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Magazine - Year 1954 - Version 2

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साँस्कृतिक पुनरुत्थान की व्यावहारिक योजना

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भारतीय संस्कृति की अनेक विशेषताएं हैं और उन विशेषताओं को हृदयंगम करने के अनेक भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ है। लाखों वर्षों से भारतीय जिस प्रकार से सोचते आ रहे हैं और जिन सम्बन्धों एवं विश्वासों पर उनकी मनोभूमि बनती चली आ रही है वह विचारधारा वस्तुतः मनुष्य को असामाजिक-अनैतिक, अवाँछनीय गतिविधि अपनाने से रोकती है और स्वयं कुछ कठिनाई सहकर भी दूसरों को सुविधा देने के लिए प्रेरित करती है।

धर्म के दस लक्षण जो मनु भगवान ने बताए हैं उनको अपनाने से मनुष्य स्वयं नैतिकता एवं सामाजिकता पर दृढ़ हो सकता है। उसके लिए त्याग करने एवं कष्ट सहने को तत्पर हो सकता है। जिस मनुष्य की ऐसी मान्यता, धारणा एवं गतिविधि होगी वह निश्चय ही अपने आस-पास सहयोग, प्रेम, सद्भाव एवं सदाशयता का वातावरण तैयार करेगा। शाँतिप्रिय समाज में रहने से सुख सुविधाएं बढ़ती हैं। जो व्यक्ति ऐसा वातावरण बनाने में अधिक सहयोग देता है, अधिक सक्रिय भाग लेता है, अपना अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित करके एक आदर्श सामने लाता है यह निश्चय है दूसरों का अधिक प्रेम एवं सहयोग उपलब्ध करता है। इस प्रकार इन नैतिक नियमों का श्रद्धापूर्वक पालन करने वाला जहाँ सुसंगत कहलाने का श्रेय प्राप्त करता है वहाँ वह अपनी संस्कृति का गौरव बढ़ाते हुए व्यक्तिगत तथा सामूहिक सुख शान्ति में निरन्तर बढ़ोतरी करता है। ऐसे सुसंस्कृत लोगों की अधिकता वाला समाज निश्चय ही स्वास्थ्य, संगठन, धन, ज्ञान, बल, प्रतिष्ठा आदि सुख साधनों से भरा पूरा रहता है। प्राचीन काल में भारतवर्ष की यही स्थिति थी।

जीवनयापन के नियमोपनियम विधान, आचरण, उपचार, कर्मकाण्ड, संस्कार, त्यौहार, प्रथा परम्परा, भाव, भाषा, वेश भूषा, व्यवहार, रिश्ते, आहार-विहार, धार्मिक, मान्यता आदि के संमिश्रण को बाह्य संस्कृति कहते हैं। क्रिया रूप संस्कृति को प्राण कहा जा सकता है। दोनों के सम्मिश्रण से ही एक सजीव शरीर स्थिर रहता है। हम केवल भारतीय सिद्धान्तों को तो मानें पर आचरण सभी उसमें प्रतिकूल, विदेशी परम्पराओं से भरे हुए हों तो वह संस्कृति का शरीर रहित प्राण एक प्रकार का प्रेम मात्र माना जायगा। यदि हम बाह्य कर्मकाण्ड तो सभी भारतीय रखे पर मनोभूमि हमारी अनैतिक भारतीय परम्पराओं से भिन्न हो तो वह ऐसा ही होगा जैसा प्राण रहित मृतक शरीर। इन दोनों ही अपूर्णताओं को पूरा करती हुई जो सैद्धान्तिक और व्यवहारिक जीवन में घुली मिली हमारी चिर प्राचीन गतिविधि है उसे ही अपनाने को सच्ची संस्कृति कह सकते हैं। आज ऐसी ही संस्कृति की पुनः प्राण प्रतिष्ठा करने की आवश्यकता है। जिस राजमार्ग पर चलकर हमारे पूर्वज महान बने थे वह हमारे लिए भी खुला हुआ है। देश, काल, पात्र अवसर और आवश्यकतानुसार व्यवहार में थोड़ा हेर-फेर करते हुए भी हम आसानी से अपनी चिर प्राचीन संस्कृति को अपनाएं तो न केवल अपने निकटवर्ती क्षेत्र में वरन् समस्त संसार में एक ऐसी आदर्श जीवन पद्धति का नमूना उपस्थित कर सकते हैं जिसे अनैतिकता एवं कृत्रिमता के दुष्परिणामों से ऊबी हुई दुनिया प्यासे पक्षी की तरह खोजती फिरती है।

