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Magazine - Year 1954 - Version 2

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अतीत को वापिस लाने का स्वप्न

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धर्म, शिक्षा, न्याय, सभ्यता, विज्ञान कला आदि मानव जीवन की आवश्यक प्रवृत्तियों की जन्मभूमि यह भारत भूमि है। ज्ञान विज्ञान का सर्वप्रथम उद्भव यहाँ से हुआ है। ऋग्वेद संसार की आदि पुस्तक मानी जाती है। समस्त भूमण्डल के लिए ज्ञान विज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करने और फैलाने वाला यह भारत ही है। पशु को मनुष्य बनाने वाली जिस सभ्यता और संस्कृति का उद्भव यहाँ हुआ। वह किसी देश, जाति, धर्म, सम्प्रदाय, वर्ग या समाज के लिए नहीं, वरन् समस्त संसार के लिए है। भारतीय सभ्यता-मानवता की, समस्त मनुष्य जाति की अत्यन्त ही विवेक एवं दूरदर्शिता से भरी हुई जीवन पद्धति है। इसे अपनाने पर मनुष्य अगणित प्रकार की असुविधाओं, विकृतियों, और बुराइयों से बच कर सुख, समृद्धि, सफलता और सद्गति का अधिकारी बनता है। तत्वदर्शी ऋषियों ने इसी दृष्टि से अनेक प्रकार के आदर्श, नियम, प्रतिबन्ध, रीति रिवाज, आचार विचार विनिर्मित किये थे। इनमें अन्धविश्वास या मूढ़ परम्परा के लिए रत्ती भर भी स्थान नहीं है। यह समस्त साँस्कृतिक ढांचा मानव जाति के कल्याण को ध्यान में रखकर ही खड़ा किया गया है। इसकी एक-एक ईंट विज्ञान, तत्वज्ञान और दूरदर्शिता से परिपूर्ण है।

आदर्श सिद्धान्त और मान्यताएं जो भारतीय संस्कृति में है वे मनुष्य के लक्ष्य, उद्देश्य और कार्य क्रम को देवत्व की ओर ले जाने वाली हैं। उन्हें अपना लेने के बाद मनुष्य ऊँचा ही उठता है नीचे नहीं गिरता। इस सर्वांगीण उत्कर्ष को चारों ओर से मजबूत बनाने, प्रोत्साहित करने के लिए लोकाचार के अनेकों समाजिक कार्यक्रम, विधान एवं व्यवहार बनाये गये हैं। इनका प्रयोजन भौतिक विज्ञान एवं मनोविज्ञान के आधार पर मनुष्य के गुण, कर्म, स्वभाव, विचार एवं आचरण को देवत्व की ओर अग्रसर करना है। ऊँचे आदर्श और जीवनयापन के प्रभावशाली तरीके इन दोनों का सम्मिश्रण ही मनुष्य को महानता की ओर ले जाता है। ऋषियों ने ऐसी ही व्यवस्था बनायी थी और उसी के आधार पर तुच्छ मानव प्राणी को महापुरुष के उच्च स्थान तक ले जाने में वे सफल हुए थे। इस प्रयोग का नाम ही भारतीय संस्कृति है।

जब भारतीय संस्कृति का लोग महत्व समझते थे, उस पर विश्वास करते थे, उसको आचरण में लाते हुए अपना गौरव समझते थे, तब इस देश में घर-घर महापुरुष उत्पन्न होते थे। भौतिक समृद्धि और सामाजिक सुख शान्ति की कमी न थी। इस संस्कृति के ढांचे में ढले हुए नर रत्न अपने प्रकाश से समस्त संसार में प्रकाश उत्पन्न करते थे और उसी आकर्षण के कारण विश्व की जनता उन्हें जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं भू सुर-पृथ्वी के देवता मानती थी। यह देश स्वर्ग की अपेक्षा भी श्रेष्ठ समझा जाता था। अतीत का इतिहास इस तथ्य का मुक्त कण्ठ से उद्घोष कर रहा है।

