Magazine - Year 1954 - Version 2
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Language: HINDI
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मेरी आन्तरिक अनुभूति
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(प्रो. रामचरण महेन्द्र,एम.ए.)
भगवान ने ऐसा हृदय तथा मस्तिष्क दिया है जिसमें निरन्तर अनेक प्रश्न, अनेक समस्याएँ अनेक गुत्थियों का चक्कर चलता ही रहता है। उन्हें सुलझाने के लिए बहुत सोचता हूँ और इस मन्थन काल में जो महत्वपूर्ण बातें सूझ पड़ती हैं उन्हें दूसरों के सामने प्रकट करने की इच्छा होती है। विचारों की अभिव्यक्ति को जब प्रकट किये बिना नहीं रहा जाता, तो कलम उठाता हूँ और कुछ लिखा करता हूँ और उन्हें पत्र पत्रिकाओं में छपने भेज देता हूँ। संयोग की ही बात है कि वे उद्गार पत्रकारों को पसन्द आते हैं और वे उन्हें प्रसन्नतापूर्वक और कई बार तो आग्रहपूर्वक भी छापते है।
अपने इस प्रयास में पिछले 12-14 वर्षों में अनेक पत्र पत्रिकाओं तथा उनके सम्पादकों से संपर्क स्थापित करने का अवसर मिला हैं, कुछ से पत्र व्यवहार का परिचय है, कुछ से मिलने जुलने तथा व्यक्तिगत सम्बन्धों का सुयोग बन गया है। पत्रकारों लेखकों और साहित्यकारों का भी एक क्षेत्र है। इस क्षेत्र में एक से एक उच्चकोटि के विद्वान, प्रतिभाशाली, सूझ-बूझ के साथ तथा सफल प्रयत्न महानुभाव भरे पड़े हैं। यह वर्ग छोटा सा ही है, पर राष्ट्र निर्माण का बहुत भारी उत्तरदायित्व उस पर है। इसलिए इन ‘थोड़े से’ लोगों को हम बहुत कुछ मानने को विवश होते हैं।
जिन साहित्यकारों से मेरा परिचय है उनमें से एक अपने ढंग के अनोखे व्यक्ति आचार्य जी हैं। अखण्ड-ज्योति के जन्मकाल से ही मैं व्यक्तिगत रूप से उनके घनिष्ठ संपर्क में हूँ और प्रायः इस पत्रिका का आरम्भ से ही तत्परता पूर्वक उसका सम्पादन कार्य करने में प्रमुख रूप से हाथ बंटाता रहा हूँ। हर महीने अनेक पत्रों का आदान-प्रदान हम लोगों के बीच में होता हैं और जल्दी-जल्दी हम आपस में मिलते भी रहते हैं। साल के 365 दिनों में शायद ही कुछ दिन ऐसे होते है, जिनमें अखण्ड-ज्योति के सम्बन्ध में आचार्य जी के सम्बन्ध में कुछ सोचने या करने का अवसर न आता हो। कह सकते हैं कि वे मेरे मानसिक परिवार के एक अंग बन चुके है।
बुद्धि से बुद्धि और हृदय से हृदय की परख आती है। विगत 14 वर्ष से मेरा हृदय आचार्य जी के अन्तस्तल को परखने का कार्य करता चला आ रहा है। इस दिशा में जितनी अधिक जानकारी मुझे प्राप्त हुई है जितना अधिक निकट से उन्हें समझने का अवसर मिलता गया है उतनी ही मेरी श्रद्धा बढ़ती गई है। किन गुणों किन भावनाओं किन विचारों पर मेरी ऐसी मान्यता हुई इसकी चर्चा करना यहाँ अनावश्यक होगा। हम अध्यापक लोग दिनभर मनुष्यों को ही परखते हैं, हमारी आँखें इस सम्बन्ध में दूसरों से अधिक पैनी होती है, वस्तु स्थिति को समझने में बहुत कम ही हम लोग भूल करते हैं। आचार्य जी पर मेरी अंधश्रद्धा नहीं है। मैं किसी का भक्त या चेला भी नहीं हूँ। व्यक्ति की सच्चाई तथा विचारों की ऊँचाई के सामने ही मस्तक झुकाना मैंने सीखा है, इसलिये किसी भी व्यक्ति का मैं केवल उतना ही मान करता हूँ जितना कि वह वस्तुतः प्राप्त होती है।
