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Magazine - Year 1948 - Version 2

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सवा लक्ष जप का अनुष्ठान

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सपाद लक्ष मंत्राणाँ गायत्र्या जपनं तुवै। ध्यानेन विधिना चैवानुष्ठानं हि प्रचक्षते।।

(ध्यानेन) ध्यान से (चैव) और (विधिना) विधि पूर्वक (गायत्र्याः) गायत्री के (सपादलक्ष मंत्राणाँ) सवा लाख मंत्रों का (जपनं) जाप करना (हि) निश्चय से (अनुष्ठानं) अनुष्ठान (प्रचक्षते) कहा जाता है।

सवालक्ष मंत्रों के जप को अनुष्ठान कहते हैं। यह अनुष्ठान विधिपूर्वक किया जाना चाहिए। क्योंकि विधिपूर्वक किया हुआ कार्य ही भली प्रकार सफल होता है। यह अनुष्ठान ध्यान के साथ होना चाहिए। जपकाल में गायत्री माता का ध्यान बराबर बना रहे। केवल स्थूल शरीर से नियत उपक्रम को मंत्र चालित पुर्जे की तरह पूरा कर देना ही पर्याप्त नहीं है। उसके लिए शारीरिक और मानसिक दोनों क्रियाओं का संयोग होना चाहिए। मन की क्रिया ध्यान है, जपकाल में गायत्री का ध्यान किस प्रकार करना चाहिए इसका वर्णन अन्यत्र किया गया है। अव बाह्य क्रियाएं किस प्रकार होनी चाहिए इसका वर्णन करते हैं-

पंचम्याँ पूर्णिमायाँवा चैकादश्याँ तथैवहि। अनुष्ठानस्य कर्तव्य आरम्भः फल प्राप्तये।।

(पंचम्याँ) पंचमी (पूर्णिमायाँ) पूर्णमासी (वा तथैव) अथवा उसी प्रकार से (एकादश्याँ) एकादशी के दिन (फल प्राप्तये) फल प्राप्ति के लिए (अनुष्ठान स्य) अनुष्ठान का (आरम्भः) आरम्भ करना चाहिए।

सूर्य चन्द्र और पृथ्वी के प्रभावों की न्यूनाधिकता होते रहने के कारण उनका मिश्रित प्रभाव भी भूलोक पर प्रतिदिन बदलता रहता है। अमावस्या और पूर्णमासी के दिन समुद्र में ज्वार भाटा आना इस प्रभाव का प्रत्यक्ष चिह्न है। अप्रत्यक्ष और सूक्ष्म प्रभाव भी इसी प्रकार होते हैं और उनका क्रम प्रतिदिन बदलता रहता है। यह महा विज्ञान इन थोड़ी पंक्तियों में सविस्तार नहीं बताया जा सकता पर यहाँ इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि सूक्ष्म विज्ञान के आचार्यों ने उन ग्रहों की शक्तियों का किस दिन क्या प्रभाव पड़ता है इस विज्ञान के आधार पर तिथियों को शुभाशुभ निर्धारित किया है। कोई तिथि एक कार्य के लिए शुभ है तो दूसरे के लिए अशुभ हो सकती है। गायत्री अनुष्ठान आरंभ करने के लिए पंचमी पूर्णमासी, एकादशी यह तीन तिथियाँ शुभ मानी गई हैं। पंचमी को दुर्गा, पूर्णमासी को लक्ष्मी और एकादशी को सरस्वती तत्वों की प्रधानता रहती है। मास के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों ही इस कार्य के लिए ठीक हैं, किसी का निषेध नहीं है पर कृष्ण पक्ष की अपेक्षा शुक्ल पक्ष अधिक शुभ है।

पुष्पाण्युच्चैरवस्थाप्य प्रेम्णा शोभन आसने। गायत्र्यास्तेषु कर्तव्या सत्प्रतिष्ठा तु वाग्मिभिः।।