भारतीय संस्कृति के प्रभाव से प्रभावित प्रत्येक परिवार में स्वर्गीय शान्ति एवं सद्भावनाओं का निवास रहता था। पिता और पुत्र के बीच कैसे सम्बन्ध थे इसका उदाहरण देखना हो तो विमाता की आज्ञा से 14 वर्ष के लिए वनवास जाने वाले राम, अन्धे माता पिता को कन्धे पर काँवर में बिठाकर तीर्थ यात्रा कराने वाले श्रवण कुमार, पिता के दान करने पर यमपुर खुशी से प्रस्थान करने वाले नचिकेता का चरित्र पढ़ लेना चाहिये। भाई का भाई के प्रति क्या कर्त्तव्य है इसकी झाँकी राम, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पढ़ लेने से सहज ही हो जाती है। कौरवों को जब यक्षों ने बन्दी बना लिया तो युधिष्ठिर ने भ्रातृ प्रेम के वशीभूत होकर उन्हें छुड़वाया। पुष्कर के दुर्व्यवहार को भुलाकर नल ने अपने भाई को क्षमा ही कर दिया। ऐसे भ्रातृ प्रेम के उदाहरण पग-पग पर मिलेंगे। सच्चे मित्र कैसे होते हैं, यह कृष्ण ने सुदामा और अर्जुन के साथ अपना कर्त्तव्य पालन करके दिखाया था।

पति पत्नी के बीच कैसे सम्बन्ध होने चाहिए इसके उदाहरण पत्निव्रती पुरुष और पतिव्रता नारियों के पग-पग पर उपस्थित किये हैं। सीता, सावित्री, शैव्या, दमयन्ती, गाँधारी, अनुसूया, सुकन्या आदि की कथाएँ घर-घर गाई जाती हैं। पर स्त्री को माता एवं पुत्री समझने वाले भी सभी कोई थे। शिवाजी द्वारा, यवन कन्या को सुरक्षित रूप से सम्मानपूर्वक राजमहल में पहुँचा देना, अर्जुन का उर्वशी को लौटा देना, कच का रूपगर्विता देवयानी का प्रस्ताव अस्वीकार करना, सूर्पणखा का लक्ष्मण द्वारा उपहास करना जैसे अखण्ड ब्रह्मचारी प्रचुर संख्या में परिलक्षित होते थे।

अतिथि सत्कार के लिए मोरध्वज का अपना पुत्र दे देना, भूखे बहेलिये के लिये कबूतर कबूतरी को अपना शरीर दे देना, दुर्भिक्ष पीड़ित समय में अनेक दिनों से भूखे ब्राह्मण परिवार का अपनी थाली की रोटियां चाण्डाल को दे देना आदि अनेकों वृत्तांत महाभारत में देखे जाते सकते हैं। शरणागत कबूतर की रक्षा के लिये राजा शिवि ने अपना माँस काट कर दे दिया था। कुन्ती ने ब्राह्मण कुमार के बदले अपने पुत्र भीम को राक्षस का आहार बनने के लिये भेजा था।

अपने स्वार्थ, सुख-साधन, धन सम्पदा संग्रह, ऐश आराम को लात मार कर अपनी आत्मा का कल्याण करने के निमित्त लोक सेवा और परमार्थ में जीवन व्यतीत करने में यहाँ के लोग अपने जीवन की फलता मानते रहे हैं। गौतम बुद्ध अपने राजपाट और सुख सौभाग्य को छोड़कर हिंसा और अज्ञान में डूबे हुए संसार को दया और आत्म ज्ञान की शिक्षा देने के लिए निकल पड़े। महावीर ने लालची और विषयासक्त दुनिया को त्याग और संयम का पाठ पढ़ाने के लिए अपना जीवन उत्सर्ग किया। भागीरथ ने राज सुख को छोड़कर दीर्घकाल तक कठोर तप किया और प्यासी पृथ्वी को तृप्त करने के लिए तरण तारणी गंगा का अवतरण कराने का महान कार्य सम्पादन किया। नारदजी कुछ घड़ी भी एक स्थान पर न ठहर कर आत्म ज्ञान का प्रसार करने के लिए हर घड़ी पर्यटन करते रहते थे, व्यास जी ने संसार को धर्मज्ञान देने कि लिए अष्टादश पुराणों की रचना की। आदि कवि वाल्मीकि ने रामायण की रचना करके मानव जाति को कर्त्तव्य पथ पर चलने के लिए अग्रसर किया। चरक, सुश्रुत, बाणभट्ट, धन्वन्तरि, प्रभृत ऋषियों ने जीवन भर जड़ी बूटियों, धातुओं, विषों आदि का अन्वेषण करके रोगग्रस्त पीड़ितों का दुख करने के लिए सर्वांगपूर्ण चिकित्सा शास्त्र का आविर्भाव किया। ज्योतिष विद्या की महान खोज, आकाशस्थ ग्रह नक्षत्रों की गतिविधियों और उनका मनुष्य जाति पर जो प्रभाव पड़ता है उसकी खोज करने वाले वे ऋषि ही थे। सूर्य सिद्धान्त, मरकन्द, प्रह्लाद आदि को देखने से आश्चर्य होता है कि उस समय बिना वैज्ञानिक यन्त्रों के इस प्रकार की शोध करके संसार को महान ज्ञान देने के लिए उन्हें कितना श्रम करना पड़ता होगा।

