Magazine - Year 1951 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री उपासना का प्रयोजन
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(श्री अशफीलाल जी मुख्तार, बिजनौर)
गायत्री ईश्वर की शक्ति है॥ ब्रह्म निर्विकार, निरपेक्ष, निर्गुण निराकार है। उसका जो कुछ वैभव विस्तार परिलक्षित होता है वह ईश्वरीय प्रकृति, माया एवं शक्ति के कारण ही है शास्त्रों में कहा गया है कि शक्ति के बिना शिव भी शव अर्थात् मृतक हो जाता है। जितना भी पदार्थ, जितना भी चैतन्य दृष्टि गोचर होता है उस सबके मूल में महामाया -ब्राह्मी शक्ति ही काम कर रही है। उस शक्ति को ही आध्यात्मिक भाषा में गायत्री कहते हैं।
इस महा शक्ति से संपर्क स्थापित करने के दो मार्ग है (1) स्थूल बल द्वारा (2) सूक्ष्म बल द्वारा। स्थूल बल के अंतर्गत बुद्धि, परिश्रम, धन, पदार्थ, विज्ञान, यंत्र आदि हैं इनके द्वारा, नित्य प्रति के जीवन में अनेकों कार्यों का आयोजन किया जाता है, और उस प्रयत्न के फलस्वरूप अनेक प्रयोजनों को पूरा किया जाता है। यह स्थूल प्रयोग नित्य प्रति मानव जीवन में व्यवहत होता है। दूसरा मार्ग सूक्ष्म बल का है। चैतन्य जीवात्मा, अन्तःकरण चतुष्टय, सूक्ष्म शरीर, पंच कोप, षट्चक्र, ग्रन्थि गुच्छक आदि अवश्य आंतरिक शक्तियों को एक विशेष प्रयुक्त किया जाता है कि उस महामाया सूक्ष्म प्रकृति सत्ता से सम्बन्ध स्थापित हो सके। इस प्रकार जब सम्बन्ध स्थापित हो जाता है तो अनेक उपयोगी प्रयोजन सिद्ध हो सकते हैं।
महामाया अनन्त वैभवों और ऐश्वर्यों की भण्डार है। इतनी दयालु है कि अपने ऐश्वर्य का द्वार हर एक के लिए सदैव खुला रखती है। प्रश्न केवल पात्रता का है। जो अपने में जितनी पात्रता उत्पन्न कर लेता है वह उतना ही लाभ उठा सकता है। समुद्र में अतुलित जल राशि भरी पड़ी है पर उसमें से उतना ही जल लिया जा सकता है जितना भरने को अपने पास पात्र हो। जिसके हाथ में गिलास है वह गिलास भर लेगा, घड़े वाले का घड़ा भर जायगा, मेघ मालाएं लाखों मन पानी उसमें से भर लेंगी। समुद्र का द्वार सबके लिए खुला है, पर मिलता उतना ही है जितना कि पात्र है।
संसार में स्थूल बल की पात्रता जितनी होती है उतना ही कमाई कर सकेगा जितना उसके शरीर में बल होगा। व्यापारी उतना ही बड़ा व्यापार कर सकेगा। जितनी उसके पास पूँजी होगी। मशीन जितनी बड़ी होगी उसी अनुपात से काम करेगी। बैल और भैंसे के मूल्य में उसकी योग्यता के आधार पर फर्क रहता है। पात्रता की कीमत पर संसार में हर सजीव या निर्जीव वस्तु का मूल्याँकन किया जाता है और उसी पर प्रतिफल मिलता है। अयोग्य या अपात्र वस्तु एवं प्राणी को सदैव उपेक्षित ही रहना पड़ता है।
