
भारतीय देवभाषा की विशेषताएं
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(प्रोफेसर जे. पी. सिन्हा)
शब्दोच्चारण में प्रत्येक व्यंजन के साथ किसी स्वर का संयोग होता है। स्वरों की रचना हमारे सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने ऐसी दूरदर्शिता के साथ की है कि उसका प्रभाव हमारे शरीर और मन पर बड़ा ही उत्तम होता है। संसार की अन्य किसी भाषा की अपेक्षा भारतीय भाषा में यह विशेषता है कि इस भाषा को बोलने से एक प्रकार का सूक्ष्म योगिक व्यायाम होता चलता है जिसके कारण बोलने वाले के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बड़ा उत्तम प्रभाव पड़ता है। ऐसी ही विशेषताओं के कारण भारतीय भाषा को देवभाषा कहा जाता है। नीचे स्वरों संबंधी विशेषताएं दी जाती हैं।
‘अ’ का उच्चारण कंठ द्वारा होने से हृदय पर प्रभाव पड़ता है, अतएव जितनी बार ‘अ’ का उच्चारण किया जायेगा, उतना ही बार हृदय का संचालन शीघ्रता के साथ होगा। शरीर में रुधिर शुद्ध होने की क्रिया हृदय में होती है, क्योंकि किसी विकृत अंग के लिए जो रुधिर जाता है, उसको भेजने वाला हृदय ही है। यदि यह रुधिर उस विकृत अथवा रोगी अंग में पहुँचने के पूर्व शुद्ध कर दिया जाय तो उसका प्रभाव यह होगा कि रोग दूर हो जायेगा। इसके विपरीत यदि अशुद्ध अथवा दूषित रुधिर को शरीर में दौड़ने दिया जाये, तो विकृत अथवा रोगी अंग अच्छा होने के बजाय और अधिक रोगी हो जायगा। ‘अ’ स्वर प्रत्येक अक्षर में शुद्ध रक्त का संचार करता है। मंत्र-शास्त्र में ‘अ’ स्वर रचनात्मक शक्ति सम्पन्न माना गया है।
‘आ’-स्वर के उच्चारण से फेफड़े के ऊपर भाग तथा सीने पर प्रभाव पड़ता है। यह ऊपरी तीन पसलियों का बलवान बनाता, खाना ले जाने वाली नली को शुद्ध, दिमाग को संचालित, आलस्य को दूर तथा फेफड़ों को उत्तेजित करके उनके ऊपरी भाग को शुद्ध करता है। इसके अभ्यास से दमा और खाँसी के रोग अच्छे होते हैं। इस स्वर का अभ्यास उन लोगों को तो अवश्य ही करना चाहिए, जिन्हें क्षय रोग होने की संभावना हो और जो झुककर अंधेरे में काम करते हैं।
‘इ’-ई-के लम्बे उच्चारण का प्रभाव गले मस्तिष्क पर पड़ता है। इसके उच्चारण से गले, तालू, नाम और दिल के ऊपरी भाग की क्रिया विशेष रूप से उत्तेजित होती है। श्वासेन्द्रिय का कफ, बलगम एवं आंतों में जमा हुआ मल निकल कर इन अंगों की सफाई हो जाती है। इसका प्रभाव शरीर के ऊपरी भाग पर भी पड़ता है और सिरदर्द तथा दिल के रोगों के लिए लाभदायक है। विशेषकर ऐसे लोगों पर इसका अच्छा प्रभाव पड़ता है, जो उदास वृत्ति और क्रोधी स्वभाव के होते हैं।
‘उ-ऊ’-का प्रभाव जिगर, पेट और आँतड़ियों पर पड़ता है और पेठू के भार को कम करता है। जो स्त्रियाँ सदा पेठू के निम्न भाग के रोग से पीड़ित रहती हैं, उन्हें ‘उ-ऊ’ के उच्चारण से बड़ा लाभ होता है। कितने ही दिनों का कठिन कब्ज क्यों न हो, इसके द्वारा दूर किया जा सकता है। यह स्त्रियों की कोख के लिए भी बहुत उपयोगी है।
‘ए-ऐ’ के उच्चारण का प्रभाव गले और श्वास-नलिका के उद्भव स्थान पर पड़ता है और गुर्दे को उत्तेजित करता है। इसका बारम्बार का उच्चारण मूत्र संबंधी सब रोगों को दूर तथा पेशाब उतारने की औषधि का काम करता है। इस स्वर के प्रयोग का लाभ विशेष रूप से गाने वालों अध्यापकों तथा अधिक देर तक बोलने वालों को होता है और नलियों के अंदर की लुआबदार झिल्ली को स्वस्थ बनाता है।
‘ओ-ओ’-का प्रभाव उपस्थेन्द्रिय और जननेन्द्रिय पर होता है और वह उसको स्वाभाविक रूप से काम करने में सहायता देता है। जब इसके उच्चारण का अच्छा अभ्यास हो जाएगा तब यह अनुभव होगा कि जो आंतें तथा नसें सुस्त थीं, वह खुलकर स्वाभाविक कार्य करने में लगी हैं। यह सीने के मध्य भाग को उत्तेजित करता है और निमोनिया तथा प्लुरेसी के लिए बहुत लाभदायक है।
‘अं’- के उच्चारण से नासिका द्वारा ली हुई साँस के साथ जो ऑक्सीजन या प्राणवायु शरीर के भीतर जाता है, वह दूषित रुधिर को शुद्ध तथा लाल बनाता है। नासिका द्वारा साँस लेने में नासिका और श्वास नलिका काम में आती हैं, इसलिए इन अंगों को विकार रहित एवं निरोग होना अत्यावश्यक है, और इसी अभिप्राय से हमारे ऋषियों ने प्रत्येक बीज मन्त्र के अन्त में ‘म्’ अथवा अनुस्वार को रखा है तथा उसका देर तक लम्बा उच्चारण करना बताया है। स्वरों के उच्चारण करने में मुख खुलता है और अनुस्वार या ‘म्’ के उच्चारण से ओष्ठ बन्द हो जाते हैं। मानों प्रथम स्वरों के उच्चारण द्वारा शरीर के समस्त विकारों को दूर कर ‘म्’ द्वारा ओष्ठ रूपी किवाड़ बंद कर लिये जाते हैं, जिससे वह विकार पुनः प्रतिष्ठ न हो सके।
‘अः’-का उच्चारण जिह्वा तथा तालू के अग्र भाग को छूता है, जिसका प्रभाव यह होता है कि मस्तिष्क में संचालन उत्पन्न होने से एक प्रकार रस स्रावित होता है, जो कि कण्ठ द्वारा भीतर जाकर शरीर के सब विकार दूर करता है। सीने और गले में उत्तेजना होती है और वह सबल और पुष्ट बनते हैं।
इस प्रकार यह स्वर शरीर के हृदयादि मुख्य अंगों को संचालित और उत्तेजित कर रुधिर को शुद्ध कर समस्त विकारों को दूर कर देते हैं। जब नाड़ियाँ और इन्द्रियाँ स्वस्थ रुधिर के तीव्र संचार के कारण अपना-अपना काम स्वाभाविक रूप से काम करने लग जाती हैं, तब वह केवल बाह्य रूप से रूप, स्वरूप, आकार-प्रकार तथा बल में ही उन्नति को प्राप्त नहीं होतीं, बल्कि आन्तरिक गुणों में सहिष्णुता और रोगनाशक शक्ति में भी उन्नति करती हैं।