सदा अपने को तप से तप्त करके अपनी महान सेवाएँ विश्व मानव के उत्कर्ष में लगाने वाले ऋषियों की जीवनियाँ पढ़ने पर मनुष्य की अन्तरात्मा उनके चरणों पर लौट जाने को करती है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, जन्मदग्नि, कश्यप, भारद्वाज, कपिल, कणाद, गौतक, जैमिनी, पाराशर, याज्ञवलक्य, शंक, कात्यायन, गोमिल, पिप्लाह, शुकदेव, श्रंगी, लोमश, धौम्य, जरुत्कार, वैशम्पायन आदि ऋषियों ने अपने को तिल-तल जलाकर संसार के लिये वह प्रकाश उत्पन्न किया जिसकी आभा अभी तक बुझ नहीं सकी है। सूत और शोनक निरन्तर प्राचीन काल के महापुरुषों की गाथाएँ, विरुदावलियाँ धर्मचर्चाएँ सुना-सुना कर मानव जाति की सुप्त अन्तरात्माओं को जगाया करते थे। दधीचि ने असुरत्व से देवत्व की रक्षा के लिए अपनी हड्डियां ही दान कर दीं। धर्म की मर्यादा की रक्षा के लिये बन्दा वैरागी खौलते तेल के कढ़ाव में प्रसन्नतापूर्वक कूद पड़ा। हकीकततराय के कत्ल, गुरु बालकों के जीवित दीवारों में चुन जाने की कथाएँ आज भी धर्म कर्त्तव्य की उपेक्षा करके धन संग्रह और इन्द्रिय भोगों में लगे हुए लोगों पर देती हुई आकाश में विहार कर रही है।

आज अधिकाँश पण्डित, पुरोहित, साधू, ब्राह्मण आदि संसार को मिथ्या बताते हुए मुक्त का माल चरते रहते हैं और आलस्य प्रमाद से चित्त हटा कर संसार का बौद्धिक स्तर ऊँचा उठाने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करते पर भारतीय संस्कृति की परम्परा इसके सर्वथा भिन्न रही है। साधुता और ब्राह्मणत्व आदर्श दूसरा ही है। शंकराचार्य, कुमारिल भट्ट, सिख धर्म के दस गुरु, दयानन्द, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, रामदास, चैतन्य, कबीर, विवेकानन्द, रामतीर्थ आदि असंख्यों धर्मगुरु लोक हित के लिए जीवन भर घोर परिश्रम प्रयत्न और परिभ्रमण करते रहे। उन्होंने लोक सेवा को एकान्त मुक्ति से अधिक महत्व दिया। भगवान बुद्ध जब अपनी जीवन लीला समाप्त करने लगे तो उनके शिष्यों ने पूछा-आप तो अब मुक्ति के लिये प्रयाण कर रहे हैं। बुद्ध ने उत्तर दिया-जब तक संसार में एक भी प्राणी बन्धन में बँधा हुआ है तब तक मुझे मुक्ति की कोई कामना नहीं है। मैं मानवता का उत्कर्ष करने के लिए बार-बार जन्म लेता और मरता रहूँगा। स्वामी दयानन्द सरस्वती भी योग साधना करने हिमालय में गये थे पर उन्हें वहाँ ईश्वरीय प्रेरणा हुई कि लोक सेवा ही सर्वोत्तम योग साधना है। स्वामी जी तपस्या से लौट आये और अज्ञान ग्रस्त जनता में ज्ञान प्रसार करने को ही अपनी साधना मानते हुए जीवन समाप्त कर दिया। शंकराचार्य और दयानन्द अपने इस महान त्याग के उपलक्ष्य में विषपान करके स्वर्ग सिधारे। गाँधी जी ने जीवन भर ऐसा ही तप करके महात्मा शब्द को सार्थक किया। लोकमान्य तिलक और महामना मालवीय जैसे व्यक्तियों का चरित्र ही पण्डित शब्द का वास्तविक प्रमाण है। गुरु कैसे होते हैं यह कामना हो तो गुरु गोविन्द सिंह आदि सिखों के दश गुरुओं का चरित्र पढ़ना चाहिये। शिष्य भी तब ऐसे ही होते थे एकलव्य आरुणि, उद्दालक, धोक्य, नचिकेता आदि शिष्यों के चरित्र पढ़ने से अपनी संस्कृति पर सहज ही गर्व होने लगता है।

