
समस्त मंत्रों का लाभ
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एक एव तु संसिद्ध गायत्री मंत्र आदिशेत्।
समस्तलोक मंत्राणाँ कार्य सिद्धेस्तु पूरकः।।
(संसिद्धः) सिद्ध हुआ (एकः) अकेला (एव) ही (गायत्री मंत्रः) गायत्री मंत्र (समस्त लोक मंत्राणाँ) संसार के समस्त मंत्रों की (कार्य सिद्धेः) कार्य सिद्धि का (पूरकः) परक (आदिशेत्) होता है।
सिद्ध किया हुआ गायत्री मंत्र अकेला ही उन सब शक्तियों से युक्त होता है जो अन्य किसी मंत्र द्वारा प्राप्त हो सकती है। ऐसा साधक अकेले अपने इसी मंत्र के ऊपर निर्भर रह सकता है, उसके वे सब प्रयोजन सिद्ध हो जाते हैं जो संसार के अन्य किसी मंत्र से सिद्ध हो सकती हैं।
मंत्र सिद्धि एक मानसिक पुरुषार्थ है। विश्वास बल की महिमा अपार है। दैनिक जीवन में विश्वास बल के आधार पर लोग बड़े बड़े दुस्साहसपूर्ण कार्य करते हैं लघु से महान बनते हैं और ऐसे ऐसे कार्य कर दिखाते हैं जिन्हें देख कर हैरत से दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। इस छोटे लेख में ऐसे उदाहरणों का उल्लेख करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इतिहास का पन्ना पन्ना वीर पुरुषों के असाधारण चरित्रों से अंकित है। इनका मूल हेतु उन व्यक्तियों का आत्मविश्वास है। विश्वास की दृढ़ता के कारण मानसिक शक्तियों की गतिविधि उसी नियत दिशा में तीव्रतापूर्वक संचालित होती है। शरीर की कार्यक्षमता भी उसी दिशा में परिपक्व होती है। आदत, स्वभाव, रुचि और प्रयत्न इस सबका प्रवाह एक ही दिशा में संलग्न हो जाता है फल स्वरूप वह व्यक्ति अपने मार्ग पर तेजी से बढ़ता जाता है। उसका आकर्षण दूसरों को सहयोग देने के लिए खींचता है, परिस्थितियाँ उसके पक्ष में मुड़ जाती हैं। तदनुसार वह बड़े-2 महत्वपूर्ण कार्यों को सिद्ध कर लेता है। व्यक्तिगत जीवन में आत्मविश्वास गजब का काम करता है। रोगी, सनकी, कायर, आलसी, दुराचारी, अभागा, पतित, घृणित, दरिद्री एवं तुच्छ बनने में अपनी मान्यता ही प्रधान है और सर्व साधन सम्पन्न, सद्गुणी एवं उन्नतिशील बनने में भी अपने विश्वास ही काम करते हैं। भूतबाधा, उन्माद, सनक, सरीखे रोगों का अधिकाँश आधार रोगी की मान्यता पर स्थिर होता है, उसकी मान्यता बदल जाय तो ऐसे रोगी चुटकियों में चंगे हो जाते हैं।
आध्यात्मिक क्षेत्र में तो सर्वप्रधान तत्व विश्वास ही है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रद्धा और विश्वास को भवानी शंकर की उपमा देते हुए उनकी वंदना की है। हम अपनी-मरने के बाद क्या होता है? पुस्तक में सविस्तार बता चुके हैं कि स्वर्ग, नरक और पुनर्जन्म किस प्रकार अपने सुनिश्चित विश्वासों के आधार पर प्राप्त होता है। जिन विचारों और विश्वासों के क्षेत्र में मनुष्य जीवन भर भ्रमण करता है तो वे अंतर्मन में, सूक्ष्म शरीर में, संस्कार बनकर स्थिर हो जाते हैं। मरने के बाद सोचने और तर्क करने वाला बाह्य मन एवं मस्तिष्क तो समाप्त हो जाता है और सारी क्रियापद्धति उन अंतर्मन के संस्कारों द्वारा चलती है। जैसे भौंरा फूलों को और मक्खी विष्ठा को अपने स्वभाव के अनुसार कहीं से न कहीं से ढूँढ़ लेते हैं वैसे ही संस्कारों की प्रेरणा से अपने रुचिकर वातावरण में जीव चला जाता हैं और वहाँ पुनर्जन्म धारण कर लेता है। इसी प्रकार मृत्यु और पुनर्जन्म से बीच के समय में जीव निद्राग्रस्त रहता है और चित्त में जमे हुए संस्कारों के अनुसार स्वप्न लेता रहता है। कुसंस्कारों से उत्पन्न हुए दुःस्वप्न उसे भयंकर नरक की यातनाओं का अनुभव कराते हैं और सुसंस्कारों की दिव्य मनोभूमि ऐसे आनंदमय स्वप्नों का सृजन करती है जिसे स्वर्ग विचरण कह सकते हैं। यह उभय पक्षीय स्थितियाँ अपने विश्वासों के आधार पर ही प्राप्त होती रहती हैं।
