
मधु का प्याला (kavita)
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चन्द्र चमकता ही रहता है, तारे टिम-टिम करते है।
रवि के रथ के चक्र सर्वदा,
चक्र बने ही रहते हैं॥(1)॥
खिलता ही रहता है सजनी!
ऊषा के सुहाग का फग।
मधुप-मिथुन कमलों पर आते,
गाते ही रहते है रोग ॥ (2)॥
निर्झर भरता ही जाता है,
सरिता राग सुनाती।
पत्ते मर-मर करते रहते,
मलियानिल मन-भाती॥ (3)॥
यहाँ सिकन्दर आया करते,
तनिक जिया करते हैं।
महलों में जमशेद सरीखे,
मद्य पिया करते हैं ॥ (4)॥
प्रेयसि ! इसी रंगशाला में,
रुस्तम इतराते हैं।
आते हैं बहराम शिकारी,
और चले जाते हैं॥ (5)॥
संयोगिता सरीखी कलियाँ,
मुसकाया करती हैं।
झूम-झूम कर प्रतिफल आखिर
मुरझाया करती हैं ॥ (6)॥
प्रेमी मानव यहाँ प्रेम के,
साज सज्जा करते हैं।
राजा आते, कुछ घड़ियों तक,
राज किया करते हैं ॥ (7)॥
मानव आते ही रहते हैं,
जाते भी रहते हैं।
सुख-दुख न्यूनाधिक मात्रा में,
सभी यहाँ सहते हैं॥ (8)॥
कुछ घड़ियों का मेला सजनी।
विश्व एक मधुशाला।
आज भरा, कल खाली होता,
इसमें ‘मधु का प्याला”॥ (9)।
*समाप्त*
(लेखक-श्री ‘बन्धु’)