सांस्कृतिक पुनरुत्थान का महान कार्य पूरा करने के लिए हमें विशाल पैमाने पर कार्यक्रम बनाना अपनाना और फैलाना होगा। तभी इतने बड़े देश की इतनी बड़ी जनसंख्या में उन सुसंस्कृत तथ्यों की स्थापना सम्भव हो सकेगी। यों अपने-अपने ढंग से अनेकों सत्पुरुष इस दशा में प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है फिर भी अखण्ड-ज्योति एवं गायत्री परिवार से सम्बन्धित स्वजन सम्बन्धियों को साथ लेकर हम एक आयोजन का कार्यक्रम उपस्थित करते हैं। इसे आगे बढ़ाने में हम लोग तत्पर होंगे इसकी उपयोगिता को प्रतिपादन करने में सफल होंगे तो निश्चय है कि अगणित सहयोगी इसे पूरा करने में अपना समय, सद्भाव और सहयोग प्रदान करेंगे और उस गतिविधि का देशव्यापी एवं विश्वव्यापी होना कुछ कठिन न रहेगा। योजनाएं इस प्रकार हैं :-

(1) संस्कृति का कोई परिमार्जित रूप अभी जनता के सामने प्रस्तुत नहीं है। अनेक भ्रान्त विचार, आदर्श एवं रीति रिवाज मध्य काल की विभिन्न परिस्थितियों में उपज खड़े थे। वे भी आज संस्कृति में घुसे बैठे हैं। जो उन्हें ही परम्परागत धर्म मानने लगे हैं। ऐसी भ्रान्तियों और वास्तविकताओं को सच्चे धार्मिक दृष्टिकोण के अनुसार छाँट-छाँट कर नीर-क्षीर की तरह अलग करना होगा और संस्कृति और विकृति के भेद को स्पष्ट करके जनता के सामने पालन करने योग्य ग्राह्य तत्वों को अपनाने और अग्राह्यों का मोह त्यागने के लिए कहा जाय।

(2) देश, काल, पात्र के अनुसार प्राचीनकाल के और अब के समय में जो अन्तर आ गया है उसको ध्यान में रखते हुए यह बताया जाय कि प्राचीन काल के दृष्टिकोण को अक्षुण्य रखते हुए आज जीवन के रहन-सहन में कितनी सीमा तक हेर-फेर करना आवश्यक है।

(3) साँस्कृतिक जीवन के आदर्श और व्यवहार को अपनाने पर मनुष्य को जो सुविधाएं सुख शान्ति समृद्धि एवं सफलताएं मिल सकती हैं उनको तर्क, प्रमाण, उदाहरण, तथ्य आदि के आधार पर भली भाँति सिद्ध किया जाय और उन निष्कर्षों को बड़े परिमाण में प्रचारित किया जाय। साथ ही उन सांस्कृतिक आदर्शों की अवहेलना करने पर जो कठिनाइयाँ एवं परेशानियाँ उत्पन्न होंगी उनका भी बुद्धि संगत प्रतिपादन किया जाय। इस प्रकार जनता को भली प्रकार यह समझाया जाय कि उनकी व्यक्तिगत एवं सामूहिक जीवन की स्थिरता, शान्ति एवं उन्नति के लिए हमारी संस्कृति कितनी उपयोगी एवं आवश्यक है।

(4) उपरोक्त पंक्तियों में कहे हुए (अ) संस्कृति एवं विकृति की छाँट (ब) वर्तमान काल के अत्रसय संस्कृति का व्यवहारिक रूप (स) संस्कृति की उपयोगिता को तर्क और प्रमाणों सहित सिद्ध करने के कार्य के लिए विद्वानों का शोध मण्डल कार्य करे और ऐसी ठोस जानकारी प्रस्तुत करे जो शास्त्रीय दृष्टि से ही नहीं भौतिक दृष्टिकोण से भी काफी मजबूत हो। कम्यूनिज्म सिद्धान्तों के पीछे जितना प्रबल आधार है। उससे अधिक प्रबल आधार साँस्कृतिक जीवन के पक्ष में सामान्य बुद्धि की जनता एवं कच्चे मस्तिष्क के लड़कों को भी समझा सकने योग्य प्रामाणिकता को यह शोध मण्डल प्रस्तुत करे।