भारतीय संस्कृति में पले हुए राजा कैसे होते थे इसका उदाहरण राजा जनक के जीवन से मिल सकता है। वे अपने गुजारे के लिये स्वयं खेती करते थे और राज्य कोष से एक पाई भी अपने लिए न लेकर उसे जनता के निमित्त ही खर्च करते थे। जनक को अपना खेत जोतते समय हल की नोक की उचाट से एक कन्या मिली थी, हल की नोक को संस्कृति में सीता कहते हैं, इसलिए जनक ने अपने खेत में मिली हुई इस कन्या का नाम भी सीता रखा था। महर्षि विश्वामित्र को जब किसी यज्ञीय (लोक हितकारी) कार्य के लिए धन की आवश्यकता पड़ी तो राजा हरिश्चन्द्र ने समस्त राज्य कोष ही दान नहीं कर दिया वरन् अपने तथा अपने स्त्री-बच्चों के शरीर को बेच कर भी उसकी पूर्ति की और एक सच्चे राज का आदर्श उपस्थित किया। छत्रपति शिवाजी का विशाल राज्य था उसे उन्होंने समर्थ गुरु रामदास के चरणों में अर्पित कर दिया था और स्वयं गुरु की आज्ञानुसार एक मुनीम की तरह इसका संचालन करते थे। भारत भी राम की चरण पादुकाओं को शासक मानकर स्वयं एक तुच्छ सेवक की भाँति 14 वर्ष राज्य चलाते रहे। धौलपुर की राजगद्दी के मालिक नृसिंह भगवान और मेवाड़ की राजगद्दी के मालिक भगवान एकलिंग जी माने जाते थे। पीछे यद्यपि यह बात दिखावा मात्र रह गई, पर आरम्भ में यह त्याग भी उसी शृंखला का एक प्रतीक अवश्य था। विक्रमादित्य प्रजा की वास्तविक स्थिति जानने के लिए वेश बदले प्रजाजनों के बीच घूमता रहता था। राणा प्रताप राजसुख की परवाह न करके जीवन भर स्वाधीनता संग्राम में धर्म युद्ध लड़ते रहे। महान राजपुत्र दुर्गादास राठौर को लड़ाई में रोटी भी नसीब नहीं हो पाती थी तो वह घोड़े पर चढ़ा हुआ भाले की नोंक में छेद कर भुट्टे भून खाता था और स्वाधीनता संग्राम लड़ता रहता था। छत्रसाल की गाथा सर्वविदित है। ऐसे होते थे यहाँ के शासक! राज्यों के मन्त्री प्रधान मन्त्री कैसे होते थे उसका नमूना चाणक्य का जीवन है। यह विश्व का अभूतपूर्व कूटनीतिज्ञ एवं घास-फूँस की झोपड़ी में गरीब लोगों की भाँति रहता था और राज्य कोष से अपने व्यय के लिये कुछ भी नहीं लेता था।

