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Magazine - Year 1948 - Version 2

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अनिष्ट का कोई भय नहीं

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दयालुशक्ति सम्पन्ना माता बुद्धिमता यथा। कल्याणं कुरुतेह्येव प्रेम्णा बालस्य चात्मनः।। तथैव माता लोकानाँ गायत्री भक्त वत्सला। विद्धाति हितं नित्यं भक्तानाँ ध्रुवमात्मनः।

(यथा) जैसे ( दयालुः ) दयालु ( शक्ति सम्पन्ना ) शक्तिशालिनी (च) और (बुद्धिमती) बुद्धिमान ( माता ) माता ( प्रेम्णा) प्रेम से ( आत्मनः ) अपने (बालस्य) बालक की (कल्याणेह्येव) कल्याण ही ( कुरते) करती है। (तथैव) उसी प्रकार (भक्त वत्सला) भक्तों पर प्यार करने वाली (गायत्री ) गायत्री ( लोकानाँ) संसार की (माता) माता (ध्रुवं) निश्चय से (आत्मनः) अपने (भक्तानाँ) भक्तों का ( नित्यं ) सर्वदा (हितं ) कल्याण (विद्धाति ) करती है।

कुर्वन्नपि त्रुटीर्लोके बालकोमातरं प्रति। यथा भवति कश्चिन्न तस्या अप्रीति भासनः।। कुर्वन्नपित्रुटीर्भक्ति कश्चिद् गायत्र्युपासने। न तथा फलमाप्नोति विपरीतं कद्चन।।

(यथा) जिस प्रकार (लोके) संसार में (मातरं प्रति) माता के प्रति (त्रुटि) गलतियाँ (कुर्वन्अपि) करता हुआ भी (कश्चिद) कोई (बालकः) बालक (तस्याः) उस माता का (अप्रीति भाजनः) शत्रु (न भवति) नहीं होता (तथा) उसी प्रकार (गायत्र्युपासने) गायत्री की उपासना करने में (त्रुटीः) गलतियाँ (कुर्वन् अपि) करता हुआ भी (कश्चित् ) कोई (भक्तः) भक्त (कदाचन ) कभी भी (विपरीतं) विपरीत (फलं) फल को (न) नहीं (आप्नुते) प्राप्त होता ।

मंत्रों की साधना की एक विशेष विधि व्यवस्था होती है। नियत साधना पद्धति से, निर्धारित कर्मकाण्ड के अनुसार, मंत्रों का अनुष्ठान, साधन, पुरश्चरण करना होता है। आमतौर से अविधि पूर्वक किया हुआ अनुष्ठान, साधक के लिए हानिकारक सिद्ध होता है और लाभ के स्थान पर उसके अनिष्ट की संभावना रहती है।

ऐसे कितने ही उदाहरण मिलते हैं कि किसी व्यक्ति ने किसी मंत्र की या देवता की साधना की अथवा कोई योगाभ्यास या ताँत्रिक अनुष्ठान किया। साधना की नियत रीति में कोई भूल हो गई अथवा किसी प्रकार वह अनुष्ठान खंडित हो गया तो उसके कारण साधक को भारी विपत्ति में पड़ना पड़ता है। कई आदमी तो पागल तक होते देखे गये हैं। कई को रोग, मृत्यु, धन नाश आदि का अनिष्ट सहना पड़ा है। ऐसे प्रमाण इतिहास प्रमाणों में भी मिलते हैं। वृत्त और इन्द्र की कथा इसी प्रकार की है वेदमंत्रों का अशुद्ध उच्चारण करने पर उन्हें घातक संकट सहना पड़ा था।

अन्य वेद मंत्रों की भाँति गायत्री का भी शुद्ध सस्वर उच्चारण होना और विधि पूर्वक साधन होना उचित है। विधिपूर्वक किये हुए साधन सदा ही शीघ्र सिद्ध होते हैं और उत्तम परिणाम उपस्थित करते हैं। इतना होते हुए भी वेदमाता गायत्री में एक विशेषता है कि कोई भूल रहने पर उसका हानिकारक फल नहीं होता। जिस प्रकार दयालु, स्वस्थ और बुद्धिमान माता अपने बालकों के सदा हितचिंतन ही करती है उसी प्रकार गायत्री शक्ति द्वारा भी साधक का हित ही सम्पादन होता है। माता के प्रति बालक गलतियाँ भी करते रहते हैं, उसके सम्मान एवं पूज्य भाव में बालकों से त्रुटि भी रह जाती है और कई बार तो वे उलटा आचरण कर बैठते हैं इतने पर भी माता न तो उनके प्रति दुर्भाव मन में लाती है और न उन्हें किसी प्रकार की हानि पहुँचाती है। जब साधारण माताएं इतनी दयालुता, क्षमा और उदारता प्रदर्शित करती हैं तो आदि जननी वेद माता, सतोगुण की दिव्य सुरसरी, गायत्री से तो और भी अधिक आशा रखी जा सकती है। वह अपने बालकों की अपने प्रति श्रद्धा भावना को देखकर प्रभावित हो जाती है, बालक की भक्ति भावना को देखकर माता का हृदय उमड़ पड़ता है। उसके वात्सल्य की अमृत निर्झरिणी फूट पड़ती है। उस दिव्य प्रवाह में साधना की छोटी मोटी भूलें, कर्मकाण्ड में अज्ञानवश हुई त्रुटियाँ तिनके के समान बह जाती हैं।

