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Magazine - Year 1954 - Version 2

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संस्कृति और जीवन लक्ष्य

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संसार में अनेक संस्कृतियाँ हैं और उनके पीछे विशेष आदर्श, सिद्धान्त मनोभाव एवं कार्यक्रम छिपे होते हैं। मनुष्य का मानसिक स्तर प्रायः सामने उपस्थित संस्कृतियों में से ही किसी को अपनाता है। तद्नुसार उसके विचार एवं मनोभाव उस ढांचे में ढलने लगते हैं, उसके कार्य भी वैसे ही होने लगते हैं।

अभी इसी मास दिल्ली में एक पादरी ने ईसाई धर्म को छोड़कर हिन्दू धर्म में प्रवेश किया है। यह सज्जन जन्मतः भारतीय है। पर बहुत वर्षों से ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे। उन्होंने इस धर्म परिवर्तन का कारण बताते हुये कहा है कि मैंने अपने लम्बे अनुभव काल में यह भली प्रकार देख लिया कि ईसाई होने के बाद मनुष्य की मनोभावना किसी अन्य देश के साथ जुड़ जाती है। और वह उसी के रंग में रंग जाता है। यहाँ के अनेकों मुसलमानों का उदाहरण स्पष्ट है। वे अपनी जन्मभूमि की परवाह नहीं करते, अपने पूर्वजों का आदर नहीं करते, अपने देश के महानुभावों से उन्हें कोई प्रेम नहीं, मक्का इस्लाम मुस्लिम देश, अरबी फारसी लिपि तथा इन्हीं देशों के वीर पुरुषों एवं भाषाओं से उनका मानसिक सम्बन्ध जुड़ा रहता है फलस्वरूप ये लोकाचार की दृष्टि से भारतीय रहते हुए भी मानसिक दृष्टि से विदेशी बन जाते हैं। यह बात किसी विशेष पर लाँछन लगाने के लिए नहीं कही है। यह तो एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जो ऐसी स्थिति होने पर सभी पर लागू होता है।

इस तथ्य को अंग्रेज मनोवैज्ञानिक भली प्रकार जानते थे। वे अधिक विद्वान थे, इसलिए उन्होंने मध्यकाल के मुसलमानों शासकों की तरह बलपूर्वक कर्म परिवर्तन की नीति को न अपनाकर पीछे की खिड़की से होकर प्रवेश किया उन्होंने वह नीति अपनाई कि धर्म चाहे कोई भी रहे पर संस्कृति हमारी चले। लार्ड मैकाले प्रभृति चतुर व्यक्तियों ने अपनी सारी बुद्धिमत्ता खर्च करके स्कूलों, कालेजों दफ्तरों राज दरबारों तथा अनेक द्वारों से यह प्रयत्न किया कि यहाँ के निवासी हमारी संस्कृति अपना लें तो हमारे सजातीय हो जायेंगे। जन्म से वे भारतीय रहे पर मस्तिष्क में अंग्रेज ही होंगे। काले अंग्रेज पैदा करने की उनकी योजना प्रसिद्ध है। उनकी दूरदर्शिता की प्रशंसा करनी पड़ती है कि वे इस सम्बन्ध में शत-प्रतिशत सफल रहे। अंग्रेज हिन्दुस्तान छोड़ कर चले गये अंग्रेजियत को रत्ती भर भी क्षति नहीं पहुँची, सच तो यह है कि वह इन दिनों और अधिक बढ़ी है। साहसी ठाठ-वाट, रहन-सहन, तरीके तहजीब तेजी से फैलते जा रहे हैं।