धन सम्पत्ति जिनके पास होती थे वे उसे सात पीड़ियों के लिए तिजोरी में बन्द नहीं करते थे वरन् तात्कालिक लोक हित के लिये उसे मुक्त हस्त से दान करते रहते थे। राजा कर्ण का दान वीरता प्रसिद्ध है। कहते है कि वे सवा मन स्वर्ण रोज दान करते थे। कृष्ण ने जब उनकी दान वीरता की परीक्षा कराई तो उसने अपनी जान जोखिम में डालकर कवच-कुण्डल दिये हैं। मरते समय ही दाँत तोड़ कर उसमें लगा हुआ स्वर्ण दान करे याचकों को विमुख नहीं लौटने दिया है। मोरध्वज ने अपने पुत्र को दिया है। राजा बलि ने तीनों लोक का राज्य ही नहीं अपना शरीर भी उस समय लोक सेवा के प्रतीक समझे जाने वाले ब्राह्मण-वामन-को दान दिया है। जरूरतमंदों के लिए लोग अपनी परसी थाली तक दान कर देते थे। भामा शाह ने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति तिनके की तरह राणा प्रताप को दे डाली। राजा महेन्द्र प्रताप अपना राजपाट राष्ट्रीय शिक्षा के लिए अर्पित करके भारतीय स्वाधीनता के लिये विदेश भागे थे। परशुराम ने 21 बार पृथ्वी का राज्य प्राप्त करके उसे दान किया था। सुभाष बोस को वर्मा में भारतीयों ने अपना सर्वस्व स्वाधीनता संग्राम चलाने के लिए दिया था। उससे पूर्व श्री बोस भारत की अपनी लाखों रुपये की सम्पत्ति को राष्ट्र के लिए सौंप कर उसको सार्वजनिक सम्पत्ति घोषित कर गये थे। सी.आर. दास अपनी बैरिस्टरी में हजारों रुपया महीना कमाते थे वह सारा का सारा कई बार कर्ज लेकर भी सार्वजनिक आवश्यकताओं को पूर्ण करते थे। जमुनालाल बजाज ने अपने को गाँधी जी का पाँचवाँ दत्तक पुत्र घोषित करके अपनी सारी सम्पत्ति महात्मा गाँधी के चरणों में अर्पित कर दी थी।

ईश्वर चन्द विद्यासागर, राजा राममोहन राय, गोपाल कृष्ण गोखले, महादेव गोविन्द रानाडे, गणेश शंकर विद्यार्थी, श्रद्धानन्द, सर्वदानन्द, दर्शनानन्द, लेखराम, हैडगेवार आदि का जीवन जिस प्रकार से व्यतीत हुआ है। उसमें भारतीय संस्कृति की झाँकी देखी जा सकती है। भूषण, गंगा और चन्दवरदाई आदि ने चारणों में अपनी ओजस्वी वाणी और कविता से अनेकों निष्प्राणों को प्राणवान बनाया। गंगा इसी अपराध में हाथी के पैर के नीचे कुचलवाये गये, चन्द वरदाई ने गजनी में जो कष्ट सहा वह किसी से छिपा नहीं है। सन 57 से लेकर स्वाधीनता के हिंसात्मक संग्राम के क्रान्तिकारी वीर सैनिक और सन् 21 से लेकर सन 47 तक की अहिंसात्मक राज्य क्रान्ति में अगणित व्यक्तियों ने जो त्याग किये हैं उनकी गाथायें पढ़ते सुनते हुए भुजाएं फड़कने लगती हैं। पाकिस्तानी बर्बरता के सामने सिर न झुकाकर अपने धर्म को अक्षुण्य रखने के लिये पंजाब और बंगाल के लाखों स्त्री-पुरुषों ने जो त्याग किये हैं उनका स्मरण करके चित्तौड़ की रानियों के जौहर और गुरु गोविन्द सिंह के कुछ पुत्रों की स्मृति ताजी हो जाती है।

आस्तिकता की प्रतिष्ठापना के लिए घोर तप करने वाले लोगों की संख्या कम नहीं है। ध्रुव, प्रह्लाद, सरीखे भक्त प्राचीन काल में हुए हैं और मध्यकाल में सूर, तुलसी, रामकृष्ण परमहंस, रैदास, कबीर, दादू, रामानन्द, रामानुज, षटकोपाचार्य, तिरुवल्लुवर जैसे सन्तों की संख्या बहुत बड़ी है। अनीति के निवारण के लिए त्रेता में ऋषियों ने अपना खून निकाल-निकाल कर एक घड़ा भरा था और वह रक्त घट अन्त में राक्षसों के विध्वंस करने के निमित्त-सीता जन्म-का हेतु बना था। इसी मार्ग पर यह आस्तिक सन्त अपनी साधना, भक्ति, ज्ञान, दीक्षा आदि के द्वारा अनीति निवारण और धर्म विस्तार का कार्य करते रहे हैं।

