
दो दृष्टिकोण (Kavita)
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पिंजरे का पंछी पिंजरे में, वन का पंछी वन में था;
एक बार दोनों मिल बैठे, क्या विधना के मन में था?
वन पंछी बोला, भाई, दोनों वन में रहें चलो।
पिंजरे वाला बोला, आओ भाई इसमें रहो-पलो॥
वनवासी ने कहा, नहीं मैं नहीं बंधूँगा बन्धन में।
पिंजरे वाला बोला, कैसे, मैं निकलूँ बीहड़ वन में?
बन का पंछी बाहर बैठा, गाता था जंगल के गीत,
पिंजरे वाला रटे-रटाये, पढ़ता था, दोनों विपरीत;
वन पंछी ने कहा कि भाई, गाओ तो जंगल के गीत।
पिंजरे वाला बोला भाई, तुम्हीं सीख लो मेरा गीत॥
वन-पंछी ने कहा, मुझे, वे तौर-तरीके नहीं भाते।
पिंजरे वाला बोला, मुझको, वन के गीत नहीं आते॥
आसमान नीला विस्तृत है, बाधा का कुछ काम नहीं,
पिंजरे वाला बोला, पिंजरा बन्द, रन्ध्र का नाम नहीं,
भर उड़ान देखो मेघों में वन का पंछी बोल उठा।
अनुभव करो जरा संयम-सुख पिंजरे वाला डोल उठा॥
वन पंछी ने कहा, किन्तु, उड़ने का यहाँ सुपास कहाँ।
पिंजरे वाला बोला, मेघों में, रुकने की आस कहाँ?
एक दूसरे की खातिर, बेचैन मगर मिलना दूभर,
तीली में से चोंच डालकर रह जाते थे छू-छू कर;
मन का दरद जताना चाहा, लेकिन कुछ जतला न सके।
पड़े रहे लाचार फड़कते, पास-पास पर आ न सके॥
पिंजरे की खिड़की पर था, सन्देह इधर इन आँखों में।
और झिझक थी आसमान से, हाय उधर उन पाँखों में ?
*समाप्त*
(श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता का अनुवाद)
(श्री रविन्द्रनाथ ठाकुर की एक कविता का अनुवाद)