(पुष्पाणि) फूलों की (प्रेम्णा) प्रेम से (शोभने) सुन्दर और (उच्चैः) ऊंचे (आसने) आसन पर (अवस्थाप्य) स्थापना करके (वाग्मिभिः) विवेकवानों को (तेषु) उन फूलों के ऊपर (गायत्र्याः) गायत्री की (सत्यप्रतिष्ठा) सत् प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

अनुष्ठान आरंभ करते हुए नित्य गायत्री की प्रतिष्ठा और अन्त करते हुए नित्य विसर्जन करना चाहिए। इस प्रतिष्ठा में भावना और निवेदन प्रधान है। श्रद्धापूर्वक ‘भगवती, जगज्जननी भक्त वत्सला गायत्री यहाँ प्रतिष्ठित होने का अनुग्रह कीजिए’ ऐसी प्रार्थना संस्कृत या मातृभाषा में करनी चाहिए और विश्वास करना चाहिए प्रार्थना को स्वीकार करके वे कृपा पूर्वक पधार गई हैं। विसर्जन करते समय प्रार्थना करनी चाहिए कि “आदि शक्ति, भय हारिणी, शक्तिदायिनी, तरण तारिणी मातृके! अब अब विसर्जित हूजिए” इस भावना को संस्कृत या अपनी मातृभाषा में कह सकते हैं। इस प्रार्थना के साथ साथ यह विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना स्वीकृत करके वे विसर्जित हो गई हैं।

किसी छोटी चौकी, चबूतरी या आसन पर फूलों का एक छोटा सुन्दर सा आसन बनाना चाहिए और उस पर गायत्री की प्रतिष्ठा होने की भावना करनी चाहिए। साकार उपासना के समर्थक भगवती का कोई सुन्दर या चित्र अथवा प्रतिमा को उन फूलों पर स्थापित कर सकते हैं, निराकार के उपासक निराकार भगवती की शक्ति पुँज का एक स्फुल्लिंग वहाँ प्रतिष्ठित होने की भावना कर सकते हैं। कोई कोई साधक धूपबत्ती की दीपक की अग्नि शिखा में भगवती की चैतन्य ज्वाला का दर्शन करते हैं और उस दीपक या धूपबत्ती को फूलों पर प्रतिष्ठित करके अपनी आराध्य शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं। विसर्जन के समय प्रतिमा को हटा कर शयन करा देना चाहिए पुष्पों को जलाशय या पवित्र स्थान में विसर्जित कर देना चाहिए। अधजली धूपबत्ती या रुई की बत्ती को बुझाकर उसे भी पुष्पों के साथ विसर्जित कर देना चाहिए। दूसरे दिन जली हुई बत्ती का प्रयोग फिर न होना चाहिए।

तद्विधाय ततोदीप धूप नैवेद्यचन्दनैः। नमस्कृत्या क्षतेनापि तस्याः पूजन माचरेत्।।

(तद्विधाय) उस प्रकार से गायत्री की प्रतिष्ठा करके (ततः) तदनन्तर (नमस्कृत्य) उसे नमस्कार करके (धूप दीप नैवेद्य चन्दनैः) दीपक, धूप, नैवेद्य और चन्दन (अक्षते नापि) तथा अक्षत इन सबसे (तस्याः) गायत्री का (पूजन) पूजन (आचरेत) करें।

गायत्री पूजन के लिए पाँच वस्तुएं प्रधान रूप से माँगलिक मानी गई हैं। इन पूजा पदार्थों में वह प्राण है जो गायत्री के अनुकूल पड़ता है। इसलिए पुष्प आसन पर प्रतिष्ठित गायत्री के सम्मुख धूप जलाना, दीपक या धूप को गायत्री की स्थापना में रखा गया है तो उसके स्थान पर जल का अर्घ देकर पाँचवें पूजा पदार्थ की पूर्ति करनी चाहिए।

पूर्ववर्णित विधि से प्रातःकाल पूर्वाभिमुख होकर शुद्ध भूमि पर शुद्ध होकर कुशासन पर बैठें। जल का पात्र समीप रख लें। धूप और दीपक जप के समय जलते रहने चाहिए। बुझ जायं तो उस बत्ती को हटाकर नई बत्ती डालकर पुनः जलाना चाहिए। दीपक या उसमें पड़े हुए घृत को हटाने की आवश्यकता नहीं है।

