्षणिक, क्षुद्र एवं हीन बातें सोचता है तथा वैसे ही काम करता है। फल स्वरूप उसके विचार और कार्य पापमय होने लगते हैं। पापों का निश्चित परिणाम दुख है। दूसरी ओर अज्ञान के कारण वह अपने, दूसरों के, साँसारिक गतिविधि के मूल हेतुओं को नहीं समझता पाता । फलस्वरूप असंभव आशाएं तृष्णाएं, कल्पनाएं किया करता है। इन उलटे दृष्टिकोणों के कारण साधारण सी, मामूली सी बातें उसे बड़ी दुखमय दिखाई देती हैं जिनके कारण वह रोता चिल्लाता रहता है। आत्मीयों की मृत्यु, साथियों की भिन्न रुचि, परिस्थितियों का उतार चढ़ाव, स्वाभाविक है, पर अज्ञानी सोचता है कि जो मैं चाहा हूँ वही सदा होता रहे, कोई प्रतिकूल बात सामने आवे ही नहीं इस असंभव आशा के विपरीत घटनाएं जब भी घटित होती है तभी वह रोता चिल्लाता है। तीसरे अज्ञान के कारण भूलें भी अनेक प्रकार की होती हैं, समीपस्थ सुविधाओं से वंचित रहना पड़ता है, यह भी दुख का एक हेतु है। इस प्रकार अनेकों दुख मनुष्य को अज्ञान के कारण प्राप्त होते हैं।
आशक्ति का अर्थ है निर्बलता। शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, बौद्धिक, आत्मिक, निर्बलताओं के कारण, मनुष्य अपने स्वाभाविक, जन्मसिद्ध, अधिकारों का भार अपने कंधे पर उठाने में समर्थ नहीं होता, फलस्वरूप उसे उनसे वंचित रहना पड़ता है। स्वास्थ्य खराब हो, बीमारी ने घेर रखा हो तो स्वादिष्ट भोजन, रूपवती तरुणी, मधुर गीत वाद्य, सुन्दर दृश्य निरर्थक हैं, धन दौलत का कोई कहने लायक सुख उसे नहीं मिल सकता। बौद्धिक निर्बलता हो तो- साहित्य, काव्य, दर्शन, मनन, चिन्तन का रस प्राप्त नहीं हो सकता है। आत्मिक निर्बलता हो तो सत्संग, प्रेम, भक्ति आदि का आत्मानंद दुर्लभ है। इतना ही नहीं निर्बलों को मिटा डालने के लिए प्रकृति का ‘उत्तम की रक्षा’ सिद्धान्त काम करता है। कमजोर को सताने और मिटाने के लिए अनेकों तथ्य प्रकट हो जाते हैं। निर्दोष भले और सीधे साधे तत्व भी उसके प्रतिकूल पड़ते हैं। सर्दी, जो बलवानों की बलवृद्धि करती है, रसिकों को रस देती है, वही कमजोरों को निमोनिया गठिया आदि का कारण बन जाती है। जो तत्व निर्बलों के लिए प्राणघातक हैं, वे ही बलवानों को सहायक सिद्ध होते हैं बेचारी निर्बल बकरी को जंगली जानवरों से लेकर जगत् माता भवानी दुर्गा तक चट कर जाती है और सिंह को वन्य पशु ही नहीं बड़े बड़े सम्राट तक अपने राज चिह्न में धारण करते हैं। सत्य अहिंसा की पोषक, भारत सरकार तक ने एक नहीं तीन तीन सिंहों की प्रतिमा को अपना राजचिह्न घोषित किया है। अशक्त हमेशा दुख पाते हैं, उनके लिए भले तत्व भी भयप्रद सिद्ध होते हैं।
अभाव जन्य दुख है- पदार्थों का अभाव, अन्न, वस्त्र, जल, मकान, पशु, भूमि, सहायक, मित्र, धन, औषधि, पुस्तक, शस्त्र, शिक्षक आदि के अभाव में विविध प्रकार की पीड़ाएं, कठिनाइयाँ भुगतनी पड़ती हैं। उचित आवश्यकताओं को कुचल कर-मन मार कर बैठना पड़ता है और जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों को मिट्टी के मोल नष्ट करना पड़ता है। योग्य और समर्थ व्यक्ति भी साधनों के अभाव में अपने को लुँज पुँज अनुभव करते हैं और दुख उठाते हैं।
