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Magazine - Year 1954 - Version 2

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(पं. हरि प्रसाद जी ओझा, मथुरा)

श्रद्धेय पं. श्रीराम शर्मा जी ने गत मास एक भारतीय शिक्षण शिविर का आयोजन किया था, जिसमें विभिन्न स्थानों के अनेक श्रद्धालु शिक्षार्थी सम्मिलित हुए थे। दुर्भाग्य से इच्छा होते हुए भी मैं शिक्षण शिविर में भाग न ले सका। पण्डित जी की अनुपम उदारता, निरभिमानता, सौजन्यशीलता बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की सक्रिय भावना का किन शब्दों द्वारा यश गान किया जाय, यह मुझ शुद्र बुद्धि की समझ में नहीं आ रहा है।

मनीषी आचार्य जी से मेरा कतिपय सिद्धान्तों पर गहरा मतभेद है। मैं आर्य समाजी विचारों का हूँ पण्डित जी सनातनी है फिर भी उनकी ऋषिकल्प सर्वसाधारण के प्रति शुभ भावनाओं पर मैं हृदय से मुग्ध हूँ, पाठक इन पंक्तियों को, मनस्येकं, वचस्येकं कर्मण्येजम् के सिद्धान्तानुसार ही सत्य स्वीकार करेंगे-मुझे दृढ़ आशा है।

अब मैं अपने मन की बात का निवेदन करता हूँ, वह यह कि मैं शिक्षण शिविर के अन्तिम दिन भी नितान्त अन्तिम क्षरण-जब शिक्षणार्थियों समावर्तन संस्कार होकर विदाई चित्र लिया जाने वाला था उपस्थित हुआ। तब मान्यवर शर्मा जी का दीक्षान्त भाषण समाप्त हो रहा था। शर्मा जी ने अपने भाषण के अन्त में उपसंहार के रूप में जो एक बात शिक्षणार्थियों को बताई उसको श्रवण कर मुझे जो अप्रतिम और हार्दिक आनन्द अनुभव हुआ वह वाणी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता। कारण “जो गूँगो गुड़ खाय स्वाद कहि सके न ताको” वाली लोकोक्ति चरितार्थ हो रही थी मैं न लेखक हूँ न वक्ता हाँ विद्वानों के लेख और वयोवृद्धों की शिक्षाप्रद बातों के श्रवण से मनन का शौक अवश्य है। क्योंकि मेरी शिकायत किंचित भी नहीं है इसी कारण मैं किन्हीं पवित्र भावों को लेखक कर व्यक्त करने का अभ्यास नहीं है।

आचार्य जी ने गम्भीरतापूर्वक सरल भाव से शिष्य वर्ग के समक्ष यह कहा कि भाई हम सौ बातों की एक बात आप लोगों के ठोस अभ्युदयार्थ बताते हैं और वह यह कि आप अपने निवास स्थल को वापस जा रहे हैं वहाँ पहुँच कर नित्य नियम से प्रतिदिन अपने पूज्य माता, पिता, गुरु, जेष्ठ सहोदर आदि मान्य व्यक्तियों का चरण स्पर्श युक्त अभिवादन करने का अटूट व्रत धारण करने की मन, वचन, कर्म से प्रतिज्ञा करें और तद्वत् आचरण भी?