हमारा किसी संस्कृति से द्वेष नहीं है। अच्छी बातें सभी से सीखनी चाहिए और बुरी बातें चाहे वे अपनी या परम्परागत ही क्यों न हों छोड़ने को सदैव तत्पर रहना चाहिये। विवेकशील व्यक्तियों के लिए यही मार्ग उचित है। यदि इस कसौटी पर कस कर भारतीय आदर्शों और जीवन यापन की पद्धतियों का परित्याग किया जाता तो हमें प्रसन्नता होती पर वस्तुतः ऐसा हो नहीं रहा है। जिस प्रकार अनेक अन्धविश्वास, भ्रम, पाखण्ड, व्यसन एवं दुर्गुणों को मनुष्य अनजाने ही वातावरण के प्रभाव से अपना लेता है उसी प्रकार विदेशी संस्कृति को भी हमने अपना लिया है। इस ‘स्व’ त्याग और ‘पर’ ग्रहण का प्रसाद यदि केवल बोल-चाल, पहनाव उढ़ाव, खान-पान, वेश विन्यास, रहन-सहन तक ही प्रभाव रहता तो कोई विशेष हानि न थी पर ऐसा हो सकना सम्भव नहीं है क्योंकि आचार और विचार आपस में अत्यन्त घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। जिस प्रकार मुसलमानी पोशाक, भाषा, रीतिरिवाज, खान-पान अपना लेने पर मस्तिष्क पर भी मुसलमानी आदर्श जम ही जाते हैं उसी प्रकार अंग्रेजियत हमारे व्यवहार में गहरी घुस जाय तो मस्तिष्क में स्वार्थ तो भारतीय रह सकते हैं पर आदर्शों का रह सकना सम्भव नहीं है।

पाश्चात्य देशों में अनेक अच्छाइयाँ हैं। उनकी परिश्रम शीलता, कार्य कुशलता, साहस, नियमितता, देशभक्ति, शिष्टाचार आदि प्रशंसनीय हैं, यह बातें ऐसी हैं जो उनसे हमें सीखनी चाहिए पर कुछ बातें उनमें ऐसी भी हैं जो उनके लिए गले का सर्प बनी हुई हैं ओर जो कोई उन बातों को ग्रहण करेगा वह भी उसी नागपाश में बँध कर अपनी दुर्गति करावेगा। भोगवाद, भौतिकवाद उनका प्रधान दृष्टिकोण है। इसी कमजोरी के कारण उनमें अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गई हैं उदाहरण के लिए दाम्पत्ति जीवन बिल्कुल अस्त-व्यस्त हो रहा है। रूप और भोग के प्यासे स्त्री-पुरुष हर मौसम के लिए नया जोड़ा ढूँढ़ने और पुराने को छोड़ने की तैयारी में लगे रहते हैं। फलस्वरूप पति-पत्नी में से किसी को किसी पर विश्वास नहीं होता और वे एक दूसरे का सच्चा या आजीवन साथी नहीं बन सकते हैं। इस इन्द्रिय लोलुपता, रूप पिपासा ने उनका दाम्पत्ति जीवन ही नहीं पारिवारिक जीवन भी अस्त-व्यस्त कर दिया है। माँ-बाप और बेटे-बेटी में भी कोई वास्तविक या ठोस सम्बन्ध नहीं रह गये हैं। इसी प्रकार अपनी विलासिता की खर्चीली आवश्यकताएँ बहुत बढ़ा लेने से उन्हें दूसरे व्यक्तियों या देशों का शोषण करना पड़ता है। पूँजीवाद, साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद उसी के फलस्वरूप पैदा हुए हैं। विज्ञान और उत्पादन में उन्होंने बहुत उन्नति की है पर उनकी यह खर्चीली विलासिता भौतिकवादी दृष्टि उस उन्नति से किसी को लाभ पहुँचाने के स्थान पर संसार भर के बनी हुई है। पिछले 40 वर्षों से युद्धों के ही षड़यन्त्र चल रहे हैं करोड़ों आदमी गाजर मूली की तरह कट चुके और अब तो अणुबम इस धरती को ही प्राणी रहित बना डालने को तुले हुए हैं।

