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Magazine - Year 1954 - Version 2

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साँस्कृतिक पुनरुत्थान की ओर

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मनुष्य पर साधारणतया पाश्विक वृत्तियों का आधिपत्य छाया रहता है। इस पशुत्व को हटाकर उसके स्थान पर मनुष्यत्व एवं देवत्व की स्थापना के लिए जो प्रयत्न करते रहते हैं उन्हें संस्कार कहते हैं। जंगली पशु को उपयोगी बनाने के लिए, उसे बहुत कुछ सधाना एवं सिखाना पड़ता है, यदि वह प्रयत्न न हो तो जंगल में पकड़े हुए हाथी, घोड़ा, बैल, रीछ, बन्दर आदि से कुछ भी उपयोगिता की आशा नहीं की जा सकती। जंगल की उपेक्षित पड़ी हुई भूमि में कोई अच्छी फसल पैदा नहीं की जा सकती उसे काम की बनाना हो तो जुताई निराई, मेंड़ बन्दी, सिंचाई आदि के उपचार करने होते हैं। तभी उनमें उत्तम फसल की आशा की जा सकती हैं। मनुष्य का भी यही हाल है। वह भी जन्म से पाश्विक वृत्तियों की ही अधिकता लेकर आता है। इन वृत्तियों को परिमार्जन करने के लिए उसकी मनोभूमि पर जो छाप डालनी पड़ती है उसे संस्कार कहते हैं। संस्कार डालने की पद्धति को ही संस्कृति कहते हैं।

भारतीय संस्कृति सबसे प्राचीन होने के साथ उन विशेषताओं से परिपूर्ण है कि उसे किसी वर्ग समाज, जाति, सम्प्रदाय आदि की न कह कर सार्वभौमिक सम्पूर्ण मानव जाति की संस्कृति कहना उचित होगा। भारतीय संस्कृति-किसी राष्ट्र, वर्ग, समाज या सम्प्रदाय की संस्कृति न होकर मानवता की, आत्मा, धर्म की, सत्य की, परमार्थ की, सामाजिकता की, सेवा, प्रेम, त्याग, संयम और उदारता की संस्कृति है। इस संस्कृति-इस विचार पद्धति को, इस जीवनयापन की प्रणाली को अपनाने से मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बन सके, इस तथ्य को ध्यान में रख कर हमारे त्रिकालदर्शी पूर्वजों एवं ऋषियों ने इसका निर्माण किया है।

भारतीय विचारधारा एवं जीवनयापन पद्धति- आज बहुत विकृत, अव्यवस्थित उपेक्षित एवं अस्त-व्यस्त दशा में पड़ी हुई दिखाई देती है। विदेशी राजनैतिक, सैद्धान्तिक शैक्षणिक एवं साँस्कृतिक प्रभाव ने हमारे दुर्बल मनों पर भारी छाप डाली है जिसके कारण हमें अपने मन का अपनी महानता का भान नहीं रहा है, दूसरी ओर अज्ञान, अंधकार, स्वार्थपरता और सुयोग्य पथ प्रदर्शन के अभाव में उस संस्कृति को विकृत करके रूढ़िवाद, अंधविश्वास एवं मूढ़ता के बुरे रूप में उपस्थित कर दिया है। इस दुहरे आक्रमण से आहत हुई हमारी संस्कृति अपना उच्च स्थान कायम न रख सकी और उपेक्षा एवं तिरस्कार के गर्त में गिरकर दुर्दशा में जीवन यापन करने लगी है। पर वस्तुतः वह उतनी तुच्छ है नहीं जितनी कि आज समझी और मानी जाती है। पिछले दिनों दुर्भाग्यवश मुस्लिमलीगियों ने धर्म और संस्कृति का नाम लेकर देश में जो सत्यानाशी नाटक खेला उससे यह दोनों शब्द विज्ञ लोगों की दृष्टि में घृणास्पद बनने लगे हैं। जब कहीं इन शब्दों का प्रयोग होता है तो लोग भयभीत हो जाते हैं और यह आशंका करने लगते है इसमें भी कोई वैसा ही सत्यानाशी बीजाँकुर न छिपा हो। दूध का जला छाछ को फूँक कर पिए तो इसमें कोई बुराई नहीं है पर छाछ तो छाछ ही रहेगी। हजार परीक्षा कर लेने पर भी उसमें मुँह जलाने का दोष न मिलेगा। भारतीय धर्म और संस्कृति में एक भी विषैला परमाणु नहीं है यह तो व्यक्तिगत एवं सामूहिक सुख शान्ति को रखने एवं बढ़ाने वाली एक बुद्धि संगत, चिर परीक्षित विचारधारा एवं जीवनयापन पद्धति है।