विश्व मानव की सेवा के लिए भारतीय स्त्रियाँ भी पुरुषों से पीछे नहीं रही हैं। उनका कार्यक्षेत्र पुरुषों के समान विस्तृत क्षेत्र में न रह कर सीमित क्षेत्र में रहा है इसलिये उन्हें यश उतना नहीं मिला है। केवल कुछ पतिव्रता स्त्रियों के कौतूहलपूर्ण चरित्रों का ही ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन आया है पर सच बात यह है कि भारतीय नारी ने प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से अधिक कार्य किया है। उन्हीं की प्रेरणा और छत्रछाया से समर्थ होकर पुरुष जाति कुछ कर सकने में सफल हो सकी। इसीलिए उनका नाम पुरुषों से पहले लिया जाता रहा है। सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, मायाब्रह्मा, सावित्री सत्यवान आदि नामों में पहला नाम नारी का और दूसरा नर का है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं रहा है जिनमें भारतीय नारी ने महत्वपूर्ण भूमिका सम्पादन न की हो। वेदों के दृष्टा जिस प्रकार विश्वमित्र आदि ऋषि हुए हैं वैसे ही ऋषिकाएँ-स्त्रियाँ भी हुई हैं। ऋग्वेद 10।85।10-134।10-39।10- 40।8-91। 10-95।5-28। 8-91 आदि अनेकों सूत्रों की दृष्टा घोषा, गोधा, विश्वधारा, अपाला, जुहू, अदिति, सरमा, रोमशा, लोपा मुद्रा, शास्वती, सूर्या, सावित्री आदि ब्रह्मवादिनी स्त्रियाँ ही हैं। मनु की पुत्री इडा बड़ी प्रकाण्ड याज्ञक थीं। उसने अपने पिता का यज्ञ कराया था। मैत्रेयी एक समय की अद्वितीय विद्वान थी। शाण्डिल्य की पुत्री श्रीमती से अत्यन्त कठोर तप किए थे। महाभारत में शान्ति पर्व के अध्याय 30 में सुलभा नामक एक विदुषी का वर्णन है जिससे शास्त्रार्थ में राजा जनक जैसे ब्रह्मज्ञानी के छक्के छुड़ा दिये थे। भागवत में स्वधा की पुत्री वयुना और धारिणी का वर्णन है वे विज्ञान विद्या में निष्णात् थीं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में वर्णित वेदवती को चारों वेद सस्वर कण्ठाग्र थे। भारती देवी नामक महिला ने शंकराचार्य से ऐसा शास्त्रार्थ किया था कि बड़े-बड़े विद्वान भी अचम्भित रह गये थे। उसके प्रश्नों से निरुत्तर होकर शंकराचार्य को उत्तर देने के लिये कुछ मास की मोहलत माँगनी पड़ी थी।

युद्ध कला प्रणीत कैकेयी को दशरथ जी लड़ाई में अपने साथ ले गये थे और जब रथ टूटने लगा तो कैकेयी ने ही उसका तात्कालिक उपचार करके पराजय से बचाया था। मदालसा, महामाया के चरित्र भी प्रसिद्ध हैं। चित्तौड़ की रानियाँ, बूँदी की रानी दुर्गावती, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, चाँदबीवी, आदि के पराक्रम दाँतों तले उंगली दबानी पड़ती है। द्रौपदी, गान्धारी, कुन्ती आदि की असाधारण योग्यता के सुनते-सुनते तृप्ति नहीं होती। मीरा ने लोक-लाज छोड़ कर राज परिवार त्याग कर जनता जनार्दन के हृदयों में भक्ति का दिव्य रस ओत-प्रोत किया था। समाज सुधार और राजनैतिक क्षेत्रों में प्राण प्रण से संलग्न महिलाएँ इस शताब्दी में भी कम नहीं हुई हैं।

महापुरुषों और महान नारियों के दिव्य चरित्र से भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना जगमगा रहा है। जहाँ घर-घर में ऐसे नर रत्न-पैदा होते रहे हैं जिनके उज्ज्वल चरित्र प्रकाश स्तम्भों की भाँति आज भी गिरी हुई मनुष्य जाति का पथ प्रदर्शन करने के लिए जाज्वल्यमान हो रहे हैं। यह क्रम इस देश में केवल इसलिये चलता रहा है कि यहाँ ऋषि प्रणीत संस्कृति के प्राँत लोगों की गम्भीर आस्था रही है। इन धर्म शास्त्रों, ऋषि प्रणालियों, आप्त वचनों का अनुगमन करने के लिये लोग श्रद्धापूर्वक हृदय और मस्तिष्क के द्वार खोले रहे हैं। आज भोगवादी भौतिक संस्कृति ने उस हमारी सनातन परम्परा से जनसाधारण को विमुख कर दिया है। फलस्वरूप सर्वत्र घोर अशान्ति, दारिद्र, रोग, शोक, भय, उत्पीड़न, तृष्णा और वासना से सभी के हृदय जर्जर हो रहे हैं।

