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Magazine - Year 1954 - Version 2

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जीवन को सफल बनाने की साधना

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जो मनुष्य जितना छोटा होता है, संकुचित, संकीर्ण, अनुदार, तुच्छ तथा नीच होता है उसकी मनोवृत्तियां उतनी ही संकीर्ण तथा स्वार्थी होती हैं। ऐसे मनुष्य जब भी विचार करते हैं अपने संकुचित स्वार्थों की दृष्टि से सोचते विचारते हैं। वैसी ही इच्छा आकाँक्षाएं और कामनाएं करते हैं। जैसे-जैसे मनुष्य का आत्मिक विकास होता जाता है वह अपने पन का दायरा बढ़ाता जाता है। किसी व्यक्ति के आत्म विकास की कसौटी यह है कि यह जो कुछ सोचता-करता, कमाता है वह केवल अपने लिए ही करता है या दूसरों के निमित्त ही। जिसका दायरा जितना बड़ा है, जो दूसरों में जितनी आत्मीयता रखता है वह उतना ही बड़ा महापुरुष है। श्रेष्ठ पुरुषों का सर्वप्रधान लक्षण यह है कि वे वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धान्त को मानते हैं। इन्हें सबके अन्दर अपनी आत्मा और अपनी आत्मा में सब कोई समाये हुये दृष्टिगोचर होते हैं। ज्ञानी पुरुषों का स्वार्थ विकसित होकर परमार्थ का रूप धारण कर लेता है।

आत्मोन्नति के लिये दो मार्ग हैं (1) आत्मावलम्बन (2) आत्मसिंचन। आत्मावलम्बन कहते हैं अव्यात्मिक व्यायामों को, जिस प्रकार दण्ड, बैठक, कुश्ती, दौड़ आदि द्वारा शारीरिक व्यायाम के द्वारा शरीर की नस नाड़ियों को मजबूत बनाया जाता है उसी प्रकार जप, ध्यान, योग, साधन, मौन, अनुष्ठान, तपश्चर्या आदि के द्वारा अन्तरंग शक्तियों को परिपुष्ट किया जाता है। दूसरा साधन है आत्म सिंचन। आत्म सिंचन का अर्थ है आत्मा की रुचि, इच्छा, आकाँक्षा, प्रकृति, पुकार एवं आवश्यकता को पूर्ण करना। जिस प्रकार व्यायाम से भी अधिक शारीरिक स्वस्थता के लिये ठीक आहार विहार की, अन्न, दूध, घी, स्नान, सफाई ब्रह्मचर्य आदि की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार आत्मा का स्वार्थ-जिसे परमार्थ कहते हैं पूर्ण करने पर ही आत्मिक भूमिका स्थिर रहती है। व्यायाम तो बड़े कठोर किये जाएं पर आहार विहार की अव्यवस्था हो तो वह व्यायाम शरीर को अभीष्ट लाभ नहीं दे सकता इसी प्रकार कोई व्यक्ति पूजा पाठ तो खूब करता हो पर जन कल्याण से लोक सेवा से उदासीन हो तो उसकी साधना एकाँगी, अपूर्ण, अधूरी एवं असफल ही रहेगी। जिस प्रकार गाड़ी के दो पहिये होते हैं, एक पहिये का रथ नहीं चलता उसी प्रकार आत्म कल्याण के लिए आत्मावलम्बन तथा आत्म सिंचन दोनों की ही आवश्यकता है। आत्म कल्याण रूपी पौधे के लिए एक को खाद कहा जा सकता है तो दूसरे को पानी दोनों की ही समान उपयोगिता है। पर खेद यह है कि आज सर्वत्र एकाँगी लंगड़ी दौड़ हो रही है। सार्वजनिक सेवा के लिये उत्साह रखने वाले, ईश्वर उपासना की ओर ध्यान नहीं देते उसे अनावश्यक समझते हैं। इसी प्रकार साधनारत व्यक्ति लोकहित की भावना को तिलाँजलि देकर केवल अपनी इष्ट सिद्धि, स्वर्ग, मुक्ति आदि की बात सोचते रहते हैं। प्राचीन काल के सभी ऋषि मुनि, सत्पुरुष, महात्मा ज्ञानी इन दोनों ही कार्यों को समान रूप से महत्व देते थे। तभी वे अभीष्ट परिणाम प्राप्त करने में सफल होते थे।