पात्रता का यही नियम आध्यात्मिक जीवन में लागू होता है। अन्तः भूमि जितनी स्वस्थ होगी उतना ही महामाया के शक्ति स्रोतों से दिव्य तत्व प्राप्त करेगी। बीमार बालक, माता के कूचों में भरपूर दूध होते हुए भी उसका पान नहीं कर पाता। परन्तु स्वस्थ बालक उसे पीकर दिन-दिन हृष्ट-पुष्ट होता जाता है। माता दोनों बालकों को समान प्यार करती है पर उसके प्यार से लाभ उठाना तो पात्रता पर ही निर्भर है।
जैसे श्रम, धन, यंत्र, विज्ञान, बुद्धि आदि भौतिक साधनों से स्थूल सम्पत्ति कमाई जाती है। उसी प्रकार सूक्ष्म अन्तःकरण से भी महामाया प्रकृति के गुण अन्तःस्थल तक पहुँच कर वे लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं जो स्थूल प्रक्रिया द्वारा भी मिलना सम्भव नहीं। सदा की स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की शक्ति अधिक होती है जो वस्तुएँ स्थूल पात्रता के प्रतिफल में मिलती है, सूक्ष्म पात्रता से उसकी अपेक्षा कहीं अधिक मूल्यवान और महत्वपूर्ण लाभ मिल सकते हैं। इस तथ्य को हमारे पूर्वज भली प्रकार समझते थे, इसलिए उन्होंने दस मन लोहा इकट्ठा करने की अपेक्षा एक छटाँक सोना कमाना अधिक उपयुक्त समझा, स्थूल बल की अपेक्षा सूक्ष्म बल के सम्पादन की ओर अधिक ध्यान दिया। फलस्वरूप वे उन गुप्त योग्यताओं को प्राप्त कर सके जिनके कारण जगद्गुरु और चक्रवर्ती बनने का सुअवसर उन्हें मिल सका।
उपासना, आराधना, साधना ऐसी वैज्ञानिक पद्धतियाँ है जिनके द्वारा अन्तः चेतना में पात्रता उत्पन्न की जाती है, साधक जैसे-जैसे आन्तरिक बल एकत्रित करता जाता है वैसे ही वैसे उसके उस सूक्ष्म चुम्बक शक्ति का विकास होता है जो महामाया को अपनी ओर खींचती है, कृपा प्राप्त करती है और उसके अक्षय भण्डार से उपयुक्त वस्तुओं को उपलब्ध करती है दयालु माता है वह अपने पुत्रों को बहुत देने को तत्पर रहती है पर देती उन्हें ही है जो पात्र होते हैं अनधिकारी लोग बड़ी बड़ी लालसायें और कामनाएं करते हैं पर अपनी पात्रता बढ़ाने के लिए समुचित प्रयत्न नहीं करते। ऐसी दशा में वे बड़े-बड़े मनोरथ पूरे नहीं हो पाते जो साधना के तप में खरे उतरने वाले साधकों को ही उपलब्ध हो सकते हैं।
सभी सुख, शान्ति और समृद्धि चाहते हैं। स्थूल जगत में वह तीनों ही अस्थिर रहती हैं चिरस्थायी सम्पदाएं आत्मिक होती हैं दैवी सम्पदाएं कहते हैं। उन्हें प्राप्त करने लिए महामाया के भण्डार की चाबी अपनी ‘आन्तरिक पात्रता’ ही है। पात्रता के लिए ‘तप’ करना पड़ता यह तप ही उपासना के नाम से ही प्रसिद्ध है। मैं इस गायत्री उपासना को अपनी साँसारिक कमाई से अधिक महत्व देता हूँ ताकि मूल्यवान् लाभ प्राप्त किया जा सके। मैं वकील हूँ अपनी समस्त तर्क शक्ति के द्वारा जब सोचता हूँ कि मेरा वास्तविक लाभ किस में है तब यही समझ में आता है कि आत्म कल्याण के लिए प्रयत्न करना ही सर्वोत्तम है। गायत्री का आश्रय लेकर वही मैं कर भी रहा हूँ।