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Magazine - Year 1956 - Version 2

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उपवास आवश्यक है।

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( श्री प्रेमचन्द्र गुप्त, पाली खुर्द)

रहन सहन के अवांछनीय ढंग से जो विजातीय द्रव्य शरीर में एकत्र हो जाते हैं। उसी से सब रोग उत्पन्न होते हैं, अवांछित भोजन, शरीर की उचित रक्षा का अभाव, उत्तेजक पदार्थों का सेवन, तथा नाड़ियों की थकान, विशेष रूप से सुरक्षित जीवन के लिए अहितकर है। नाड़ियों की थकान-चिन्ता-भय, शक्ति से अधिक कार्य करने से उत्पन्न होती है। शरीर से विजातीय द्रव्य निकालना वास्तविक में रोग से मुक्ति प्राप्त करना है। अतः शरीर से विजातीय द्रव्य निकालने के लिये उपवास प्राकृतिक चिकित्सा का एक प्रमुख अंग है वास्तव में निरोग बनाने वाली प्रकृति है न कि मनुष्य। मनुष्य का कार्य तो प्रकृति को ऐसा करने के लिए अनुकूल परिस्थिति ही उत्पन्न कर देना है। हमारे अन्दर की वह शक्ति जो हृदय में धड़कन करती है रुधिर में गति उत्पन्न करती है, यदि उचित अवसर दिया जाए तो शरीर में भी नव जीवन संचार कर सकती है।

मनुष्य को रोग से मुक्ति प्राप्त करने की विधि पर विचार करने से पहले हमें दूसरे जीवों पर दृष्टिपात करना चाहिये और देखना चाहिए कि वह रोगी होने पर क्या करते हैं? सभी पशु, पक्षी अस्वस्थ होने पर अपना भोजन परित्याग कर देते हैं। इस समय वे कभी कभी आवश्यकतानुसार पानी पी लेते हैं। और कुछ कालान्तर में वे इस प्रकार उपवास विधि से प्रायः रोग मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार सिद्ध होता है कि उपवास रोग मुक्ति की एक ऐसी विधि है जिसका आश्रय सभी जीवधारी अस्वस्थ हो जाने पर लेते हैं। परन्तु मनुष्य ने इससे लाभ उठाने से इन्कार कर दिया है। क्योंकि आधुनिक सभ्यता के साथ साथ वह बाहरी उपचारों की ओर अधिक ध्यान देने लगा है और आन्तरिक प्रेरणाओं की अवहेलना करने लगा है।

प्रत्येक मनुष्य को वर्ष भर में दीर्घ काल व्यापी उपवास करना आवश्यक है और साथ ही साथ स्वास्थ्योपयोगी है। इस दीर्घकालीन उपवास को तब तक जारी रखना चाहिये, जब तक जीवन के लिये किसी प्रकार की शंका न हो। ऐसे उपवास करते समय ऋतु का प्रभाव भी देखा जाना चाहिये। अतः इस प्रकार के व्रत बसंत ऋतु में विशेष लाभकारी होते हैं। क्योंकि उस समय शरीर के अन्तर्भाग की परिशुद्धि की विशेष आवश्यकता होती है। और यही कारण है कि अधिकतर वैद्य लोग बसंत ऋतु में “ बसंत वाजीकरण” औषधियों के प्रयोग की सलाह दिया करते हैं। परन्तु इस सबसे अच्छी औषधि है- अल्पकालव्यापी या- दीर्घ कालीन व्रत। उपवास अति भोजन से एकत्रित होने वाले अपद्रव्यों को अन्य औषधियों की अपेक्षा अति शीघ्र बाहर कर देता है। अतः शरीर के अन्तर्भाग की परिशुद्धि के लिये उपवास एकान्त रूप से आवश्यक है। यह आवश्यकता से अधिक संग्रह का व्यय कर देता है और अपद्रव्यों को बाहर निकाल कर शरीर के अन्तर्भाग को अपनी सफाई कर लेने का अवसर प्रदान करता है।

यह स्वाभाविक है कि उपवास की समाप्ति के उपरान्त मनुष्य की क्षुधा अत्यंत तीव्र हो उठती है। कभी कभी तो उसका स्वरूप बड़ा भयंकर हो जाता है और जो कुछ सामने आता है उसी को खाने की इच्छा बार बार बलवती हो उठती है। परन्तु जिस प्रकार उपवास के समय संयम से काम लेना पड़ता है उसी प्रकार उसकी समाप्ति पर भी अपने को रोक लेना चाहिये। तभी वास्तविक लाभ हो सकेगा।

