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Magazine - Year 1954 - Version 2

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हमारी शक्ति के दो प्रमुख आधार

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भारत भूति की प्रसुप्त अंतरात्मा को जगाने के लिए हमें जो कार्य करने हैं उनमें ज्ञान और विज्ञान की प्रतिष्ठापना करना सर्वप्रथम कार्य है। ज्ञान और विज्ञान इन दोनों के बल पर ही कोई व्यक्ति या राष्ट्र उन्नति कर सकता है। जब इन दोनों में से एक की भी कमी हो जाती है तो अधः पतन आरम्भ हो जाता है। ज्ञान का अर्थ है-विद्या, बुद्धिमत्ता, विवेक, दूरदर्शिता, सद्भावना, उदारता, न्यायप्रियता। विज्ञान का अर्थ है-बल, योग्यता, साधन, शक्ति सम्पन्नता, शीघ्र सफलता प्राप्त करने की सामर्थ्य। आत्मिक और भौतिक दोनों ही क्षेत्रों में जब सन्तुलित उन्नति होती है तभी उसे वास्तविक विकास माना जाता है। प्राचीन काल में भारत भूमि इन दोनों से ही परिपूर्ण थी। साधारण जनता से लेकर राजपरिवारों तथा ऋषि आश्रमों में ज्ञान और विज्ञान की समुचित प्रतिष्ठा थी। राजकुमार भी ऋषियों के आश्रमों में जाकर ज्ञान प्राप्त करते थे और विज्ञान की रहस्यमय नाना कलाओं से अभिज्ञ बनते थे। दिव्य शास्त्रों, दिव्य वाहनों, दिव्य सामर्थ्यों के आश्चर्यजनक वर्णन प्राचीन इतिहास पुराणों में भरे पड़े हैं। ऋषि लोग आत्म चिन्तन में, परमार्थ साधनाओं में संलग्न रहते थे तो भी उनको अष्टसिद्धि नवनिद्धि सरीखी लोकोत्तर शक्तियाँ उपलब्ध रहती थीं। भारत प्राचीन काल में बुद्धिमान भी और बलवान भी था। वह बुद्धिमान बनने के लिए ज्ञान की और बलवान बनने के लिए विज्ञान की उपासना करने में सदैव संलग्न रहता था। योगी लोग जहाँ भक्ति भावना द्वारा भगवान में संलग्न होते थे वहाँ नानाप्रकार की कष्ट साध्य साधनाओं तथा तपश्चर्याओं द्वारा अपने में अनेक प्रकार की सामर्थ्य भी उत्पन्न करते थे। भावना से भगवान और साधना से शक्ति प्राप्त होती है यह निर्विवाद है।

आज का ज्ञान प्रत्यक्ष दृश्यों, अनुभवों तथा विज्ञान मशीनों पर अवलम्बित है। भौतिक जानकारी तथा शक्तियाँ प्राप्त करने के लिए भौतिक उपकरण ही आज के वैज्ञानिक प्रयोग कर रहे हैं। यह तरीका बहुत खर्चीला, श्रमसाध्य, स्वल्प फलदायक एवं अचिर स्थायी है। जो ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, प्रोफेसरों, रिसर्च स्कालरों द्वारा उत्पन्न किया जा रहा है। वह भौतिक जानकारी तो काफी बढ़ा देता है पर उससे अंतःकरण में आत्मिक महानता, उदार दृष्टि तथा लोक सेवा के लिए आत्म त्याग करने की भावना पैदा नहीं होती। आज का तथा-कथित ज्ञान मनुष्य को अधिक स्वार्थी, धूर्त, खर्चीला एवं बनावट पसन्द बनाता जा रहा है। दूसरी ओर जो वैज्ञानिक उन्नति हो रही है उससे एक ओर जहाँ थोड़ा सा लाभ होता है। दूसरी उससे अधिक हानि हो जाती है। रासायनिक खाद देकर खेती की पैदावार बढ़ाई जा रही है पर इस प्रकार के खाद से जो खाद्य पैदा होता है उसमें उनके हानिकारक तत्व रहते हैं जो स्वास्थ्य को बिगाड़ते हैं। कल कारखानों में वस्तुएं बड़ी मात्रा में तैयार होती हैं पर उनके धुएं से शोर से वहाँ काम करने वालों पर तथा निकटवर्ती लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसकी हानि का अन्दाजा लगाया जाय तो उसकी हानि भी कम भयंकर नहीं है। वैज्ञानिक चिन्तित हैं कि एक शताब्दी के भीतर पत्थर का कोयला, जलाऊ तेल, पैट्रोल आदि पृथ्वी के भरे हुए इंधन समाप्त हो जायेंगे तब आज की मशीनें बिल्कुल बेकार हो जायेंगी। बिजली बनाने के स्त्रोत भी दिन-दिन सूखते जाएंगे और अणु विस्फोट से यदि अधिक शक्ति पैदा की जाने लगी तो उसका प्रभाव वायुमण्डल पर बुरा होगा कि रेडियो सक्रिय तरंगे बढ़ जाने के कारण प्राणियों के स्वास्थ्य नष्ट हो जाएंगे। इस प्रकार आज का विज्ञान या तो अगली शताब्दी में अपनी मौत आप मर जायेगा या फिर समस्त मनुष्य जाति को ही अपने साथ ले बैठेगा।