आचार्य जी को मैंने सच्चा ब्राह्मण पाया है। इनके विचारों और कार्यों में ब्राह्मणत्व का सच्चा आदर्श सन्निहित रहता है। तदनुसार मेरी भावना उनके प्रति किसी बुद्धि जीवी व्यक्ति की होनी चाहिए। मेरी यह श्रद्धा ही है जो रात-रात भर जागकर अखण्ड-ज्योति को सींचने के लिए कुछ कार्य करने को बलपूर्वक विवश करती है। आचार्य जी ने अपनी योग्यता और प्रतिभा का उपयोग पत्रकार जगत में आकर भी यदि धन कमाने के लिए किया होता तो निःसंदेह आज वे भी दूसरों की तरह बहुत सम्पन्न होते। पर आरम्भ से ही उनका स्वभाव और आदर्श ऐसा रहा है जिनके कारण आर्थिक तंगी उन्हें घेरे रहती है। व्यक्तिगत रूप से उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दुर्बल रहती है कि अखण्ड-ज्योति को चलाने तथा अपने पारिवारिक खर्च चलाने में चिंता ही करनी पड़ती रहती है। उनकी इस कठिनाई को देखकर मेरी भावनायें उमड़ती रही हैं, पर ईश्वर ने अमीर मुझे भी नहीं बनाया। मैं भी मजदूर ही हूँ। “अपना श्रम देकर उनकी सहायता करूं” यह मेरी अन्तरात्मा मुझ से निरन्तर कहती रही है। उसी प्रकार पर मैंने गत 14 वर्षों से अखण्ड-ज्योति का सम्पादन कार्य करने तथा 50 पुस्तकें लिख देने का कार्य किया है। निश्चित है कि इतना श्रम मैंने किसी दूसरे के लिए किया होता तो उससे हजारों रुपयों की मुझे प्राप्ति हुई होती। पर ईश्वर जानता है कि आज तक मैंने एक कानी कौड़ी भी पारिश्रमिक इसके लिए कभी नहीं लिया है। लेना तो दूर कभी ऐसा विचार तक नहीं किया है करता भी कैसे? जितना ही इस संस्थान के निकट आता हूँ अधिक परिचित होता जाता हूँ और भी अधिक करने के लिए बहुत कुछ करने के लिए अन्तरात्मा कहती है।
इस बार गर्मी की छुट्टियों में आचार्य जी कोटा आये। उसमें शिक्षण शिविर की योजना बनाई और उसका संयोजन करने के लिए मुझसे कहा। विचार अच्छे थे योजना उत्तम थी। पर साल भर में गर्मी के दिनों में यह थोड़े से दिन ही तो छुट्टी के मिलते हैं। कोल्हू के बैल की तरह पूरे वर्ष जुते रहने के बाद यह थोड़े ही दिन ऐसे होते हैं, जिनमें रिश्तेदारियों, मित्रों आवश्यक कार्यों विनोद या ज्ञानवृद्धि के लिए कहीं जाना सम्भव हो सकता है। बाहर आने जाने में बच्चे भी साथ रहते हैं, वे सालभर से एक एक-दिन इन छुट्टियों के लिए गिनते रहते हैं। मैं यह छुट्टियाँ मथुरा बिताने और अन्य प्रोग्राम रद्द कर दूँ। वह बात किसे पसन्द आती। सभी ने असहमति और विरोध प्रकट किया। आचार्य जी रात को कोटा रहे। मेरा मन रातभर दशरथ की तरह संकल्प करता रहा। अन्त में अन्तरात्मा की पुकार जागी। जिस मिशन के लिये अब तक इतना खून पसीना बहाता रहा हूँ क्या उसकी एक महत्वपूर्ण आवश्यकता के लिए घरेलू आग्रह एवं आवश्यकताओं को निछावर नहीं किया जा सकता? अवश्य ही किया जा सकता है। करूंगा। किया भी। नियम समय पर मथुरा पहुँचा और शिविर को सफल बनाने में जो कुछ बन पड़ा किया भी। अनेक साथियों और सत्पुरुषों के सहयोग से वह सफल भी हुआ। इसकी सफलता तथा भविष्य की योजना को देखते हुए मेरा चित्त प्रसन्नता से भरा हुआ है।
मथुरा के कोटा आये हुए मुझे इतने दिन हो गये पर एक बात मुझे बुरी तरह चुभ रही है। उसका घर जितना ही विचार करता हूँ उतना ही अधिक खेद और निराशा होती है। यह बात है अखण्ड-ज्योति की ग्राहक संख्या। जबकि कहानियों के, सिनेमा के तथा अन्य प्रकार के अखबार इतनी भारी संख्या में छपते हैं तब अखण्ड-ज्योति की ग्राहक संख्या इतनी थोड़ी रहे यह चिन्ता की बात है। हम लोग दिन रात खून पसीना बहाकर इतनी उच्च कोटि की पाठ्य सामग्री जुटाते हैं। मूल्य इतना सस्ता रखा है जिससे कागज छपाई की लागत मात्र मुश्किल से पूरी होती है। फिर भी लोग उसके ग्राहक क्यों नहीं बनते?