पूजनानन्तरं विज्ञः भक्तया तज्जपमारमेत्। जपकाले तु मनः कार्यं श्रद्धान्वितमचच्चलम्।।

(विज्ञः) विज्ञ पुरुष को चाहिए कि वह (पूजनानन्तरं) पूजा के अनन्तर (भक्त्या) भक्ति से (तज्जपं) उस गायत्री का (जपं) जप (आरभेत्) आरंभ करे। (जप काले) जप के समय (मनः) मन को (श्रद्धान्वितं) श्रद्धा से युक्त (अचच्चलं) स्थिर (कार्यं) कर लेना चाहिए।

पुष्प आसन पर गायत्री की प्रतिष्ठा और पूजा के अनन्तर जप प्रारंभ कर देना चाहिए। नित्य यही क्रम रहे। प्रतिष्ठा और पूजा अनुष्ठान काल में नित्य होते रहने चाहिए। जप के समय मन को श्रद्धान्वित रखना चाहिए, स्थिर बनाना चाहिए। मन चारों ओर न दौड़े इसलिए पूर्व वर्णित ध्यान भावना के अनुसार गायत्री का ध्यान करते हुए जप करना चाहिए। साधना के इस आवश्यक अंग-ध्यान में-मन लगा देने से वह एक कार्य में उलझा रहता है और जगह-2 नहीं भागता। भागे तो उसे रोक रोक कर बार बार ध्यान भावना पर लगाना चाहिए। इस विधि से एकाग्रता की दिन दिन वृद्धि होती चलती है।

मासद्वयेऽविरामं तु चत्वारिंशदिद्नेषुवा। पूरयेत्तदनुष्ठानं तुल्य संख्यासुवै जपन्।।

(मास द्वये) दो महीने में (वा) अथवा (चत्वारिंशद्दिनेषु) चालीस दिनों में (अविरामं तु) बिना नागा किये (वै) तथा (तुल्य संख्यासु) बराबर संख्याओं में (जपन्) जपता हुआ (तदनुष्ठानं) उस अनुष्ठान को (पूरेयेत्) पूर्ण करे।

अनुष्ठानावसाने तु अग्नि‍ होत्रो विधीयताम्। यथाशक्ति ततोदानं ब्रह्म भोजस्त्वनन्तरम्।।

(अनुष्ठानावसाने तु) अनुष्ठान के अन्त में (अग्निहोत्रः) हवन (विधीयताँ) करना चाहिए (ततः) तदनन्तर (यथाशक्ति) शक्ति के अनुसार (दानं) दान और ब्रह्मभोज करना चाहिए।

दान में विवेक की आवश्यकता को अनुभव करते हुए ऐसे पात्रों को- ऐसे कार्यों के लिए दान देना चाहिए जिनसे लोक कल्याण होता हो, संसार में सतोगुण की वृद्धि होती हो। सत कार्यों में वृद्धि के लिए और दुखियों के दुख निवारण के लिए दिया हुआ दान ही सात्विक और शुभ परिणाम उत्पन्न करने वाला होता है। इसी प्रकार ब्रह्मभोज उन्हीं ब्राह्मणों को कराना चाहिए जो वास्तव में ब्राह्मण हैं, वास्तव में ब्रह्म परायण हैं। कुपात्रों को दिया हुआ दान और कराया हुआ भोजन निष्फल जाता है। इसलिए निकटस्थ या दूरस्थ सच्चे ब्राह्मणों को ही भोजन कराना चाहिए। हवन की विधि अगले लेख में लिखते हैं-

गायत्री आह्वान का मंत्र-

आयातु वरदा देवी अक्षरं ब्रह्म वादिनी। गायत्री छंदसां माता ब्रह्मयोने नमोस्तुते।

गायत्री विसर्जन का मंत्र-

उत्तमे शिखरे देवि भूम्याँ पर्वतमूर्धनि। ब्राह्मणेभ्योह्मनुज्ञानं गच्छदेवि यथासुसखम्।।

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