यों सभी ऋषि कोई न कोई परमार्थिक कार्य अपनी साधना के साथ अवश्य करते रहते थे पर कुछ ऋषियों का उदाहरण तो ऐसा है कि उन्होंने लोक सेवा को ही अपनी सर्वोपरि साधना बना लिया था। साधारण दैनिक नित्य नियमित उपासना के अतिरिक्त वे अपना अधिकाँश समय लोकहित के लिये ही लगाते थे। समय की पुकार के कारण सत्पुरुषों को अनेक बार ऐसे ही कार्यक्रम बनाने पड़ते हैं। मुहल्ले में आग लगे तो सब लोग अपना आवश्यक कार्य छोड़ कर उसे बुझाने दौड़ते हैं ताकि वह आग अन्य घरों को नष्ट करती हुई उनके घर को भी स्वाहा न कर दे। अधिक विकृत समय की भी ऐसे ही अग्निकाण्ड से तुलना की जाती है। ऐसी विपन्न परिस्थितियों में ऊँची आत्माएं अपने कार्यक्रम में ईश्वर की प्रेरणा से हेर-फेर करती हैं। वे साधना उपासना को साधारण सीमा तक रख कर लोक में फैली हुई बुराइयों के लिये कटिबद्ध हो जाती हैं। श्री शंकराचार्य जी ने अपना पूरा समय ज्ञान प्रसार के लिये दर-दर भटकते रहने में लगाया। भगवान शंकर ने उन्हें स्वयं यह आदेश दिया था कि तुम समाधि लगाने में नहीं संसार से अज्ञान मिटाने की साधना करो। स्वामी दयानन्द सरस्वती हिमालय की कन्दराओं में साधना करने जा रहे थे तो उनको दैवी सन्देश प्राप्त हुआ कि लोग अज्ञान में डूबे हुये हैं उनको ज्ञान देने में लगो आज के समय यही तपस्या सर्वश्रेष्ठ है। भगवान बुद्ध ने कठोर तप किया तो उन्हें अन्तः प्रेरणा हुई कि संसार में बुद्धत्व का प्रकाश करो, वे अपनी तपोभूमि छोड़ कर प्रवचन करते हुए भ्रमण करने लगे। भगवान महावीर ने भी यही किया भीम ने राज महल छोड़कर अपना स्थान भक्तजनों के बीच बनाया सूत शौनक तो सदा कथा प्रवचन ही करते रहते थे। व्यास जी का पूरा जीवन सत् साहित्य निर्माण करते रहने में ही व्यतीत हो गया। देवर्षि नारद का सबसे ऊँचा पद इसलिए मिला कि अन्य ऋषि जहाँ व्यक्तिगत शक्ति सम्पादन के लिए नाना प्रकार की योग साधनाओं में अधिक समय लगाते थे वहाँ नारद जी उस ओर अधिक ध्यान न देकर आत्मशक्ति के प्यासे संसार पर अमृत वर्षा करने के लिए निरन्तर भ्रमण करते रहने का महान् संकल्प लेकर उस पुनीत कार्य में सर्वतोभावेन जुट गये। भगवान ने उनकी यह उत्कृष्ट परमार्थ भावना निस्वार्थता, करुणा, सहृदयता देखी तो अत्यधिक प्रसन्न हुए और उन्हें देवर्षि माना तथा यह विशेष छूट दी कि वे किसी भी समय बे रोक-टोक सशरीर भगवान के लोक में जा सकते थे। यह सौभाग्य और किसी ऋषि या देवता को प्राप्त न था क्योंकि उतनी उत्कृष्ट परमार्थ भावना भी और किसी की न थी।