विश्वास से देवता बनते हैं और साधक के लिए दिव्य वरदान उपस्थित करते हैं । मन को वश में करने, चित्त वृत्तियों का निरोध करने, मनोवृत्तियों को चाहे जिस दिशा में लगाने की सफलता प्राप्त करने, स्वसम्मोहन में सिद्धहस्त होने के लिए ही योग साधन की समस्त प्रणाली एवं प्रक्रियाएं बनाई गई हैं। मैस्मरेजम से लेकर समाधि तक जितनी भी योग साधनाएं हैं वे सब विश्वास बल के चमत्कार मात्र हैं। परमात्मा की प्राप्ति, आत्म दर्शन, ब्रह्मनिर्वाण, जीवन मुक्ति और परमानन्द को उपलब्ध करने के लिए एक मात्र अवलंबन विश्वास ही है। यदि यह पतवार हाथ से छूट जाय तो साधक का किसी भी निश्चित केन्द्र विन्दु पर पहुँचना कठिन ही नहीं असंभव भी है।
हर दिशा में विश्वास बल की प्रधानता है। यही प्रधान तत्व मंत्र बल की सफलता का मूल हेतु है। मंत्रों की साधनाएं, विधियाँ बड़ी कठोर होती हैं। उनके सिद्ध करने में साधक को अपने पुरुषार्थ का परिचय देना होता है। यह विधियाँ गुप्त रखी जाती हैं और गुरु उन्हें अपने शिष्य को गुप्त रखने की प्रतिज्ञा के साथ बताते हैं। इस प्रकार की गोपनीयता, मंत्र की महापुरुषार्थ पूर्ण कठोर साधना के आधार पर साधक की मनोभूमि का ऐसा निर्माण किया जाता है कि वह मंत्र शक्ति के ऊपर अटूट विश्वास कर ले। यह विश्वास जितना ही गहरा सुदृढ़ एवं संदेह रहित होता है, जितना ही उस पर श्रद्धा का पुट चढ़ा होता है उसी अनुपात से मंत्र की सिद्धि मिलती है और उस सिद्धि के चमत्कार दृष्टि गोचर होते हैं।
मंत्र अनेकों हैं। उनकी साधना विधियाँ भी अनेक हैं, उनके फल भी प्रथक प्रथक हैं, उनकी शक्तियों में भिन्नता है। इतना सब होते हुए भी उन सबका मूल तत्व एक ही है। एक ही मिट्टी से कुम्हार विविध प्रकार के खिलौने और बर्तन बना देता है। एक ही धातु से अनेक प्रकार के शास्त्र, पात्र, आभूषण एवं पदार्थ बनते हैं उनमें भिन्नता रहते हुए भी मूल में एक ही चीज है इसी प्रकार मंत्र बहुत से है, पर उनका आधार एक मात्र विश्वास ही है। साधकों की संतुष्टि और श्रद्धा की पुष्टि के लिए अनेक गुरु परम्पराओं से अनेक प्रयोजनों के लिए अनेक मंत्र प्रचलित हैं पर तात्विक दृष्टि से विवेचन किया जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि इस पृथकता का एकीकरण भी किया जा सकता है। अनेक मंत्रों का कार्य एक मंत्र से भी पूरा हो सकता है। यदि यह एकीकरण करके- अनेकता के झंझट से बचकर एक से ही अनेक लाभ उठाने अभीष्ट हों तो इस कार्य के लिए गायत्री मंत्र से बढ़कर और कोई मंत्र नहीं हो सकता।
गायत्री की सिद्धि तब होती है जब उसकी भावना से अन्तः प्रदेश भली प्रकार आच्छादित हो जाता है। इसके लिए कितना श्रम, समय और विश्वास चाहिए इसका कोई निश्चित माप नहीं है। क्योंकि जिनकी मनोभूमि उर्वर है, पूर्व निर्मित है, वे थोड़े प्रयत्न से सफलता प्राप्त कर सकते हैं किन्तु जिनका मनः प्रदेश कठोर है उनको सफलता तक पहुँचने के लिए अधिक श्रम, प्रयत्न और धैर्य की आवश्यकता होती है। तो भी एक स्थूल अनुमान इसके लिए निर्धारित किया हुआ है। जिन आधारों पर सिद्धि का अनुमान लगाया जाता है वे यह हैं- (1) लगातार बारह वर्ष तक कम से कम एक माला का जप किया हो (2) गायत्री की ब्रह्म संध्या को लगातार नौ वर्ष किया हो (3) ब्रह्मचर्य पूर्वक पाँच वर्ष तक एक हजार मंत्र नित्य जपे हों (4) चौबीस लक्ष गायत्री का अनुष्ठान किया हो (5) एक वर्ष तक गायत्री तप किया हो। इन पाँच साधनों से गायत्री सिद्ध हो जाती है।
