
सत्य की शोध कीजिए
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(विश्व कवि श्री रवीन्द्रनाथ जी टैगोर)
यदि आप सचमुच सत्य के प्रेमी हैं, तो उसके समस्त असीम सौंदर्य और महत्व के साथ पूर्ण रूप में उसे खोजने का साहस कीजिए। किंतु रूढ़ियों की पत्थर की दीवालों के भीतर कंजूसों के समान एकान्त स्थान में उसके (सत्य के) व्यर्थ के संकेत चिन्हों का संग्रह करके ही संतोष न कर लीजिए। महात्माओं की आध्यात्मिक उच्चता के कारण जोकि उन सबसे समान रूप से पाई जाती है, हमें विनम्रतापूर्ण सादगी के साथ उनका आदर करना चाहिए।
यह आध्यात्मिक उच्चता उन में उस समय देखी जाती है जब वे अपनी विश्वजनीन उच्च विचारों के साथ मनुष्य की आत्मा को स्वयं उसके व्यक्तिगत उसकी जाति और उसके धर्म के अहं भाव के बन्धन से छुड़ाने के लिए एकत्रित होते हैं। किंतु परंपराओं की एक नीची भूमि में जहाँ धर्म एक दूसरे के दासों और अन्धविश्वासों को चुनौती देकर ललकारते हैं और उनका खण्डन करते हैं वहाँ पर एक बुद्धिमान मनुष्य निश्चय ही संदेह ओर आश्चर्य के साथ उनके पास से चला जायेगा।
मेरा मतलब इस बात का समर्थन करने का नहीं है कि समस्त मानव जाति के लिए कोई एक ही प्रकार का प्रार्थनागृह रखा जाय अथवा कोई एक ऐसा विश्वजनीन नमूना रखा जाए जिसका अनुकरण सभी पूजा के और सद्भावना के कार्यों के द्वारा किया जाय।
साँप्रदायिकता की उद्धत भावना को जो कि बहुधा सक्रिय अथवा निष्क्रिय उत्तेजनापूर्ण अथवा विनम्र पीड़ा पहुँचाने वाले ढंगों से बहुत ही कम अथवा बिना क्रोध युक्त उत्तेजना के काम में आती हैं तथा तथ्य का स्मरण दिलाने की जरूरत है कि कविता के ही समान धर्म केवल विचार नहीं है वरन् विचारों का प्रकटीकरण है।
ईश्वर का आत्म-प्रकटी-करण सृष्टि की विभिन्नता में है और असीम के प्रकटी-करण में हमारी भावना में भी व्यक्तिगत रूप की ऐसी विभिन्नता होनी चाहिए जो अविरल और अनन्त हो। जब किसी धर्म में समस्त मानव-जाति पर अपने ही मत को लादने की महत्वाकाँक्षा उत्पन्न हो जाती है। तब उसका पतन हो जाता है और वह अत्याचार करने लगता है तथा साम्राज्यवाद का एक रूप बन जाता है। यही कारण है कि जिससे हम मार्मिक मामलों में फैजिज्म के एक विवेकशून्य को संसार के अधिकाँश भागों में फैलते हुए तथा मनुष्य की आत्मशक्ति के विस्तार को अपने अनुभव ज्ञान विहीन तलुवों से खूब कुचलते हुए करते हैं।
अपने ही एक धर्म को सभी देशों और सभी दलों में प्रधान बना देने का प्रयत्न ऐसे ही लोगों में देखा जाता है जिन्हें साँप्रदायिकता का व्यसन जाता है।
यह कहना उनको बुरा मालूम होता है। प्रेम के वितरण करने में ईश्वर उदार है तथा मनुष्यों के साथ आदान-प्रदान करने के उसके साधन एक ऐसी गली में परिमित नहीं हैं जो इतिहास के एक संकीर्ण स्थान पर जाकर अकस्मात् समाप्त हो जाती है।
मैं जिस बात का समर्थन करना चाहता हूँ वह यह है कि इस उपेक्षित सत्य को लोग जीते जागते रूप में स्वीकार करें कि धर्म की वास्तविकता का आधार बहुत आवश्यक और विश्वव्यापी आवश्यकता के रूप में मानव प्रकृति की सत्यता में है और इसीलिए मानव प्रकृति के द्वारा उस धर्म की वास्तविकता की लगातार परीक्षा होती रहनी चाहिए। जहाँ पर यह उस आवश्यकता की उपेक्षा और तर्क का उल्लंघन करती है वहाँ पर यह स्वयं अपने औचित्य को दूर भगा देती है।
मुझे इस कथन को मध्यकालीन भारतवर्ष के बहुत बड़े रहस्यवादी कवि कबीर, जिन्हें मैं अपने देश के सर्वप्रधान आध्यात्मिक विशेष बुद्धिमानों में से एक व्यक्ति मानता हूँ, की कुछ निम्नलिखित पंक्तियों को देते हुए समाप्त करने दीजिए।
“रत्न कीचड़ में खो गया है और सब लोग उसे ढूँढ़ रहे हैं। कुछ लोग पूरब की ओर खोजते हैं, कुछ पश्चिम की ओर। कुछ लोग पानी में खोजते हैं और कुछ पत्थरों में। किन्तु दास कबीर ने उस के सच्चे मूल्य को जान लिया है और स्वयं अपने हृदयरूपी वस्त्र के एक आँचल में उसे बड़े यत्न के साथ लपेट रखा है।”