लोगों की पैसे की तंगी इसका कारण बिल्कुल नहीं है, गरीब लोग भी इतने पैसे आये दिन व्यर्थ की बातों में खर्च करते रहते है। समय का फेर, सद्विचारों के महत्व के प्रति लोगों की उपेक्षावृत्ति ही इसका प्रधान कारण है। इन बातों का तो दोष है ही जो ऐसे उपयोगी कार्य आगे पढ़ नहीं पाते पर अधिक दोष हम लोगों का है जो इसकी उपयोगिता और महत्ता को समझते हुए भी इस मिशन को आगे बढ़ाने के लिए क्रियात्मक रूप से कुछ नहीं करते। अखण्ड-ज्योति आचार्य जी की वाणी है, उनकी अन्तरात्मा की पुकार है इसे अधिक लोग सुनें समझें तभी उनका श्रम सार्थक हो सकता है। इस सार्थकता की जिम्मेदारी उनकी है जो अपने आचार्य जी का प्रेमी, हितैषी मित्र या शिष्य कहते हैं। सच्ची सद्भावना हमेशा क्रिया रूप में प्रकट होती है। इसके लिए अपना विनम्र उदाहरण मैं पेश कर सकता हूँ। आचार्य जी को उनके मिशन को मैं अच्छा मानता हूँ, आदर रखता हूँ तो उसके फलस्वरूप कुछ त्याग भी करता हूँ और कष्ट भी सहता हूँ और समय भी देता हूँ। पर जो लोग पैर छूने में सबसे आगे रहते हैं, तरह-तरह की सेवाएं और सहायताएं प्राप्त करने की आशा करते हैं पर जब स्वयं कुछ करने का अवसर आता है तो हाथ झाड़ कर अलग खड़े हो जाते हैं। अखण्ड-ज्योति परिवार में ऐसे लोगों की आशा मुझे कभी न थी। पर जब इस बार पत्रिका दफ्तर का भली प्रकार अध्ययन किया तो व्यवस्थापक श्री सत्यदेव जी ने बताया कि ऐसे लोग उंगलियों पर गिनने मात्र हैं। जो दूसरों को अखण्ड-ज्योति का ग्राहक बनाने के लिए कुछ प्रयत्न करते है। अधिकाँश तो ऐसे हैं जो अपना चन्दा ही मुश्किल से भेजते हैं। इस स्थिति को देखकर सुनकर मेरा सिर लज्जा से नीचे गढ़ने लगा है।
ये कैसे मित्र है, हितैषी हैं, प्रेमी हैं, श्रद्धालु हैं, जो अपनी आदर भावना की श्रद्धा को चरितार्थ करने के लिए कुछ नहीं करते। यदि आचार्य जी की वाणी अन्तरात्मा की पुकार अखण्ड-ज्योति खराब है, हानिकारक है तो उसका विरोध करना चाहिए और उसे बन्द कराने का प्रयत्न करना चाहिए यदि वह उत्तम है तो उसके प्रसार के लिए कुछ तो प्रयत्न करना चाहिए कुछ तो समय देना ही चाहिए। न विरोध न सहयोग यह उपेक्षा तो मृतप्रायः सड़ी गली मनोवृत्ति की द्योतक है। यदि हमारा परिवार सचमुच ऐसा ही है तो निराशा और अंधकार की ही कल्पना की जा सकती है।
यह तनिक भी कठिन नहीं कि अखण्ड-ज्योति का एक सदस्य चाहे तो एक दो और अपने नये साथी न बना ले। हर सदस्य का थोड़ा-थोड़ा सहयोग आचार्य जी की वाणी के बल और क्षेत्र में असाधारण वृद्धि कर सकता है। मैं सोचता रहता हूँ कि किन शब्दों में अपने साथियों के आगे अपना हृदय उड़ेल कर रखूँ कि वे अपने-अपने परम आवश्यक कर्त्तव्य को समझें और इसके लिए प्रयत्न करें। शब्द नहीं मिलने पर भावना मेरी असाधारण है, यदि थोड़े से साथियों को भी मैं अपनी आन्तरिक बेचैनी समझा सकने में सफल हो सकूँ तो हो नहीं सकता कि मेरी ही भाँति वे भी कुछ न कुछ करने को तत्पर न हों। काश, मुझे अपनी ही भावनाएं अपने साथियों के सम्मुख रखने और साथियों को उनकी वेदना अनुभव कराने की शक्ति भगवान ने दी होती तो कितना उत्तम होता।