भारतीय संस्कृति का जन समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारा लाखों वर्षों का इतिहास साक्षी है। इस सांस्कृतिक प्रेरणा ने घर-घर में महापुरुष पैदा किये हैं, और पारस्परिक स्नेह सद्भाव त्याग एवं उदारता के वे उदाहरण उपस्थित किये हैं जिनका स्मरण करने मात्र से आज हमारा नैतिक बल एवं सन्मार्ग पर चलने का उत्साह बढ़ता है। कठोर श्रम और सादगी का रहन-सहन अपनाने की नीति ने इस देश को धन-धान्य से पूरित कर रखा था। दूसरे के धन को ठीकरी के समान समझने, पराई स्त्री को माता या बेटी की दृष्टि से देखने, दूसरों के दुःख को अपना दुःख मानने के आदेश ने सभी प्रकार के संघर्षों एवं छिद्रों का द्वार रोक दिया था। बड़े-बड़े बलवान असुर विद्रोही इस संस्कृति को नष्ट करने आये पर वह अपनी विशेषताओं के कारण सजीव रही आज जहाँ अनेकों प्राचीन समस्याएं लुप्त प्रायः हो गईं अपनी महानता एवं उपयोगिता के कारण हमारी संस्कृति आज भी जीवित है और अपने पुनः विकास के लिए नये-नये कोपलों के साथ फिर हरी भरी होने का प्रयत्न कर रही है।

भारतीय संस्कृति हमारी लाखों वर्ष पुरानी वह जीवनयापन पद्धति है जो मनुष्य की पाश्विक प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण स्थापित करते हुए सादा जीवन उच्च विचार का आदर्श उपस्थित करती हुई देवत्व की ओर व्यक्ति और समाज को अग्रसर करती है। लोग इसकी विशेषताओं को भूल गये हैं। जिनमें सामर्थ्य है उनने इस बात का पूरे मन से प्रयत्न नहीं किया कि पदार्थ विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज विज्ञान तर्क प्रमाण, उदाहरण आदि का आधार लेकर उन सांस्कृतिक विशेषताओं का बुद्धि ग्राह्य रूप में जनता के सामने उपस्थित करें। जो विकृतियाँ, बुराइयां, रूढ़ियां, कुरीतियाँ, धर्म के नाम पर समाज में घुस पड़ी हैं उनका परिष्कार करके सच्चे एवं निर्मल स्वरूप आगे लावे। इस प्रयत्न के अभाव में पाश्चात्य विचारधाराओं की चमक से प्रभावित पीढ़ी अपने प्राचीन आधारों को हेय एवं व्यर्थ मानने लगी है यदि सही आधार लेकर जनता को उन प्राचीन आदर्शों की महानता एवं उपयोगिता समझाई जा सके तो प्राचीन गौरवमयी प्रचण्ड प्रेरणा का ऐसा अजस्र स्रोत खुल पड़ेगा जो हमें व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से सब प्रकार सुखी समृद्धि बनाते हुए पारस्परिक राष्ट्रीय एकता के सुदृढ़ सूत्रों में बाँध देगा।

हमारे विचार पद्धति का प्राचीन आदर्श महान है। आस्तिकता, सत्य, अहिंसा, सत्य प्रेम, विवेक, स्वच्छता, सेवा, संयम, श्रम, त्याग, समता, एकता आदि को अपनाने से हम अपने चारों ओर आत्मीयता, समृद्धि स्वस्थता एवं सुख शान्ति का वातावरण पैदा कर सकते हैं। इन्हीं आदर्शों को जीवन में घुला-मिला लेने के लिए अनेक आयोजन विधान एवं कार्यक्रम बने हुए हैं जिस पर यदि ठीक ढंग से चला जाय उसे ठीक प्रकार समझा जाय तो उपरोक्त आदर्श केवल सिद्धाँत मात्र न रह कर जीवन के व्यवहारिक अंग बन सकते हैं। आदर्शों को व्यवहार में लाने के लिए जो धार्मिक प्रक्रियाएं विधि व्यवस्थाएं ऋषियों ने बनाई थीं उन्हें हम मोटे तौर पर संस्कृति कह सकते हैं।

हमारे खान-पान, रहन-सहन, त्यौहार-व्रत, उत्सव, विवाह, अंत्येष्टि आदि सोलह संस्कार चार वर्ण, चार आश्रम तीर्थ, पूजा, मन्दिर, हवन, कथा कीर्तन, शिखा, सूत्र वेषभूषा, रीतिरिवाज, देवी देवता, मन्दिर, मठ, साधु, पुरोहित, वेद शास्त्र, दिनचर्या, काम सेवन, अभिवादन, रिश्ते आदि में संस्कृत का समावेश है। इनको दैनिक जीवन में समुचित स्थान देने से हमारा जीवन साँस्कृतिक बनता है। समय-समय पर व्यक्तिगत या सामूहिक आयोजनों के संस्कार त्यौहार, उत्सव आदि के द्वारा भी प्रभावशाली ढंग से एक सामूहिक सुसज्जा के साथ उपयुक्त मनोवैज्ञानिक वातावरण तैयार किया जाता है। इन सब क्रियाओं एवं प्रथाओं का प्रयोजन केवल एक ही है वह है-आदर्श जीवन यापन करने वालों का एक सुसंगठित समाज बनाना। संस्कृति का मूल उद्देश्य यही समझना चाहिए।