(5) ऐसी शोधों के निष्कर्ष को अधिकाधिक जनता तक पहुँचाने के लिए अत्यन्त सस्ते ट्रैक्ट छापे जाएं तथा उन्हें लेखों द्वारा अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित करने के लिए लेखक तैयार किये जाएं और पत्रकारों से इस कार्य के लिए अपने पत्रों में स्थान देते रहने का अनुरोध किया जाय।

(6) कुछ ऐसे आश्रम हों जहाँ साँस्कृतिक जीवन यापन करने की क्रियात्मक व्यवस्था हो। जहाँ रह कर लोग उस पद्धति को व्यवहारिक रूप से अभ्यास में लाने का प्रयत्न करें और उसके अभ्यास हो जाने पर अपने-अपने स्थानों में जाकर अपने आदर्श के अनुसार जीवन यापन करने के लिए दूसरों को प्रभावित करके अपने अनुकरण करने वाले बनावें।

(7) साँस्कृतिक आदर्शों के अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए चित्र पोस्टर आदि को बाजार में प्रस्तुत किया जायं।

(8) जिन लोगों पर कमाने की जिम्मेदारी नहीं है, ऐसे लोग अपना जीवन सांस्कृतिक विचारों में प्रचार के लिए अर्पण कर दें। व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं, कमजोरियां, स्वार्थपरताओं और आलस्य प्रमाद आदि दुर्गुणों से बचने की प्रतिज्ञा लेकर यदि कुछ ब्रह्मचारी या वानप्रस्थी लोग कमर कस कर सच्चे मन से इस दशा में जुट जाएं तो पहाड़ पलट देने जैसा कार्य कर सकते है। जिनको पारिवारिक गुजारे के लिए कमाने की चिन्ता नहीं है ऐसे जमीन जायदाद की आमदनी वाले लोग भी इस कार्य में पूरा समय दे सकते हैं। अथवा अपने बदले में कुछ गृहस्थ कार्यकर्ताओं को वेतन देकर भी राष्ट्र को अर्पित कर सकते है। पूरा समय देकर पूरी शक्ति के साथ साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए जितने व्यक्ति अधिक संख्या में जुटेंगे उतनी ही अधिक एवं शीघ्र प्रगति होगी।

(9) जो लोग पूरा समय नहीं दे सकते तो छुट्टी का दिन या प्रतिदिन कुछ समय सांस्कृतिक ज्ञान प्रसार के लिए अपने निकटवर्ती क्षेत्र में दिया करें। पहले अपने घर में फिर मित्रों और पड़ौसियों में इस प्रकार की योजनाओं को कार्यान्वित करने का प्रयास किया करें।

(10) पर्व एवं त्यौहार अब केवल खान पान या सजावट के उत्सव मात्र रह गये हैं। वस्तुतः इनमें बहुत भारी शिक्षात्मक संदेश भरे पड़े हैं। प्रत्येक पर्व एवं त्यौहार को सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से इस प्रकार बनाया जाय कि उनमें छिपे हुए संदेशों की छाप मनाने वालों पर पड़े। सामूहिक गोष्ठियाँ सभाएं अथवा पूजा चर्चा कथा-कीर्तन के आयोजन करके ऐसे प्रवचन हों जिनमें उस त्यौहार की उपयोगिता तथा संदेश को सब लोग समझ सकें और अपना सकें।

(11) या तो वर्तमान पण्डित पुरोहितों को सुधारा जाय या ऐसे नये पण्डित पुरोहित तैयार किये जाएं जो दक्षिणा लूटने तक का ही यजमान से नाता न रखें। वे सोलह संस्कार कराने की शास्त्रोक्त शिक्षा प्राप्त करें और निर्लोभ भाव से, कम से कम खर्च में संस्कार करावें ताकि जिनका संस्कार हो उन पर उस धर्मकृत्य के आध्यात्मिक प्रभाव द्वारा और वहाँ उपस्थित लोगों पर संस्कार के समय पढ़े गये मन्त्रों की व्याख्या सुनने से अपने कर्त्तव्यों को समझने एवं पूरा करने का प्रभाव पड़े।