इस सिद्धि से साधक वे सब प्रयोजन पूरे कर सकता है जो किन्हीं अन्य मंत्रों से होते हैं। यद्यपि मंत्र एक ही है पर उसका विविध प्रकार प्रयोग करने से अनेक प्रकार के उपचार किये जा सकते हैं-
भिन्नाभिर्विधिभिर्वुद्धया भिन्नास्तु कार्यपंक्तिषु।
गायत्र्या सिद्ध मंत्रस्य प्रयोगःकृयते बुधा।
(बुधा) बुद्धिमान पुरुष (भिन्ना सु) भिन्न 2 (कार्य पंक्तिषु) कार्यों में (गायत्र्याः सिद्ध मंत्रस्य) गायत्री के सिद्ध हुए मंत्र का (प्रयोगः) प्रयोग (भिन्नाभिः) भिन्न भिन्न (विधिभिः) रीतियों से (बुद्धया) बुद्धि द्वारा (कृयते) करता है।
सिद्ध होने पर किस कार्य के लिए किस प्रकार इस मंत्र शक्ति का प्रयोग किया जाय, इसके लिए उपचार विधि को स्थानीय प्रचलित परम्पराओं के आधार पर बनाना चाहिए, जिससे रोगी को दूसरों द्वारा प्रयोग की जाने वाली प्रणाली का स्मरण हो आवे और उसे अनुमान हो कि इसी उपचार विधि से अमुक से समय इसी प्रकार का रोग अच्छा किया गया था, उसी विधि का उसी मंत्र का मेरे ऊपर प्रयोग हो रहा है, इसलिए मैं भी चंगा हो जाऊंगा। आमतौर पर मंत्रों का उपचार इन विधियों के साथ होता है- (1) शुद्ध जल को हाथ में लेकर उसके समीप मंत्र पढ़ने से जल अभिमंत्रित हो जाता है, इस जल को पीड़ित को पिलाया जाता है या उसके ऊपर छिड़का जाता है (2) शुद्ध भस्म को बाएं हाथ की हथेली पर रखकर दाहिने हाथ की उंगलियों से उसे स्पर्श करते हुए मंत्र पढ़ने से वह भस्म अभिमंत्रित हो जाती है और उसे रोगी के मस्तक या अन्य अंगों पर लगाया जाता है तथा थोड़ा सा चटाया जाता है (3) नीम की टहनी, मोरपंखों की गट्ठी या बिना प्रयोग की हुई सींकों की झाडू से झाड़ते हैं (4) पीली सरसों अभिमंत्रित करके किसी स्थान पर फैला देते हैं (5) मंत्र को भोजपत्र या शुद्ध कागज पर अनार की कलम और केसर की स्याही से लिखकर ताबीज में बंद करके धारण करा देते हैं। (6) काँसे की थाली में खड़िया मिट्टी से चक्रव्यूह आकार में मंत्र लिखकर रोगी को दिखाते हैं और उसे शुद्ध जल में धोकर पिला देते हैं (7) काली मिर्चें अभिमंत्रित करके रोगी को सेवन कराते हैं। इस प्रकार के और भी अनेकों प्रकार के उपचार हो सकते हैं। प्रयोगकर्ता जिस कार्य के लिए जहाँ मंत्र बल का प्रयोग करे, वहाँ की स्थिति के अनुसार उपचार विधि निर्धारित करना उसके चातुर्य और बुद्धि कौशल पर निर्भर है। मंत्र बल शक्ति है और उपचार उसका शृंगार। शृंगार का संबंध परिस्थितियों से होता है इसलिए उसका निर्णय करना बहुत अंशों में प्रयोग कर्ता के ऊपर होता है।
इस प्रकार के उपचारों में प्रयोग कर्ता की आत्म शक्ति का एक अंश उस व्यक्ति के पास पहुँचता है जिस पर प्रयोग किया गया है। इस नये प्राण को पाकर उसकी शारीरिक और मानसिक शक्ति को एक नयी सहायता मिलती है जिसके बल पर उसकी चेतना पुनः जागृत होकर कठिनाई को पार करने में सक्षम हो जाती है। जिस प्रकार आपत्तिग्रस्त व्यक्ति को धन, बुद्धि, वस्तु या शारीरिक बल का सहारा देकर उसकी कठिनाइयों को हल कराया जाता है वैसे ही सफल साधक, मंत्र शक्ति द्वारा अपने आत्मबल को दूसरों की सहायता में प्रयोजित करता है फलस्वरूप दूसरा व्यक्ति लाभान्वित होता है।
ऐसे प्रयोग करने में स्वभावतः प्रयोग कर्ता की शक्तियाँ खर्च होती हैं। ऐसा खर्च तभी करना चाहिए जब अन्य साधारण उपचारों से काम न चलता हो। जिस फोड़े को दो आने की मरहम से अच्छा किया जा सकता है, उसे अच्छा करने लिए मूल्यवान् आत्मिक तत्वों का व्यय करना उचित नहीं। कौतुक वश, लोगों में अपनी विशेषता प्रदर्शित करने के लिए या साधारण बात से भावुक बनकर यह शक्तियाँ खर्च न की जानी चाहिए।
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