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Magazine - Year 1951 - Version 2

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कष्ट रहित महा यात्रा

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First 16 18 Last
(पं॰ जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, जयपुर)

शास्त्रों में लिखा है कि मृत्यु के समय प्राणी को एक हजार बिच्छुओं के काटने जैसी पीड़ा होती हैं। देखा भी ऐसा गया है कि कितने ही मनुष्य ऐसे कष्ट साध्य रोगों में ग्रसित होकर प्राण छोड़ते हैं कि देखने वालों का कलेजा काँप जाता है। कई-कई दिन आवाज बन्द रहना, गले में कफ घड़घड़ाना, साँस भी पूरी तरह न ले सकना, मूर्छा, झकड़ना, हड़फूठन, दर्द, अश्रुपात दीनता एवं वेदना के साथ प्राण त्यागते हुए मनुष्य को देखकर यही अनुभव होता है कि स्वर्ग नरक सब यहीं है नरक के यमदूतों द्वारा दी जाने वाली पीड़ाओं सज्जनों का कुछ आभास देखने वालों को भी मिलता रहता है। मरने वाले पर जो बीतती है उसे वही जानता है। हमने अपनी आँखों से ऐसी मृत्युएं देखी हैं जिनमें हजार बिच्छू काटने की दुख होने वाली बात सत्य प्रतीत होती है।

यह निश्चित है कि दुःखों कारण अकर्म ही है। सत्कर्म करने वाला मनुष्य इस लोक या परलोक में कोई कष्ट नहीं पाता, मृत्यु के समय भी उसे कोई पीड़ा नहीं होती। कितने ही सत्पुरुष इस प्रकार प्राण त्यागते हैं जैसे हाथी के गले में पड़ी हुई फूलों की माला टूट पड़े तो हाथी को पता तक नहीं चलता है कि वह माला कब टूट पड़ी। माया मोह ग्रस्त, दुरात्मा मनुष्य बहुधा सत्य के समय असहनीय पीड़ा सहते हैं।

हमारे परिवार-नेता श्री पं॰ हरिसहाय जी की मृत्यु पिछले मई मास में ही हुई है। रात को भोजन करके सोये, प्रातःकाल उठने पर उन्हें कुछ कमजोरी सी अनुभव हुई। साधारण अवस्था में उन्हें भान हुआ कि अब शीघ्र ही उनकी अन्तिम यात्रा होने वाली है। घर के लोगों को बुला कर उनने कहा कि बस अब डेढ़ घण्टे मैं और रहूँगा। घर के लोगों को इस बात पर विश्वास न हुआ कि यह कह क्या रहे हैं। उन्होंने फिर समझाया कि मैं असत्य नहीं कहता। जो बात अवश्यंभावी है वही कह रहा हूँ। वे डेढ़ घंटे सदुपदेश देते रहे और भगवान का नाम उच्चारण करते रहे। बोलते, बात करते, ठीक समय पर उनके प्राण पखेरू उड़ गये।

मृत्यु से कुछ ही क्षण पूर्व उन्होंने बताया कि देखो वह विमान लेने आ गया। वह विमान घर के किसी दूसरे को न दीखा तो वे चुप हो गये और कहा यह तुम लोगों को नहीं दीखेगा। हमारे गाँव में एक बड़ी हरिभक्त महिला है उसे अपने घर से ही ठीक समय पर वह दिव्य विमान जाता हुआ दिखाई दिया साधारणतः मृत्यु के समय बड़ी भयंकर और अशान्त वातावरण हो जाता है पर न उनकी मृत्यु के समय ऐसा वातावरण न था। ऐसी शान्तिमयी, दिव्य धारा बह रही थी मानों इस स्थल पर कोई देव पुरुष विराजमान हों।

श्री हरिसहाय जी पृथ्वी के देवता थे। उन्हें सच्चे अर्थों में भूसुर कह सकते हैं। अपने पूरे परिवार की उन्होंने ऐसी रक्षा उन्नति और सेवा की मानो घर पर ही उसकी आत्म साधना की तपोभूमि हो। उन्हें सफल गृहस्थ-योगी कहा जा सकता है। प्रातःकाल तीन बजे उठकर गायत्री का जप करने लग जाना उनका नित्य नियम था। वे अक्सर कहा करते थे कि गायत्री पर श्रद्धा करने वाले मनुष्य की पवित्र आत्मा हो जाती है, और उसके सब कार्य यज्ञमय होते हैं। मैं इस छोटे से परिवार को ईश्वर की अमानत समझ कर वैसी ही उच्च भावना से सेवारत रहता हूँ जैसे कि योगी अपनी साधना में लगे रहते हैं। यह शिक्षा और भावना गायत्री माता ने मेरे हृदय में प्रेरित की है।

एक दिन सब को मरना है इसलिए मृत्यु की पीड़ा से बचने के लिए हमें स्वर्गीय आत्मा का प्रत्यक्ष उदाहरण अधिक उपयुक्त लगता है। महा कल्याण करणी गायत्री उपासना में आत्मा को श्रद्धा पूर्वक लगाये रहना और शरीर को कर्तव्य धर्म में निरत रखना यह दो कार्यक्रम ऐसे हैं जिन्हें अपनाकर हम सब अपनी अन्तिम यात्रा को कष्ट रहित बना सकते हैं। मैंने इसी मार्ग को पकड़े रहने का निश्चय किया है। पाठक बन्धुओं से भी ऐसा ही करने की मेरी प्रार्थना है।

First 16 18 Last


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