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Magazine - Year 1948 - Version 2

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आत्मबल और परमात्मा की प्राप्ति

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गायत्र्युपासनाकरणादात्म शक्तिविवर्धते। प्राप्यते क्रमाशोऽजस्य सामीप्यं परमात्मनः।।

(गायत्र्युपासनाकरणात्) गायत्री की उपासना करने से (आत्म शक्तिः) आत्मबल (विवर्धते) बढ़ता है। (क्रमशः) धीरे-धीरे (अजस्य) जन्म बन्धन रहित (परमात्मनः) परमात्म की (सामीप्य) समीपता (प्राप्यते) प्राप्त होती है।

पीछे बताया जा चुका है कि त्रिगुणात्मक और चतुर्विधि होते हुए भी गायत्री का मूल स्वरूप ब्रह्मवत् है। सात्विक है। उपासना में उसके इस मूल रूप की ही धारणा की जाती है। इसलिए उपासक के अन्तःकरण में सत् तत्वों की ही वृद्धि होती है।

जिस विचार धारा में मनुष्य परिभ्रमण करता है, वैसा ही स्वयं बनने लगता है। जो आदर्श सिद्धान्त, लक्ष्य, श्रद्धापूर्वक अन्तःभूमि में धारण किये जाते हैं उनका एक साँचा तैयार हो जाता है। इस साँचे में गीली मिट्टी की तरह मनुष्य ढलने लगता है और यदि कुछ समय लगातार दृढ़ता एवं सत्कार पूर्वक यह प्रयत्न जारी रहे तो जीवन पकी हुई प्रतिमूर्ति की तरह ठीक उसी प्रकार का बन जाता है।

चोरी, डकैती, ठगी, व्यभिचार, बेईमानी आदि दुष्कर्म कोई व्यक्ति यकायक नहीं कर बैठता, विचार बहुत समय पूर्व से उसके मन में चक्कर लगाते हैं, इससे धीरे-धीरे उसकी प्रवृत्ति इस ओर ढलती जाती है और एक दिन वह सफल बदमाश बन जाता है। यही बात भलाई के मार्ग में होती है। बहुत समय तक स्वाध्याय सत्संग, चिन्तन, मनन करने के उपरान्त उत्तम विचारों के संस्कार दृढ़ होते हैं तब कहीं प्रत्यक्ष जीवन में वे लक्षण प्रकट होते हैं और वह वैसा बन जाता है। गायत्री की साधना से सतोगुण की ब्राह्मी भावनाएं अन्तः प्रदेश में अपना केन्द्र स्थापित करती हैं। उन भावनाओं के अनुरूप आन्तरिक जीवन बन जाता है और उसी प्रकार की प्रवृत्तियाँ वाह्य जीवन में भी दृष्टि गोचर होती हैं।

पदार्थ विज्ञान के ज्ञाताओं को विदित है कि समान श्रेणी के पदार्थों की सहायता से सूक्ष्म तत्वों को आकर्षण और प्रकटीकरण हो सकता हैं। गंधक, फास्फोरस, पुटास, सरीखे अग्नि तत्व प्रधान पदार्थों का अमुक प्रक्रिया के साथ संघर्ष करने से विश्वव्यापी सूक्ष्म अग्नितत्व चिनगारी के रूप में प्रकट हो जाता है। ताँबे और जस्ते के तारों को अमुक मसालों के साथ संबंधित करने से उनमें बिजली की धारा बहने लगती है। इसी प्रकार शब्द और विचारों की सहायता से चैतन्य तत्वों का आकर्षण और प्रकटीकरण हो सकता है। एक लेखक या वक्ता एक विशेष अनुभूति के साथ लोगों के सामने अपने विचार इस प्रकार रखता है कि वे विविध भावावेशों में डूबने उतरने लगते हैं। हँसते को रुला देना और रोते को हँसा देना कुशल वक्ता के बाएं हाथ का खेल है। इसी प्रकार क्रोध, घृणा, प्रतिहिंसा या दया, क्षमा उपकार आदि के भावावेश शब्द और विचारों की सहायता से किसी व्यक्ति में पैदा किया जा सकता है।

इस प्रकार भावनाओं का आवागमन, शब्द और विचारों की सहायता से होता है, संगीत, नृत्य, गान, रोदन, हुँकार, गर्जना, गाली, ललकार, विनय, मुसकराहट, अट्टहास, तिरस्कार, अहंकार से सने हुए शब्द सुने वालों के मन में विविध प्रकार के भाव उत्पन्न करते हैं और उन भावों से उत्तेजित होकर मनुष्य बड़े बड़े दुस्साहसपूर्ण कार्य कर डालते हैं। अब विचार कीजिए कि शब्द तो एक ध्वनि मात्र थी, उसने सुनने वाले को कुछ से कुछ कैसे बना दिया ? बात यह है कि शब्द और विचार मिलकर एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम बन जाते हैं जो सूक्ष्म चैतन्य जगत में से इसी प्रकार के तत्वों को खींच लाते है और जिस स्थान पर उन्हें पटका गया था वहाँ प्रकट हो जाते है। दूसरों के ऊपर ही नहीं-अपने ऊपर भी अमुक प्रकार के चैतन्य तत्वों को इसी माध्यम द्वारा भरा जा सकता है। इस प्रकट है कि परमाणुमय भौतिक जगत की भाँति, संकल्पमय चैतन्य जगत में भी वैसे माध्यम मौजूद हैं जो अदृश्य तत्वों और शक्तियों को खींच लाते हैं और उनका प्रत्यक्षीकरण कर देते हैं।

गायत्री की शब्दावली एक ऐसा ही माध्यम है। इसकी शब्द शृंखला का गुँथन इस प्रकार हुआ है कि उसका उच्चारण होते ही कुछ विशिष्ट प्रकार की भावना ग्रंथियाँ उत्तेजित होती हैं और यह मंत्रोच्चारण एक ऐसा शक्तिशाली माध्यम सूत्र बन जाता है जिसके द्वारा गायत्री की ब्राह्मी शक्ति सूक्ष्म लोक से खिंच खिंच कर मनुष्य के अन्तःकरण में जमा होने लगती है। और वह दिव्य तत्वों से ओत प्रोत होने लगता है।

आत्मा परमात्मा का एक स्फुल्लिंग है। उसे सजातीय पदार्थ का सान्निध्य मिलता है तो उसकी शक्ति बढ़ना स्वाभाविक है। यह एक प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि “निर्जीव वस्तुएं एक और एक मिलकर 2 और सजीव प्राणी एक और एक मिलकर 11 हो जाते हैं।” चैतन्य तत्व से बना हुआ आत्मा-जड़ पदार्थों के संचय से, धन दौलत से सम्पन्न होने पर बलवान नहीं बनता उसमें बल तो तब बढ़ता है जब सूक्ष्म-चेतना का अधिक संचय उसके समीप एकत्रित होता है। गायत्री मंत्र द्वारा यही कार्य होता है। आत्मा के समीप सत्, चित और आनन्दमय तत्वों का भण्डार प्रचुर मात्रा में जमा होने लगता है। यह संचय ही आत्मबल कहलाता है। इस प्रकार वेदमाता गायत्री की कृपा से साधक आत्म बल सम्पन्न बन जाता है।

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