भारत के पुनर्निर्माण के लिए जहाँ भौतिक उन्नति की अनेक पंचवर्षीय दश वर्षीय योजनाएं आवश्यक है वहाँ सांस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए भी योजनाबद्ध कार्यक्रम बनाया जाना भी कम आवश्यक नहीं है। क्योंकि संस्कृति ही किसी समाज और राष्ट्र की रीढ़ होती है। कानून की शक्ति इतनी प्रबल एवं हृदय के अन्तराल तक पहुँचने वाली नहीं है जिसके द्वारा कि मनुष्य प्रलोभनों को ठुकरा कर नैतिक सिद्धान्तों के पालन के लिए त्याग कर सके। यह शक्ति तो केवल उन धार्मिक भावनाओं एवं मान्यताओं में ही है जो अन्तरात्मा पर विश्वास के रूप में छाई हुई है और उनकी रक्षा के लिए मनुष्य बड़े से बड़ा बलिदान करने को तैयार हो जाता है। नैतिक नियमों का पालन करने वाला मोटे तौर से घाटे में रहता है, इस घाटे की क्षतिपूर्ति वे धार्मिक भावनाएं ही कर सकती हैं कि भले ही मैं बेईमानी को छोड़कर साँसारिक दृष्टि से घाटे में रहा पर अन्तरात्मा के सम्मुख, ईश्वर के सम्मुख, धर्म की रक्षा करने वाला सिद्ध होकर मैं आत्म सन्तोष एवं सद्गति का अधिकारी होता हूँ। यह विश्वास ही एक मात्र वह उपाय है जो हमारी पाश्विक वृत्तियों को नियन्त्रण रखने में समर्थ हो सकता है। इसी को हम संस्कृति कह सकते हैं। यदि इन साँस्कृतिक बाँधों की मरम्मत नहीं की जाती है इनकी नीवों को फिर से मजबूत नहीं बनाया जाता है तो भारी जल प्रलय से भारी खतरा खड़ा हो सकता है। हमारे राष्ट्रीय चरित्र का, नैतिकता का बाँध टूट गया तो भ्रष्टाचारी, बेईमान, उद्दण्ड, चालाक, धूर्त और निकम्मे लोगों का समाज सभी उन्नतिकारी भौतिक योजनाओं को बहा ले जायेगा और उन्हें उसी प्रकार नष्ट कर देगा जैसे जल प्रलय में टूटी फूटी नाव डूब जाती है।

साँस्कृतिक पुनरुत्थान का कार्य सरकार नहीं कर सकती। यह कार्य कूटनीतिज्ञों और राजनैतिक मदारियों का है भी नहीं यह कार्य तो सदा से उन आत्माओं का रहा है जो अपने सम्बन्ध में तप और त्याग का असाधारण उदाहरण जनता के सम्मुख उपस्थित करके उनका हृदय जीतते हैं और अपने धार्मिक ज्ञान एवं निर्मल हृदय, साधु स्वभाव एवं निरन्तर सेवावृत्ति द्वारा महान आदर्शों की छाप जनसाधारण के अन्तराल में जमा सकने में समर्थ होते हैं। सरकारी कामों में संदेह की पर्याप्त गुंजाइश रहती है इसलिए उनका प्रभाव प्रायः उथला ही होता है। आत्मा की पुकार का आत्मा तक पहुँचने का कार्य वे ही लोग कर सकते हैं जो अपने उज्ज्वल चरित्र एवं महान ज्ञान के कारण इसके अधिकारी बन सके हों।

हम लोगों के कंधों पर राष्ट्र के साँस्कृतिक पुनरुत्थान की महान जिम्मेदारी है। जिम्मेदारी की उपेक्षा करना हमारे लिए एक धार्मिक पातक, नैतिक विश्वासघात एवं सामाजिक अपराध से कम न होगा। इस कलह को दूर करने के लिए विशुद्ध कर्त्तव्य भावनाओं से प्रेरित होकर भारतीय संस्कृति की पुनः प्राण प्रतिष्ठा करने के लिए हम खड़े होते हैं, कदम बढ़ाते हैं, सुव्यवस्थित योजना के अनुसार कार्य प्रारम्भ करने का शंख बजाते हैं। इन महान कार्यों के लिए भावनावान् सच्चे मनुष्यों का वास्तविक सहयोग अपेक्षित है। देश -व्यापी सांस्कृतिक प्रतिष्ठापना के लिए बहुत भारी काम हमें करना है, सामने भारी कर्मक्षेत्र पड़ा हुआ है। इस पुनीत अभियान में हमें उन सच्ची आत्माओं के सहयोग की अति आवश्यकता है। जो कार्य की महानता उपयोगिता एवं आवश्यकता को अनुभव करती हो। ऐसे लोगों को कंधे से कंधा लगाकर काम करने के लिए हम सादर आमन्त्रित करते हैं।

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