
धर्म के तीन स्कन्ध
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(श्री. दीवानचन्द जी, एम.ए.)
छांदोग्य उपनिषद् में कहा गया है कि धर्म के तीन स्कन्ध हैं।
स्वाध्याय, दान और यज्ञ, पहला स्कन्ध है। तप दूसरा और आचार्यकुल में ब्रह्मचारी तीसरा स्कन्ध है। यहाँ धर्म की एक वृक्ष के साथ उपमा दी गयी है और इसके अंगों को वृक्ष के तने या टहनियों के रूप में दिखाया गया है। यह समानता उचित है। वृक्ष एक जीवित चीज है और उसके तने भी जीवित चीजें हैं। धर्म के सम्बन्ध में पहली बात जो स्मरण रखने योग्य है वह यही है कि धर्म एक जीवित वस्तु है। जहाँ धर्म केवल रीति रिवाज का समूह बन जावे या सोच समझकर भी अन्ध श्रद्धा तक पहुँच जाय, वहाँ धर्म का पिंजर शेष रह जाता है धर्म नहीं रहता । जीवन का लक्ष्य उन्नति है, बुरी बातों को अंदर से निकालना और अच्छी चीजें धारण करना। जिस धर्म में उन्नति नहीं होती वह छोड़ देने योग्य है। आर्य-समाज के नियमों में कहा गया है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य के त्याग करने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए-यह धर्म का तत्व है। दूसरी बात जो हम वृक्ष की अवस्था में देखते हैं वह यह है कि वृक्ष अपने जीवन के लिए ऊपर और नीचे दोनों ओर से भोजन लेता है। नीचे से जड़ें खुराक लेती हैं पत्ते वायु-मंडल से नमी और भोजन लेते हैं-इसी तरह धर्म नीचे और ऊपर दोनों ओर से जीवन ग्रहण करता है। धर्म वह है जिससे इहलोक और परलोक का भला होता है। जीते जागते धर्म का संबंध इहलोक और परलोक दोनों से है। कई लोग धर्म को केवल इस संसार की भलाई के साथ जोड़ते हैं। कई इसे केवल परलोक की भलाई का स्त्रोत बताते हैं। यह दोनों विचार धर्म के एक पक्ष का दर्शन कराते हैं अतः अपूर्ण हैं। वस्तुतः धर्म न इस लोक की उपेक्षा कर सकता न परलोक की। जिस तरह वृक्ष की खुराक पृथ्वी और वायुमण्डल से आती है इसी तरह धर्म की शक्ति-लोक और परलोक दोनों स्थानों से प्राप्त होती है।
धर्म के स्वरूप का चिन्तन करें तो हमारे सामने कई विशेषताएं आती हैं जो एक धार्मिक क्षेत्र में पाई जाती हैं। धर्म की उन्नति व्यक्तियों का ही काम नहीं यह समाज का काम भी है और समाज इस की उन्नति के लिए विशेष साधन एकत्रित करता है। उपनिषद् वाक्य में, जिस से यह लेख आरंभ होता है, सामाजिक धर्म का वर्णन किया गया है अर्थात् उन साधनों का जिन्हें एक समाज की उन्नति के लिए प्रयोग करता है। समाज प्राकृतिक तौर पर कई भागों में बंटा हुआ होता है। जन्म के हम सब शूद्र होते हैं। दूसरा जन्म जिस से हम द्विज या द्विजन्मा बनते हैं, हमें इस अवस्था से निकाल कर एक नई अवस्था में प्रविष्ट करता है। द्विजों में यही सामान्य बात है कि उन्होंने शूद्रावस्था को पीछे छोड़ दिया और आगे निकल गए है परन्तु किसी समाज में भी सारे द्विज एक से नहीं होते। भिन्नता जीवन का अंग ही नहीं परन्तु जीवन की आवश्यकता भी है। सामाजिक जीवन के लिए जो कुछ आवश्यक और उपयोगी होता है उसके आधार पर समाज को विभक्त किया जाता है। आर्य सभ्यता में द्विजों को तीन भागों में बाँटा गया - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य। इन तीनों के धर्म, शास्त्र में वर्णन किये गए हैं। मनुस्मृति के अनुसार यह धर्म निम्नलिखित हैं।
ब्राह्मण का धर्म वेद पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना और कराना, दान लेना और देना।
क्षत्रिय का धर्म वेद पढ़ना, यश करना और समाज की रक्षा करना।
वैश्य का धर्मवेद पढ़ना, यज्ञ करना, दान देना, वाणिज्य व्यापार, खेती-बाड़ी और शिल्प से धन की उन्नति करना।