सतोगुणी साधना का विपरीत फल न होने का विश्वास भगवान कृष्ण ने गीता में दिलाया है-

नेहाभिक्रम नाशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतोभयात्।।

अर्थात्-सत् कार्य के आरंभ का नाश नहीं होता वह गिरता पड़ता आगे ही बढ़ता चलता है। उससे उलटा फल कभी नहीं निकलता। ऐसा कभी नहीं होता कि सत् इच्छा से किया हुआ कार्य असत् हो जाय और उसको अशुभ परिणाम निकले। थोड़ा सा भी धर्म कार्य, बड़े भयों से रक्षा करता है।

गायत्री साधन ऐसा ही सात्विक, सत्कर्म है। जिसे एक बार आरंभ कर दिया जाय तो मन की प्रवृत्तियाँ उस ओर अवश्य ही आकर्षित होती हैं, और बीच में किसी प्रकार छूट जाय तो फिर भी समय समय पर बार बार उस साधन को पुनः आरंभ करने की इच्छा उठती रहती है। किसी स्वादिष्ट पदार्थ का एक बार स्वाद मिल जाता है तो बार बार उसे प्राप्त करने की इच्छा हुआ करती है। गायत्री ऐसा ही अमृतोपम स्वादिष्ट अध्यात्मिक आहार है जिसे प्राप्त करने के लिए आत्मा बार बार मचलती है, बार बार चीख पुकार करती है। उसी साधना में कोई भूल रह जाय तो भी उलटा परिणाम नहीं निकलता। किसी विपत्ति, संकट या अनिष्ट का सामना नहीं करना पड़ता। भूलों का, त्रुटियों का परिणाम यह हो सकता है कि आशा से कम फल मिले या अधिक से अधिक यह कि वह निष्फल चला जाय। इस साधना को किसी भी थोड़े से भी रूप में आरंभ कर देने से उसका फल हर दृष्टि से उत्तम होता है। उस फल के कारण ऐसे भयों से मुक्ति मिल जाती है जो अन्य उपायों से बड़ी कठिनाई से हटाये या मिटाये जा सकते हैं।

इन सब बातों पर विचार करते हुए साधकों को निर्भय मन से, झिझक, आशंका एवं भय का छोड़कर गायत्री की उपासना करनी चाहिए। यह साधारण मंत्र नहीं है जिसके लिए नियत भूमिका बाँधे बिना काम न चले। मनुष्य यदि किन्हीं छुट्टले बनचारी, प्राणियों को पकड़ना चाहे तो इसके के लिए, चतुरतापूर्ण उपायों की आवश्यकता पड़ती है, परन्तु बछड़ा अपनी माँ को पकड़ना चाहे तो उसे मातृ भावना से माँ पुकार देना मात्र काफी होता है, गौ माता खड़ी हो जाती है, वात्सल्य के साथ बछड़े को चाटने लगती है और उसे अपने पयोधरी से दुग्ध पान कराने लगती है। आइये, हम भी वेदमाता को सच्चे अन्तःकरण से भक्ति भावना के साथ पुकारें और उसके अन्तराल से निकला हुआ अमृत रस पान करें।

हमें शास्त्रीय साधना पद्धति से उसकी साधना करने कि शक्ति भर प्रयत्न करना चाहिए। अकारण भूल करने से क्या प्रयोजन ? अपनी माता अनुचित व्यवहार को भी क्षमा कर देती है पर इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसके प्रति श्रद्धा, भक्ति में कुछ, ढील या उपेक्षा की जाय। जहाँ तक बन पड़े पूरी पूरी सावधानी के साथ साधना करनी चाहिए पर साथ ही इस आशंका को मन से निकाल देना चाहिए कि किंचित मात्र भूल हो गई तो बुरा होगा। इस भय के कारण गायत्री साधना से वंचित रहने की आवश्यकता नहीं है, यह बात उपरोक्त श्लोक में स्पष्ट कर दी गई है कि वेदमाता अपने भक्तों की भक्ति भावना का प्रधान रूप से ध्यान रखती है और अज्ञानवश हुई छोटी मोटी भूलों को क्षमा करती रहती है।

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