Magazine - Year 1951 - Version 2
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Language: HINDI
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पूजा प्रतिष्ठा का महँगा सौदा
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(श्री लक्ष्मण जी तरुड़कार)
लायलपुर से दो मील उत्तर में एक सघन उपवन था जिसमें कुछ समय पूर्व एक हरीहर नामक एक महात्मा रहते थे। संध्या को एक समय नगर में भिक्षा को आते थे बाकी सारे दिन ईश्वर भजन में तल्लीन रहते। गायत्री का उन्हें ईष्ट था। भगवती माता के परम भक्त थे। भिक्षा के लिए वे इने-गिने घरों में जाते थे। उन्हीं घरों में एक भक्त विशुनदयाल का था। भगत जी का एक सात वर्ष का बालक महात्माजी से बड़ा हिल गया था, भिक्षा का समय होता था तो बालक उनकी बहुत पहले से प्रतीक्षा किया करता था। जिस दिन न आते उस दिन बहुत बेचैन होता। महात्मा जी को भी बालक से प्रेम हो गया वे उसके साथ बैठ कर कुछ देर नित्य खेलते।
एक दिन बच्चा बीमार पड़ा एक हफ्ते की बीमारी में बालक का देहान्त हो गया। जिस समय उसकी लाश को श्मशान ले जाया जा रहा था, उसी समय महात्मा जी भिक्षा को आ गये। यह सब देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ। श्मशान तक वे भी साथ गये। जब अंत्येष्ठि की तैयारी हुई तो उनने लोगों से कहा इस लाश को मुझे दे दो और तुम सब लोग चले जाओ। महात्मा जी पर सब लोगों की बड़ी श्रद्धा थी। वे लाश उन्हें देकर लौट आये।
एक दो व्यक्ति लाश लेने का कारण जानने के लिए वहीं छिपकर बैठे रहे। महात्मा जी ने मृतक के जीवित हो जाने के लिए ईश्वर बहुत प्रार्थना की, पर वह न जिया। रात इसी प्रकार बीत गई। सवेरा निकलने को आया। उन्हें अपनी असफलता पर बड़ी झंलाहट हो रही थी। उनने बड़े जोर से चिल्लाकर कहा- ईश्वर की इच्छा से नहीं, तो उठ, मेरी इच्छा से जी पड़ बालक ने करवट बदली और वह सचमुच जी पड़ा एक दिन अपनी कुटी पर रखकर दूसरे दिन उस बालक को उसके पिता को सौंप आये। मरे को जिन्दा कर देने के चमत्कार का यश दूर-दूर तक फैल गया। अब उनकी कुटी पर भीड़ लगी रहती थी लोग तरह की भेंट लेकर वहीं पहुँचते थे, भिक्षा की उन्हें आवश्यकता न रही।
एक दिन हरीहर जी के गुरु जी कुटी पर पधारे। इतना वैभव इतनी भीड़भाड़ देखकर उन्हें बड़ा कौतूहल हुआ। भीतर पहुँच कर देखा तो शिष्य फूलों की माला से सजा बैठा था। उनके क्रोध का बारा पार न रहा। ऐसे जोर की लात लगाई कि हरीहर जी आधे मुँह गिर पड़े। गुरु जी इस विकरालता को देखकर वे थर-थर कांपने लगे। गुरु ने एक दर्पण झोले में से निकाल कर दिया और कहा इसमें अपना मुँह तो देख। उनने मुँह देखा तो वह काला हो रहा था। मुर्दनी छाई हुई थी, सारा तेज उड़ गया था। प्रशंसा तो फैल रही थी पर आत्मबल की कमाई सब चुक गई थी।
गुरु जी ने कहा -ईश्वर के नियमों में और मनुष्य के निर्धारित प्रारब्ध में हस्तक्षेप करना उचित नहीं। भक्त अपने तप के प्रभाव से भगवान को अपनी बात को मनवाने के लिए विवश कर सकता है पर ऐसा करने से उसका अपना सारा तप तेज समाप्त हो जाता है। यह कहकर वे हरीहर जी को कान पकड़कर घसीटते हुए अपने साथ अज्ञात स्थान को ले गये। ताकि वे पुनः तप करके अपनी खोई हुई आत्म शक्ति का संचय कर सकें। जाते समय उनने उपस्थित लोगों से कहा-आप लोग किसी सन्त को प्रशंसा पूजा का प्रलोभन देकर उसे पथ भ्रष्ट न किया करें। अपने कल्याण के लिए आप लोग स्वयं भगवान का भजन किया करें।
यह घटना लगभग 85 वर्ष पुरानी और बिलकुल सच्ची है। एक परम विश्वस्त प्रत्यक्षदर्शी ने कही थी। यह गायत्री साधकों के लिए बड़ी शिक्षा प्रद है। तप के अनुपात से निश्चित रूप से सिद्धि मिलती है उस सिद्धि को किसी का प्रारब्ध पलटने का चमत्कार दिखाने में खर्च नहीं कर देना चाहिए। वरन् उसे गुप्त रखना चाहिए। कष्ट ग्रस्त लोगों को स्वयं साधना पथ पर चलकर कष्टों से छुटकारा प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।