पाश्चात्य संस्कृति और भारतीय संस्कृति का यही अन्तर है। प्रत्येक संस्कृति में एक आदर्श छिपा होता है और उस आदर्श की दिशा में अग्रसर करने वाले आचार व्यवहार उसी के साथ जुड़े रहते हैं। यही सब मिलकर संस्कृति बनती है। भारतीय संस्कृति में दाम्पत्ति जीवन इन्द्रिय लिप्सा व रूप सौंदर्य पर आधारित नहीं है वरन् दो आत्माओं का एक आध्यात्मिक मिलन है जिसमें स्त्री-पुरुष इतने अनन्य होकर एक दूसरे से मिलते हैं कि इस जीवन में एक दूसरे को छोड़ने की तो कल्पना भी नहीं करते वरन् स्वर्ग में फिर मिलने की कामना करते हैं। भारतीय ललनाओं के सतीत्व का इतिहास स्वर्णाक्षरों में जगमगा रहा है। यहाँ ललनाएँ पतियों के प्रति अपनी वफादारी के प्रमाण स्वरूप अपने प्राणों को तिनके की तरह त्याग देने में प्रसन्नता अनुभव करती रही हैं। यहाँ के पुत्र अपने माता-पिताओं को कन्धे पर काँवर में बिठाकर तीर्थ यात्रा कराते रहे हैं, चौदह वर्ष का वनवास भोगते रहे हैं, अपनी युवावस्था पिताओं को दान करते रहे हैं, जीवन भर ब्रह्मचारी रहने का व्रत लेने में भी संकोच नहीं करते रहे हैं। जीवित अवस्था तक ही पितृ भक्त रहे सो बात नहीं, पीड़ितों तक उन्हें पिण्डदान और तर्पण से सन्तुष्ट करते रहने के लिए उद्यत रहते रहे हैं। एक भाई को दूसरे भाई के लिए क्या करना चाहिए इसके उदाहरण यहाँ जैसे अन्यत्र प्राणियों तथा जीव जन्तुओं के प्रति क्या कर्त्तव्य है इसका परम उदार आदर्श हमारी संस्कृति में ओत-प्रोत हो रहा है। इसी का परिणाम है कि यह देश अनादि काल से समस्त संसार का नैतिक पथ प्रदर्शन करता रहा है।

भारतीय संस्कृति की आत्मा त्याग, तप, संयम, सेवा, कृतज्ञता, उदारता के सिद्धान्तों से परिपूर्ण है। उन्हीं सिद्धान्तों से प्रेरित होकर यहाँ आत्म त्यागी ऋषि उत्पन्न होते रहे, सतियाँ और पतिव्रताएं अपने उदाहरण उपस्थित करती रहीं समाज सेवी और धर्म कर्त्तव्यों के लिये प्राण देने वाले सद्गृहस्थ घर-घर में होते रहे। पृथ्वी के चक्रवर्ती शासन रहे। परशुराम ने 21 बार पृथ्वी भर के राजाओं को जीता एक चप्पा जमीन भी अपने लिये न रखी। राम ने सोने की लंका जीती पर वहाँ से घर के लिए एक लोहे की कील भी साथ न लाये। ऐसे उज्ज्वल चरित्रों से भारतीय इतिहास का पन्ना-पन्ना भरा पड़ा है।

कारण यही है कि आर्य सिद्धान्तों को व्यवहारिक जीवन में कूट-कूट कर भर देने के लिये जो रीति-रिवाज, आचार-विचार, संस्कार आदि की व्यवस्था थी उस पर सब लोग स्वभावतः चलते रहते थे, फलस्वरूप व्यक्तियों का निर्माण ऐसा ही होता था जिससे वे महापुरुष सिद्ध होते। यही भारतीय संस्कृति की विशेषता है।