प्राचीन काल में ज्ञान और विज्ञान के आधार आज से भिन्न थे। आज जिस प्रकार हर वस्तु जड़ जगत में से, भौतिक परमाणुओं में से खोजी जाती और उपलब्ध की जाती है उसी प्रकार प्राचीन काल में प्रत्येक बात, प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक विद्या, प्रत्येक शक्ति आत्मिक जगत में से ढूँढ़ी जाती थी। आज का आधार भौतिकता है। प्राचीन काल का आधार आध्यात्मिकता था। विज्ञान का यह सर्वविदित तथ्य है कि जितना कुछ पदार्थ प्रत्यक्ष रूप से दृष्टिगोचर हो रहा है-स्थूल है। उसकी अपेक्षा असंख्यों गुना वही पदार्थ अदृश्य-सूक्ष्म रूप से इस अखिल आकाश में भ्रमण करता रहता है। पृथ्वी पर यदि सौ मन पानी भरा माना जाय तो आकाश में करोड़ों मन पानी हर समय अदृश्य रूप से भी घूमता हुआ माना जायेगा। हमारा विचार और संकल्प भी एक पदार्थ है। इस पदार्थ में एक विशेष प्रकार की चुम्बक शक्ति उत्पन्न की जा सकती है और उसकी सहायता से अदृश्य जगत में भ्रमण करते रहने वाले किन्हीं विशेष पदार्थों के परमाणुओं को खींचकर अपनी ओर लाया जा सकता है। विज्ञान के इस आधार को पकड़ कर ऋषियों ने यह देखा कि जब सृष्टि के सभी पदार्थों के अणु अपने से उपयोगी अणुओं को अदृश्य जगत में से खींच कर अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेने का प्रयोजन सिद्ध क्यों न किया जाय? उन्होंने इसी आधार पर विज्ञान की खोज की और अपने शरीर तथा मन में छिपी हुई नानाप्रकार की शक्तियों को विविध साधनाओं द्वारा जागृत किया। फलस्वरूप उनकी पकड़ने की शक्ति इतनी बलवान हो गई कि जिस प्रकार सारस अपनी लम्बी गर्दन पानी में डुबो कर चाहे जहाँ से मछली पकड़ लेता है उसी प्रकार वे आकाश क्षेत्र में से नाना प्रकार की वस्तुएं, सामर्थ्य तथा शक्तियाँ पकड़ लेते थे। भारत में प्राचीन काल में मन्त्र-तन्त्र मशीनें न थी पर उससे अधिक उपकरण प्राप्त थे जितने आज मशीन वालों को प्राप्त है।

ज्ञान की शोध भी इसी आधार पर थी जिस आधार पर भौतिक पदार्थों के लिये उपलब्ध होती थी। असंख्य प्रकार की जानकारियाँ इस सृष्टि के सूक्ष्म अन्तराल में छिपी हुई हैं, अपने मस्तिष्क में उसी प्रकार के सूक्ष्म केन्द्र मौजूद हैं। यदि उन मस्तिष्कीय अणुओं को विशिष्ट योग साधनाओं से जागृत कर लिया जाय तो ये सब बातें ज्ञात हो सकती हैं जो सर्वसाधारण के लिए गुप्त एवं अविज्ञात है। ऋषि लोग जंगलों में रहते थे, वहाँ कोई साधन सामग्रियाँ तथा प्रयोगशालाएं भी नहीं होती थीं, फिर भी वे अनेक विद्याओं, ग्रहों तथा लोक लोकान्तर की रहस्यमय स्थितियों को भली प्रकार जान लेते थे। आज के ज्ञान उपासक बहुत भारी साधना सामग्री तथा सुविधाएं उपलब्ध होने पर भी बहुत ही थोड़ी, अधूरी एवं अप्रमाणिक जानकारी उपलब्ध करने में समर्थ हो पाते हैं।