इन तीन कारणों से-अज्ञान, अशक्ति और अभाव से-ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं जो तुरन्त या देर सवेर में शारीरिक मानसिक साँसारिक एवं आकस्मिक दुखों की उत्पत्ति करती हैं। जिनमें ग्रसित होकर मनुष्य विविध प्रकार के कष्ट सहता रहता है। परन्तु गायत्री की साधना से मनोभूमि का इस प्रकार विकास होता कि ज्ञान, शक्ति और समृद्धि का बाहुल्य प्रत्यक्ष रूप से दृष्टि गोचर होने लगता है। इस वृद्धि के साथ साथ दुखों के मूल हेतु भी घटने लगते हैं, फलस्वरूप साधक अपने चारों ओर सुख शान्तिमयी परिस्थितियाँ बढ़ती हुई देखता है।
आपत्तियाँ एक प्रकार की ईश्वरीय चेतावनियाँ हैं, जिनसे ठोकर खाकर मनुष्य सजग हो और गलत मार्ग में पीछे लौटे। जब साधक गायत्री शक्ति को अपने अन्तःकरण में धारण करके सतोगुणी कार्य प्रणाली अपना लेता है तो उसके लिए चेतावनियों की, ठोकर देने की, ईश्वर को कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। पुराने संचित अशुभ संस्कार जो अभी प्रारब्ध रूप में परिणत नहीं हुए हैं, इस परिवर्तन की गर्मी से छोटे पौधे की तरह जलभुन जाते हैं। इस प्रकार बहुत से छोटे मोटे अशुभ संस्कारों का कुफल तो इस सत्य धारण के तेज से ही भस्म हो जाता है। जिन प्रचंड, दीर्घकालीन, भारी, बुरे, कर्मों का फल प्रारब्ध बन चुका है, वह शीघ्रता एवं आसानी से भुगत जाता है। उसे भुगतते समय, अपनी आध्यात्मिक मस्ती के कारण साधक को विशेष कष्ट नहीं होता। क्योंकि जब कष्ट को कष्ट मानना ही छोड़ दिया तो वह व्यर्थ हो जाता है। एक धनी का सब कुछ चला जाय और छोटी फूँस की झोपड़ी में फटे पुराने कपड़े पहन कर, रूखा सूखा खाकर, गुजर करनी पड़े तो यह उसके लिए बड़े कष्ट की बात है। पर अनेकों मनुष्य ऐसे हैं जो चिरकाल से ऐसी ही हीन स्थिति में रहते आ रहे हैं और प्रसन्न हैं। इससे सिद्ध है कि सुख दुख की वास्तविकता उतनी नहीं- जितनी कि उसकी मान्यता-प्रधान है। जब सतोगुणी व्यक्ति दुख को दुख नहीं मानता तो प्रारब्धों के भोग से दूसरों की दृष्टि में वह दुखी भले ही प्रतीत हो पर स्वयं उसे बुरा अनुभव नहीं होता। इस प्रकार गायत्री साधना से सब प्रकार के दुखों का वस्तुतः नाश हो जाता है।
गायत्री साधना से सतोगुण की वृद्धि होती है, आत्मबल उन्नत होता है फल स्वरूप उन तत्वों का शासन और दमन होता रहता है जो उन्नति और सुख शान्ति में बाधक होते हैं। स्वभाव और दृष्टिकोण में अन्तर आ जाने से, उनके परिमार्जित हो जाने से, अनेकों ऐसे कारण स्वयमेव समाप्त हो जाते हैं, उनका अवसर ही नहीं आ पाता जिनके कारण दुख दारिद्र की पीड़ाएं मनुष्य को भुगतनी पड़ती हैं। विपत्ति और सम्पत्ति प्रधानतः मान्यता का विषय है। एक व्यक्ति जिस स्थिति में रहते हुए प्रसन्नतापूर्वक जीवन यापन करता है दूसरा उसमें पहुँचने को एक विपत्ति अनुभव करता है। जब दृष्टि कोण में सतोगुणी, दार्शनिक परिवर्तन हो जाता है तो मनुष्य के लिए कोई भी बात विपत्ति नहीं रहती।
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