(12) मन्दिर, मठ, पौरोहित्य, भिज्ञा, ब्रह्मभोज तीर्थ, दान, दक्षिणा आदि के नाम पर जो पैसा धार्मिक जनता देती है वह ऐसे कार्यक्रमों को पूरा करने एवं व्यक्तियों के निर्वाह में लगे जो केवल सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए पूरी तरह संलग्न हो, यह धन किसी को मुफ्त की आमदनी के रूप में हरामखोरी में फिजूल खर्ची में बर्बाद न करने दिया जाय।

(13) भागवत् आराधना, गायत्री जप, यज्ञ आदि आत्मबल एवं सतोगुण बढ़ाने वाले आस्तिकता पूर्ण धर्मकृत्यों को जनसाधारण के नित्यकर्मों में समावृष्ट करने का प्रचण्ड प्रयत्न हो क्योंकि आत्मा में आस्तिकता सुदृढ़ संस्कारों की स्थापना बिना सांस्कृतिक पुनरुत्थान के हो सकेगी।

(14) इस प्रकार के सांस्कृतिक कार्यकर्त्ताओं का समय-समय पर सम्मेलन तथा शिक्षण की एक केन्द्रीय एवं नियमित व्यवस्था रहे।

(15) जिस प्रकार का सांस्कृतिक शिक्षण शिविर गत मास मथुरा में हुआ था जिसका विस्तृत विवरण इस अंक में है वैसे शिविर स्थान पर समय-समय पर होते रहें और एक स्थान के कार्यकर्त्ता दूसरे स्थान जाकर शिक्षण कार्य किया करें।

(16) रविवार को या अन्य छुट्टी के दिन पारिवारिक सत्संग हुआ करे। एक स्थान पर जितने संस्कृति प्रेमी हों वे क्रमशः एक-एक दिन अपने यहाँ पारिवारिक सत्संग कराया करें जिसमें मुहल्ला पड़ौस के सज्जनों को विशेष रूप से एकत्रित किया जाय और अन्य सदस्य भी उपस्थित होकर हवन, कीर्तन, प्रवचन आदि करें, इससे भावनाओं के निर्माण के साथ-साथ संगठनात्मक प्रवृत्ति भी बढ़ती रहे।

(17) कुछ सुशिक्षित नारियाँ भी इन कार्यक्रमों को स्त्री समाज में प्रचारित करें। वे स्त्रियों के पारिवारिक सत्संग एवं शिक्षण शिविर करने के लिए अपना समय दें। स्त्रियों में सांस्कृतिक शिक्षा पर गीत मंडलों एवं भजनों का प्रचार किया जाएं।

(18) किशोर बालकों के लिए अलग शिक्षण शिविर किये जाए। उनमें शिक्षार्थियों के बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखते हुए वार्तालाप, प्रश्नोत्तर, कथा कहानी आदि द्वारा साँस्कृतिक शिक्षा संस्कार जमाये जाएं।

(19) लोकप्रिय कार्यक्रमों में संगीत, चित्रपटों की प्रदर्शनी, एकाकी नाटक, वार्त्ता प्रदर्शन, मेजिक लालटेन, कथा, प्रवचन, कीर्तन, प्रतियोगिता सभा सम्मेलन आदि के आयोजन करके सांस्कृतिक छाप जनसाधारण के मनों पर डालने का प्रयत्न किया जाय।

(20) इन योजनाओं को चलाने के लिए कुछ ऐसे व्यक्ति आगे आवें जिनका चरित्र अत्यन्त पवित्र, ज्ञान और विवेक असाधारण, भावना उत्कृष्ट और लगन सच्ची हो। निस्पृह, तपे हुए ऐसे सच्चे मनुष्य जिन पर सहज ही श्रद्धा हो सकती है, ऐसे लोग ही इन योजनाओं को सफल बना सकते हैं। उन्हें ढूँढ़ा जाय।

इन योजनाओं का आरम्भ अभी गायत्री तपोभूमि से आरम्भ किया जा रहा है। कुछ कार्य आरम्भ किये जा रहे हैं और उनका स्पष्ट आयोजन शीघ्र ही सामने आ जायगा।

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