ब्राह्मण का धर्म वेद पढ़ना और पढ़ाना। क्षत्रिय और वैश्य का धर्मवेद पढ़ना है पढ़ाना नहीं। न इनमें इसकी योग्यता है न उन्हें इस लिए अवकाश। ब्राह्मण का काम यज्ञ करना और कराना है दूसरों का काम यज्ञ करना हैं कराना नहीं। इसके लिए एक विशेष श्रेणी चाहिए। ब्राह्मण का काम दान देना हैं लेकिन अपने निर्वाह के लिए दान लेना भी उचित है। क्षत्रिय और वैश्य को दान देना चाहिए, परन्तु यह दान लेने के अधिकारी नहीं। उन्हें अपने लिए कमाना चाहिए। दूसरों की कमाई बदला दिये बिना उनके लिये नहीं। वर्णों के धर्मों में हम देखते हैं कि सब धर्म सारे द्विजों के हैं कुछ विशेष वर्ण के। जो धर्म तीनों वर्णों के हैं वह सब तरह से सारे द्विज के लिए अनिवार्य है। वह धर्म तीन हैं वेद स्वाध्याय, यज्ञ करना और दान देना। वेद स्वाध्याय के साथ सत्य ज्ञान की पुस्तकों का स्वाध्याय भी आ जाता है। यज्ञ में हर प्रकार से जनता की सेवा भी है। यज्ञ और दान में बड़ा भेद यह है कि दान करने वाला अपनी कमाई का एक विशेष भाग किसी के कष्ट निवारण के लिए व्यय करता है। उसे इस बात का ज्ञान होता है कि किसी व्यक्ति या किन्हीं व्यक्तियों के कष्ट निवारण के लिए वह अपना धन दे रहा है। यज्ञ में उसे यह भी मालूम नहीं होता कि वह किस को फायदा पहुँचाता है। मरुभूमि में जो कुआँ बनता है वह नहीं जानता कि कौन लोग इस कुँए से अपनी प्यास बुझाएंगे। जो आदमी अच्छी-अच्छी पुस्तक लिखता या पाठशाला स्थापित करता है वह नहीं जानता कि वह किन लोगों का भला करता है। यज्ञ का दर्जा दान से ऊँचा है। स्वाध्याय समाज की सभ्यता की नींव है। यह तीनों बातें स्वाध्याय दान और उपकार, सोसायटी के धर्म का पहला स्कन्ध या तना है। कोई सोसायटी इनके बिना जीवन व्यतीत नहीं कर सकती।
धर्म का दूसरा स्कन्ध तप है। तप का भाव यह है कि सारे समाज में कठोरता सहन करने की योग्यता हो। आराम तो सब कोई चाहता है परन्तु आराम खरीदना पड़ता है। इससे मनुष्य आराम के बिना गुजारा कर सके। इसके लिए बड़े प्रयत्न की जरूरत होती है। तप का मूल्य परीक्षा के समय पता लगता है। प्रो. विलियम ने लिखा है कि प्रकृति के अनुसार मनुष्य दो प्रकार के होते हैं। एक कोमल स्वभाव और दूसरे कठोर स्वभाव वाले। कोमल स्वभाव वाले मजे में रहते हैं परंतु जब तूफान आता है तो वह बह जाते हैं। और कठोर हृदय वाले अपने स्थान पर ही डटे रहते हैं।
तपस्या जीवन बीमा के चन्दे की तरह है। जब तक मनुष्य जीता रहता है यह चन्दा पास से जाता दिखाई देता है लेकिन मृत्यु का समय निश्चित नहीं। यदि अचानक मौत आ जाती है तो बीमे के मूल्य का पता लगता है। इसी तरह तपस्या स्वयं की जाय, बाह्य अवस्थाओं की ओर से हम पर ठूँसी न गई हो। नहीं तो प्रत्यक्ष में निकम्मी और जीवन का बोझ मालूम देती है। परन्तु वास्तविकता को जानने वाले नेत्र इसकी महत्ता को जानते हैं। हमारे धर्म में तप की महिमा का स्थान-स्थान पर वर्णन किया गया है। वर्तमान युग में तपस्या की महानता पग-पग पर दृष्टिगोचर होती है। तपस्या का उपदेश हमारे पूर्वज करते रहे-परन्तु इसका प्रभाव दूसरों के जीवन में प्रकट हो रहा है।
तपस्या सारी जाति के लिए और सारे जीवन के लिए आवश्यक है। परन्तु सारी जाति को तपस्वी बनाने के लिए बहुत सारे साधनों की आवश्यकता है। वह साधन ब्रह्मचर्य है। जाति के बच्चे-बच्चे को इस भट्टी से गुजरना चाहिए। और वह भी उस अवस्था में जब कि उसमें प्रभावों को सहन करने की शक्ति हो। इसलिए उपनिषद् में कहा गया है कि गुरु के पास रहता हुआ ब्रह्मचारी धर्म का तीसरा स्कन्ध है। जाति को धार्मिक बनाने के लिए आवश्यक है कि जाति के बच्चों को आरंभ में ही तपस्वी, श्रद्धा और प्रेम की भट्टी से गुजारा जाय। यदि किसी मकान की नींव कमजोर हो तो दीवारों की मजबूती किस काम की-वह तो अपने भार से ही गिर पड़ेंगी। अतः सबसे पहले इस बात की आवश्यकता है कि नींव दृढ़ हो। सामाजिक जीवन की नींव ब्रह्मचर्य पर स्थित होनी चाहिए। इसके पीछे दूसरे साधन सफल होंगे।