पाश्चात्य संस्कृति भोग संचय, स्वामित्व, ऐश आदि ऐहिक सुख साधनों पर अवलम्बित होने से उसके रीति-रिवाज व्यवहार आदि भी वैसे ही हैं और उस ढांचे में मनुष्य ढालना भी वैसा ही है। हमारे शासक अपने को गाँधी जी का अनुयायी कहते हुए नहीं थकते पर जिस वातावरण में उनके मस्तिष्कों का निर्माण हुआ है वह खद्दर में लिपट जाने पर भी बदलता नहीं। राष्ट्र भाषा का प्रश्न गौवध, विदेशी शराबों, सिगरेटों तथा अनेक विलासिता की वस्तुओं का द्रुतगति से आयात, मिनिस्टरों के ऊँचे वेतन, छोटी-छोटी बातों पर गोलीकाण्ड, गुंडों को निडर बनाने वाले लुँज-पुँज कानून, शासन यन्त्र में भ्रष्टाचार आदि अनेक बातें आज भी ऐसी हैं जो भारतीय दृष्टिकोण एवं परम्पराओं के अनुकूल नहीं बैठतीं फिर भी चूंकि अंग्रेजियत के अनुसार वे ठीक हैं इसलिए चल रही हैं। चाणक्य जैसे कुटियाओं में रहने वाले, जनक जैसे खेत करके पेट भरने वाले, विक्रमादित्य जैसे वेश बदलकर घर-घर जाकर प्रजा का सुख-दुख पूछने वाले, प्रजा की इच्छा पर पत्नी को त्याग देने वाले शासक यदि आज रहे होते तो भारत का निर्माण दूसरे ही ढंग से हुआ होता। आज तो लड़के और लड़कियाँ जो कुछ पढ़ते हैं उनसे अधिक वहाँ के वातावरण के कारण वे विदेशी संस्कृति में अपने को ढालते हैं। जूलियस, हेमलेट आदि के नाटकों में जो कुछ उन्हें मिलता है वह ही उनके जीवन में परिलक्षित होता है। प्राचीन परम्पराओं, भावनाओं, मान्यताओं में जो आत्मगौरव की भावनाएं भरी हुई थीं, अनेक पूर्वजों के प्रति जो मान था, धर्म ग्रन्थों और आचार संहिताओं में जीवन को महान बनाने वाले जो तथ्य भरे हुए थे वे आज उपेक्षित और तिरस्कृत हो रहे हैं। भारतीय ढंग का खान-पान, आहार-विहार, रहन-सहन, वेषभूषा, भाषा यह सब बातें तो गंवार बेवकूफी, ढोंग, मूढ़ विश्वास, सड़े दिमागों की उपज समझी जाती हैं। ‘स्व’ को लोग भूलते जा रहे हैं, हमारे पूर्वज जंगली थे, बन्दर की औलाद थे, वेद मध्य एशिया से यहाँ हमलावरों की तरह आये थे, वेद गड़रियों के गीत हैं, आदि मान्यताएं उन्हें अपने मन से घृणा करती हैं, साहबी ठाट-बाट आचार व्यवहार उन्हें बड़ा अच्छा लगता है क्योंकि वह आधुनिक है, सुधरा हुआ है।

हम छोटी बातों पर उलझने वाले नहीं हैं। हमारी दृष्टि एक ही मूल तथ्य पर टिकी हुई है। जीवन के दो दृष्टिकोण जहाँ से आरम्भ होते हैं वही स्थल विचारणीय है। श्रेय और प्रेय, त्याग ओर भोग यह दो विरोधी तत्व इस संसार में हैं और इन दोनों के विपरीत ही परिणाम हैं। एक का परिणाम है-परस्पर सौहार्द, प्रेम, सेवा, सहायता, मैत्री, शान्ति, दीर्घायु, श्री, सद्बुद्धि, सादगी, सद्गति। दूसरी का परिणाम है-अतृप्त वासना, अशान्ति, कलह, द्वेष, उत्पीड़न, दारिद्र, रोग, युद्ध, कृत्रिमता, दुर्गति। इन दोनों संस्कृतियों का आदि अन्त इसी प्रकार है। इन सड़कों पर जो मील के पत्थर लगे हुए हैं उन्हें व्यवहारिक रीति-नीति से समझा जा सकता है। श्रेय प्रधान संस्कृति को अपनाने वाला व्यक्ति दिन-दिन अधिक सात्विक भोजन की खोज करेगा, वेष-भूषा में सादगी लावेगा, ऋषि प्रणीत अप्राप्त वचनों का अधिक मनन करेगा और दैनिक कार्यक्रम में उन क्रियाओं का अधिक उपयोग करेगा जो अन्तःकरण पर श्रेयष्कर संस्कारों की छाप डालती हैं। इसके विपरीत प्रेम प्रधान भौतिक संस्कृति पर आस्था रखने वाला दिन-दिन अधिक तामसिक आहार ढूँढ़ता जायेगा, माँस, मछली, अण्डे, मदिरा, तमाखू, मिर्च, मसाले, प्याज, लहसुन जैसी तामसिक वस्तुओं की ओर उसकी रुचि बढ़ेगी। नाच तमाशे, व्यभिचार, चटोरापन, गपशप, निन्दा, चुगली, ताश शतरंज, जैसे विषयों में मन लगा रहेगा। अपनी प्रभुता, सत्ता विशेषता, बड़प्पन सिद्ध करने लोगों को अपना वशवर्ती करने के लिये अपव्यय, दर्प, अहंकार, ऐंठ, कटुभाषण, निन्दा, चुगली, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, युद्ध उत्पीड़न, छल, षड़यन्त्र आदि का आश्रय लेगा। इन सब बातों की उलझन उसके मस्तिष्क में इतनी भरी रहेगी कि जीवन का महत्व, मनुष्य जन्म की जिम्मेदारी, इंसानियत के कर्त्तव्य, आत्म चिन्तन, परमार्थ, आदि बातों की ओर उसका मन ही न चलेगा। कुछ इच्छा भी उठी तो जरा सी कठिनाई आते ही वह समाप्त हो जायेगी।