इन शब्दों को सुनकर मेरे अंतःकरण में एक प्रकार की बिजली सी (हर्षातिरेक से) दौड़ गयी। हृदय श्रद्धा से गदगद हो आया, और न मालूम कल्प, काल से अब तक की कितनी घटनाएं दृष्टि के सामने दौड़ गयी खिचड़ी के एक चावल वाली नीति के आधार पर शिक्षण शिविर की सफलता समझ अपनी अनुपस्थिति का पश्चाताप करता रहा। पाठकों को ध्यान रखना चाहिए कि आचार्य जी के उपर्युक्त शब्द भारतीय नहीं अपितु वैदिक संस्कृति की आधारशिला है। भगवान मनु अपने मानव धर्मशास्त्र में स्पष्ट घोषणा करते है कि जो व्यक्ति मान्य व्यक्तियों (स्त्री पुरुष) को नित्य नियम के श्रद्धा भक्ति से अभिवादन करते हैं उनकी आयु, विद्या, बल, बुद्धि, आरोग्यता, यश की उत्तरोत्तर निश्चय वृद्धि होती है। बहुत सम्भव है इन्हीं कारणों से मेरी मातामहि जब मैं 4-5 वर्ष का अबोध बालक था, नित्य संपर्क में आने वाले सभी व्यक्तियों को मुझसे अभिवादन कराया करती थी अरे लाला बीधोभूआको (भंगन) राम राम कर ले, अरे हरिया तेने आज जोखी ताऊ को (कहार) राम-राम न करी अब कर ले, इसी प्रकार बाबा जब बाजार को जाते और साथ होता तो जैसा मिलता उससे उसी प्रकार चाचा, ताऊ, बाबा आदि कहकर राम-राम करने का आदेश कर राम राम कराते। मैं 4-5 वर्ष का बालक तो था ही कहता बाबा राम राम? वे लोग मुँह भर आशीर्वाद देते जीते रहो। हम जैसे बूढ़े हो जाओ। इधर मेरे बाबा कहते राम राम करता है कि लट्ठ सा मारता है? यों कहा कर हाथ जोड़कर बाबा जी राम-राम धीरे से, स्वर्गीय बाबूराम जैन का ये व्रत था कि छोटे बड़े, गरीब अमीर, ब्राह्मण शूद्र, स्त्री पुरुष शत्रु मित्र जो कोई भी उनके सम्मुख आता या वे किसी के भी सम्मुख जाते लाला बाबूराम सबसे पूर्व राम-राम करते, उनकी लाघवता अनुकरणीय थी कि वे कभी भी किसी को पहले राम राम करने का मौका ही नहीं देते थे। बड़ी उम्र वाले दोनों प्रकार के लोग बड़े लज्जित होते थे, वे कहा करते थे कि हमारे गाँव के किसी व्यक्ति को गलित कुष्ठ को गया था, उनसे व्रत लिया हुआ था कि गाँव भर के प्रत्येक घर में नित्य सायं प्रातः जाकर घर के प्रत्येक सदस्य का नाम ले लेकर राम राम करना, तब दोनों समय अन्न ग्रहण करना, उसने अपने जीवन के दसियों वर्ष इसी अटल व्रत से बिताये। जीवन के अन्तिम काल में उसका शरीर निरोग हो गया।

गुरुकुल विश्वविद्यालय वृन्दावन के 20-25 वर्ष पुराने किसी उत्सव पर जिसका सम्वत् याद नहीं, सुप्रसिद्ध आर्य मिश्नरी पं. अयोध्या प्रसाद जी पाठक ने अपने व्याख्यान में बताया था कि वे योरोप के किसी सर्वधर्म सम्मेलन में वैदिक धर्म के प्रतिनिधि बनकर गये, सम्मेलन में अभिवादन प्रणाली का प्रश्न उपस्थित हुआ अन्य मतों और देशों की अभिवादन प्रणाली के समक्ष भारतीय अभिवादन प्रणाली का प्रदर्शन इस सुयोग्यता और वैज्ञानिक ढंग से किया कि उपस्थित मण्डली मन्त्र मुग्ध की भाँति, चकित रह गई। जहाँ अन्य देशों में कहीं टोपी उतारकर, कहीं छड़ी उठाकर, कहीं हाथ सीधा तानकर, कहीं जीभ निकालकर तथा अनेक प्रकार के निःसार प्रदर्शन करते हैं। वहाँ एक आर्यवर्तीय प्रथा है, जो समृद्ध मानव शरीर के प्रमुख अंगों को एकत्रित कर कर्म के प्रतीक युगल करो से (पाली) श्रद्धा पुष्पाँजलि बना, शरीर संचालक मस्तिष्क को नत कर, ब्रह्म स्थान हृदय पर सबको एकत्रित कर कृतज्ञतापूर्वक नमस्ते निवेदन करता है तब संपर्क में आये व्यक्ति का हृदय पुलकित हृदय से गदगद हो जाता है।

लगभग 35-40 वर्ष की बात होगी मुरसान स्टेशन पर एक वयोवृद्ध सज्जन पारस्परिक वार्तालाप के सिलसिले में किसी विद्यार्थी से कह रहे थे कि प्राचीन काल में यहाँ राजपुरुषों, सम्मान्य राज्याधिकारियों प्राप्त संन्यासियों के सम्मुख उपस्थित होने पर जूता छोड़कर प्रथम अपने पूज्य पिता जी का नामोच्चारण करते हुए अपना नाम लेकर हाथ जोड़कर अभिवादन करने की प्रथा प्रचलित थी।

माता-पिता, गुरु, अतिथि, संन्यासी आदि गुरु जनों को किस प्रकार अभिवादन किया जाता है इसका तरीका अशिक्षित लोग भी जानते है। जब मैं अपने पूज्य पिता जी को, जो अन्तिम दिनों संन्यासी हो गये थे उसके चरण स्पर्श कर रहा था, जो एक अशिक्षित व्यक्ति ने जूता छोड़कर, हाथ जोड़कर मस्तक नवाकर, दोनों हाथों को उलट-पलट कर चरण स्पर्श करने का अभिवादन मुझे सिखाया। आज तो वह सब प्रथाएं लुप्त होती चली जा रही है।

अभिवादन की भारतीय संस्कृति को पुनः प्रचलित करने के लिए आचार्य जी इतना प्रयत्न कर रहे हैं यह देखकर मेरा हृदय गदगद हो जाता है।

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