ज्ञान और विज्ञान की हमारी प्राचीन शोध गायत्री और यज्ञ के आधार पर होती थी। क्योंकि यही दोनों आध्यात्म विद्या के माता पिता हैं। गायत्री ज्ञान रूपिणी है यज्ञ विज्ञान का प्रतीक है। गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों में मनुष्य जाति का ठीक प्रकार पथ प्रदर्शन करने वाली शिक्षाएं तो भरी हुई हैं ही इसके अतिरिक्त उन अक्षरों का गुन्थन रहस्यमयी विद्या के रहस्यमय आधार पर भी है। इन 24 अक्षरों का यदि शास्त्रोक्त उपासना विज्ञान के अनुसार उपयोग किया जाय तो शरीर और मन में भरी हुई अनेकों अलौकिक शक्तियाँ अपने-अपने ढंग से अपने-अपने समय पर स्वयमेव उद्भूत होती आती हैं। आध्यात्मिक गुणों की तेजी से अभिवृद्धि होती है, बुद्धि तीव्र होती है तथा ऐसी दूरदर्शिता का विकास होता है जिसके आधार पर जीवन समस्या की अनेक गुत्थियों को सरल किया जा सके।

यज्ञ का विज्ञान अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। वेद मन्त्रों की शब्द शक्ति को-विशिष्ट, कुण्डों, समिधाओं, हवियों, चरुओं के साथ उत्पन्न की हुई विशेष सामर्थ्यवान अग्नि के सम्मिश्रित कर देने पर एक रेडियो सक्रिय शक्ति तरंगों का आविर्भाव होता है। यह शक्ति तरंगें रैडार यन्त्र की तरह संसार के किसी भी भाग में खोजी जा सकती हैं, किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में भरी जा सकती हैं, प्रकृति के गुह्य गह्वर में किसी विशेष प्रयोजन के लिए प्रविष्ट कराई जा सकती हैं। वर्षा, धान्य, दूध, ओज, आरोग्य, प्राण, जीवन आदि की पृथ्वी पर अभिवृद्धि कराने के लिये उनका उपयोग किया जा सकता है। भावनाओं, विचारधाराओं तथा परिस्थितियों के परिवर्तन के लिये यज्ञ से उत्पन्न शक्तियों का उपयोग हो सकता है। इस प्रकार के अगणित कारण और लाभ हैं जिनके कारण यज्ञ को एक अत्यन्त आवश्यक प्रक्रिया माना गया है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक पर्व, उत्सव, पूजन, कर्मकाण्ड, व्रत, संस्कार, त्यौहार, उपासना, साधन यज्ञ के साथ ही होता है। प्रसूतिग्रह में अखण्ड अग्नि की स्थापना के साथ हिन्दू बालक का जन्म होता है और जीवन लीला समाप्त होने पर यज्ञ भगवान को अंत्येष्टि संस्कार के साथ शरीर सौंप दिया जाता है। यज्ञ को इतना महत्व ऋषियों ने इसीलिए दिया था कि वह न केवल अनेकों भौतिक शक्तियों को देने वाला है वरन् आत्मा का कल्याण करने वाला-शरीर और मन को निर्मल निर्विकार बनाकर शान्तिदायक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने वाला भी है।

साँस्कृतिक पुनरुत्थान के लिए हमें ज्ञान और विज्ञान की आवश्यकता होगी। इसके बिना वह महान कार्य सम्पन्न न हो सकेगा। भारतीय संस्कृति का बीज मन्त्र गायत्री है। उसी की शिक्षाओं तथा शक्तियों के आधार पर तो हमारा सारा ढांचा खड़ा हुआ है। अग्नि के समान तथा तेजस्वी रहना और यज्ञ के समान परमार्थ प्रयोजन के लिए जीवित रहना यही तो हिन्दू जीवन का आदर्श है। भौतिक माता पिता हमें शरीर, संपत्ति, शिक्षा, सुविधा, आश्रय, सहयोग, स्नेह आदि बहुत कुछ देते हैं। गायत्री माता और यज्ञ पिता का यदि हम तिरस्कार न करें तो इनके द्वारा हम और भी ऊँची उत्तम एवं महत्व पूर्ण वस्तुएं प्राप्त कर करते हैं।

अब समय आ गया है कि हम व्यक्तिगत स्वार्थपरता से ऊँचे उठकर सामूहिक साँस्कृतिक विकास के ऐसे कार्यक्रमों में संलग्न हो जिनसे हमें फिर प्राचीन गौरव प्राप्त हो सके। ऐसे अनेकों कार्यक्रम हो सकते हैं पर उनमें गायत्री और यज्ञ की महत्ता की जानकारी जनता को कराना थी एक महत्वपूर्ण कार्य होगा। क्योंकि इन दोनों से उस ज्ञान विज्ञान का अटूट सम्बन्ध है जिस पर हमारा साँस्कृतिक हवन खड़ा हो सकता है।

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