यह दो संस्कृतियाँ जीवन की दो दिशाएं हैं। लोग इन्हीं में से एक को पकड़ते हैं और उन्हीं के अनुसार फल भोगते हैं। आज अधिकाँश व्यक्ति भोगवादी भौतिक संस्कृति को अपना रहे हैं। उसी आधार पर अपना फैशन, बोलचाल, रहन-सहन, रीति रिवाज, आचार विचार अपना रहे हैं। तद्नुसार परिणाम भी सामने हैं। दाम्पत्ति प्रेम और सम्मिलित परिवार प्रणाली अब लुँज पुँज हो चुकी है। विवाह के लिए जहाँ पहले शीलवती कुल कन्याएँ ढूँढ़ी जाती थीं, वहाँ अब लड़के रंग, रूप, लावण्य, हावभाव, वेश विन्यास, नाच गान आदि के आधार पर वधुएँ ढूँढ़ते हैं। लड़कियाँ भी इस दिशा में तेजी से अग्रसर हो रही हैं। इस प्रकार यहाँ भी योरोप जैसी पारिवारिक व्यवस्था होती जा रही है। कौटुम्बिक उत्तरदायित्व जो इस देश का प्रधान आचार था। अब सबके मन में से लुप्त प्रायः होता जा रहा है। व्यापारी, मजदूर, पुरोहित, डॉक्टर, वकील, अध्यापक, शासक, नेता आदि सभी वर्ग अपने-अपने कर्त्तव्य धर्मों की अपेक्षा व्यक्तिगत स्वार्थ साधन को महत्व देने लगे हैं। इस भौतिकता प्रधान दृष्टिकोण के कारण राष्ट्र निर्माण की सभी योजनाएँ व्यर्थ होती चली जा रही हैं। जब तक छलनी में यह छेद रहेंगे तब तक उसमें कितना ही दूध डाला जाय कुछ भी लाभ न होगा।

व्यक्तिगत उन्नति तथा सुशांति तथा सामाजिक स्थिरता तथा सुव्यवस्था के लिए अन्ततः श्रेय प्रधान-त्यागमयी भारतीय संस्कृति की ही आवश्यकता पड़ेगी। जब भौतिक तृष्णाओं से पीड़ित दुनिया थकान और पीड़ा से चूर हो जायेगी तब उसके लिए अन्ततः एक मात्र यही आश्रय होगा। भौतिकता बढ़ती रही तो मनुष्य जाति का ही नहीं इस पृथ्वी गृह का भी अणु परमाणुओं के संघर्ष से नष्ट होना निश्चित है। मनुष्य को चाहे आज चाहे कल अपनी सुख शान्ति की रक्षा के लिये उन्हीं आदर्शों को अपनाना पड़ेगा, जिनको सूक्ष्मदर्शी ऋषियों ने हजारों वर्षों के तप तथा विचार द्वारा निर्धारित किया था। उन आदर्शों को एक दिन में एक दम कोई अपनी आदत में शामिल नहीं कर सकता। उन्हें स्वभाव रूप में अभ्यस्त में बन लेने के लिये जिन-जिन उपचारों की आवश्यकता पड़ती है उन्हें ही साँस्कृतिक आचार कहते हैं। उनकी महत्ता को समझना, स्वीकार करना तथा आचरण में लाना-यही हमारे लिए सब प्रकार श्रेयस्कर कर्त्तव्य है।

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