साधारण शान्ति के समय में आमतौर से ऊंची आत्माएं बहुधा एकान्तिक शान्तिमयी साधनाओं में अधिक समय लगाती हैं पर जब संसार की परिस्थितियाँ विपन्न होती हैं, लोग कुमार्ग गामी हो जाते हैं, तो बुराई के आक्रमण से भलाई की रक्षा करने के लिये वे लोग लोक कल्याण के प्रयत्नों को ही साधना मान लेते हैं और उस कार्य में वैसी ही श्रद्धा तथा तत्परता पूर्वक संलग्न होते हैं। जैसे कोई हठयोगी अपनी कष्टसाध्य तपस्या में पूर्ण तन्मयतापूर्वक लग जाता है। समय-समय पर अनेकों योगी, महापुरुष, देवदूत, अवतार इस युग धर्म का अनुसरण करके लोग सेवा के लिए कटिबद्ध होते रहे हैं। इसमें उनकी करुणा, दया, सेवा भावना आदि महात्माओं का प्रकाश तो होता ही है साथ ही लाभ की दृष्टि से भी वे एकान्त सेवी साधकों से किसी भी प्रकार घाटे में नहीं रहते। शास्त्रों में बताया गया है कि-अन्नदान, वस्त्रदान, गौदान, स्वर्णदान आदि जितने भी दान संसार में है उन सबसे हजार गुना अधिक पुण्य फल ज्ञानदान का होता है। यह भी लिखा है कि-किसी की प्रेरणा से कोई व्यक्ति यदि सत्मार्गगामी होता है तो उसके पुण्य का दसवाँ भाग उस प्रेरक को भी प्राप्त होता है। इस प्रकार यदि कोई व्यक्ति अनेक व्यक्तियों को सन्मार्गगामी बनाने के कार्य में प्रवृत्त हो जाय तो उन लोगों के सुकृतों का दशांश पाकर इतना अधिक पुण्य लाभ कर सकता है जितना अपनी अकेली साधना से किसी भी प्रकार सम्भव न होता। बीमा कम्पनी के एजेन्टों को एक रिन्यूअल कमीशन मिलता है। बीमेदार का बीमा जब तक चलता रहेगा तब तक उस बीमे को कराने वाला एजेन्ट घर बैठे अपना कमीशन बीमा कम्पनी से पाता रहेगा। शुभ कर्मों में दूसरों को प्रेरित करना भी एक प्रकार की बीमा एजेन्सी लेना है, इसमें एक बार का प्रयत्न, चिरकाल तक पुण्य लाभ कराते रहने वाला फलदार वृक्ष सिद्ध होता है।

अपने परिवार के आत्म-कल्याण प्रेमियों को हम दोनों की सलाह देते रहते हैं। आत्मावलम्बन के लिए गायत्री उपासना, जप, ध्यान, पुरश्चरण आदि की साधना करनी चाहिए और आत्म सिंचन के लिए अपने- अपने क्षेत्र में ज्ञान प्रसार का कोई न कोई कार्य अवश्यमेव करते रहना चाहिए। हमें हमारे जीवन के लिए भी यही कार्यक्रम अपनाने का दैवी आदेश हुआ है तद्नुसार हम निष्ठापूर्वक एक स्थिर कार्यक्रम में संलग्न हैं। हमारे परिजनों के लिए भी यही मार्ग श्रेयस्कर हो सकता है। आज चारों और और अज्ञान फैला हुआ है, कुविचारों और कुकर्मों की बाढ़ आई हुई है। धन की तृष्णा और इन्द्रिय लिप्सा सुरसा के मुख की तरह बढ़ती जा रही है। इन प्रवृत्तियों की रोक थाम करने के लिए जनता की अन्तरात्मा में प्रसुप्त पड़ी हुई सद्भावनाओं को जगाना पड़ेगा। इस जागरण का शंखनाद करने के लिए सद्भावनायुक्त सत्पुरुषों की बड़ी भारी आवश्यकता है। आज की स्थिति में इस युग धर्म के लिए, समय की पुकार के लिए अपना समय देना गुफाओं में रह कर योग साधना करने से किसी भी प्रकार कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है। गायत्री माता और यज्ञ पिता की उपासना के साथ भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिये काम करने का कार्यक्रम ऐसा है जिसमें आत्मावलम्बन और आत्मसिंचन के दोनों उद्देश्य पूर्ण होते हैं और अपना तथा संसार का भला करते हुये जीवन लक्ष प्राप्त करने का मार्ग सरल होता है।

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