हमारा निश्चित विश्वास है कि भारतीय संस्कृति ऋषि प्रणीत-रीति नीति-अपना करके ही मनुष्यता का उत्कर्ष हो सकता है। अन्यथा वर्तमान गति-विधि उसे सब प्रकार नष्ट करके ही छोड़ेगी। सत्य अमर है, श्रद्धा अमर है, धर्म अमर है, प्रेम अमर है, न्याय अमर है ये कभी मन्द भले ही हो जावें पर मर नहीं सकते। भारतीय संस्कृति भी अमर है, वह आज तमसाच्छन्न हो रही है पर कल अवश्य ही निर्मल होगी। हमारी अन्तरात्मा कहती है कि वह पुनः सजीव होगी और उसकी विजय डुगडुगी फिर एकबार विश्व में बजेगी।

हम उस भविष्य की प्रतीक्षा करते हैं जिसमें भारत में घर-घर अपने प्राचीन आदर्शों की भावना एवं मान्यता का विकास होगा। लोग आपस में ऐसे व्यवहार रखेंगे जैसे प्राचीन भारत में रखे जाते थे। माँ-बाप, भाई-बहिन, भाई-भाई, पिता-पुत्र, सास-बहु, स्त्री-पुरुष, स्वजन-सम्बन्धी, बन्धु-बन्धुओं के बीच ऐसे प्रचुर एवं प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होंगे जिन्हें देख कर देवता भी ईर्ष्या करें। पुरुष स्त्रियों के प्रति और स्त्रियाँ पुरुषों के प्रति अत्यन्त ही पवित्र भावनाएं रखा करेंगे। व्यापारी और ग्राहक के बीच उचित मुनाफे पर ठीक वस्तुओं का ईमानदारी के साथ क्रय-विक्रय होगा। मजदूर पूरा काम करने में और मालिक पूरी मजदूरी देने कसर न रखेंगे। आलस्य को, काम से जी चुराने को मानवीय अपराध समझा जायेगा और हर आदमी पसीना बहावे बिना रोटी खाना पसन्द न करेगा। मनुष्य परस्पर सहिष्णु, सहनशील, एक दूसरे की स्थिति और कठिनाई को समझने वाले, तथा उदार व्यवहार करने वाले होंगे। छल, चोरी, व्यभिचार, बेईमानी, दगाबाजी, विश्वासघात, अनीति, अन्याय आदि से लोग वैसे ही घृणा करेंगे जैसे अखाद्य और अभक्ष को भूख रहने पर भी कोई नहीं खाता। संयम, सदाचार और नियमित जीवन के कारण सब लोग निरोग और दीर्घजीवी रहेंगे। सन्तोषी और परिश्रमी होने के कारण उन्हें किसी बात का घाटा न रहेगा। परस्पर स्नेह और सद्भावों के कारण आपसी व्यवहार स्वर्गीय सुख जैसे मधुर हो जाएंगे।

यह बातें आज की स्थिति में तुलना करते हुये असम्भव सी दीखतीं हैं पर वस्तुतः ये कुछ भी कठिन नहीं हैं। भारतीय संस्कृति के यह सहज फलितार्थ हैं इस देश में लाखों करोड़ों वर्षों तक लगातार ऐसा ही वातावरण स्थिर रहा है। हमारी यही विशेषताएं हैं। यदि हम अनार्य संस्कृति की कीचड़ में से अपने पैर निकाल लें और आर्य संस्कृति की ओर कदम बढ़ाएं तो उस प्राचीन इतिहास की पुनरावृत्ति होना बिल्कुल सहज और स्वाभाविक है। इस भूमि में वह विशेषताएं है कि वे सहज विकास करती रहें तो घर-घर में राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, भीम अर्जुन, गाँधी, जवाहर पैदा हो सकते हैं और सब प्रकार की सुख सुविधाओं से परिपूर्ण होते हुए हम भटके हुए संसार को सही रास्ते पर ला सकते हैं। आइए, अपने उसी प्राचीन गौरव को वापिस लाने के लिए हम सब मिल कर भागीरथ प्रयत्न करें।

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