यद्यपि उपवास काल में टहलना और व्यायाम करना भी आवश्यक और लाभप्रद है परन्तु अधिक व्यायाम करना भी उचित नहीं है। उन लोगों के ऊपर जो उपवास रखते समय और समाप्ति के सम्बन्ध में बुद्धि पूर्वक आचरण करेंगे- उसका प्रभाव सदा स्वास्थ्यवर्धक रहेगा।

उन लोगों के लिये जिन्होंने कभी उपवास रखने की परीक्षा नहीं की या असफल प्रयास किया उन्हें अपने सवेरे के जलपान (कलेवा) को परित्याग कर उपवास आरम्भ करने का अभ्यास कर लाभ उठाना चाहिये। जलपान परित्याग से संभव है कुछ लोगों को कुछ कष्ट उठाना पड़े। अतः इसे दूर करने का सरल और स्वास्थ्योपयोगी उपाय यह है कि कभी कभी प्रायः शहद मिला एक प्याला गर्म पानी या दूध पी लेना चाहिये! वास्तव में कलेवा के समय हमें जो भूख लगती है वह हमारे प्रतिदिन के अभ्यास के परिणाम स्वरूप होती है और यह केवल झूठी वुभुक्षा है। इस समय भोजन के लिये उत्कट अभिलाषा नहीं होती है। यदि आप इस समय क्षुधातुर होने पर भी भोजन या जलपान न करें तो, मध्याह्न या रात्रि के भोजन में अत्यंत स्वाद आ जाता है और लाभकारी होता है अतः कलेवा की वुभुक्षा का विनाश ही सर्व श्रेष्ठ उपाय उपवास की प्रथम अवस्था में है।

बहुत से लोग जलपान के समय तो खूब भोजन कर लेते हैं और दोपहर में हल्का या बिलकुल ही भोजन नहीं करते हैं। और इससे ही संतुष्ट रहते हैं वास्तव में वह ऐसा करने से एक बड़ी भूल के शिकार बने हुए हैं। उन्हें इस बात पर अधिक ध्यान देना चाहिये। उपवास के लिये रविवार का दिन- सर्वोत्तम माना गया है। बहुधा हमारे भोजन में अधिकांश ऐसे कुपाच्य पदार्थों का मिश्रण होता है जिनका पाचन उदर के लिये कठिन होता है। अतः अपने उदर को दो दिन का विश्राम देना नितान्त रूप से आवश्यक होता है।

उपवास के उपरान्त जिस भोजन का पाचन होना है। वह शरीर को अधिक जीवन और शक्ति प्रदान करता है। उससे शारीरिक क्रियाओं का कार्य भली भाँति सम्पन्न होता है। उस समय शरीर को पौष्टिक पदार्थों की आवश्यकता होती है और वह उनको ग्रहण करने के लिये तैयार रहता है। अच्छे विशुद्ध रक्त को बनाने का कार्य उस समय शीघ्र गति से होने लगता है। अतः प्रति सप्ताह एक या दो व्रत रखना स्वास्थ्य सुधार के लिये अद्भुत उपाय है। विशेष अवसरों या थोड़े-थोड़े अन्तर के उपरान्त भी व्रत रखना परमावश्यक है।

जब कभी आप अल्पकालीन या दीर्घ काल व्यापी उपवास करेंगे तो सर्व प्रथम आपके स्नायुओं पर विशेष प्रभाव पड़ेगा और संग्रहित मज्जे का ह्रास होगा, निर्बलता की भावना उत्पन्न होगी, जीभ पर मैल जमने लगेगा। तापक्रम गिर जाता है और शरीर के अनावश्यक अम्लादि पदार्थ बाहर निकलने आरम्भ हो जाते हैं। व्रत के कारण हल्का ज्वर आना शरीर की स्वच्छता और दूषित पदार्थों के जलने का सूचक होता है। इस प्रकार उपवास शरीर को सम अवस्था में लाता है। गठिया-मधुमेह-हृदय रोग आदि जीर्ण रोगों में उपवास के साथ-साथ टहलना, धूप, स्नान आदि रोग मुक्ति के साधारण उपाय हैं।

दीर्घ काल व्यापी उपवास में संतरे का रस पानी के साथ दिन में कई बार लेना चाहिये। रोगी को हरे शाकों का रस देना चाहिये, जो पेट को साफ कर खनिज लवणों की वृद्धि कर उनकी कमी को पूरा करते हैं। इससे उन मनुष्यों को तो बहुत लाभ प्राप्त होगा, पूर्ण स्वस्थ अवस्था में व्रत के नियमों का पालन उचित दशा में करेंगे।

उपवास आयु बढ़ाने के लिये अपने ढंग का एक ही उपाय है। इससे हम अपनी आयु बढ़ा सकते हैं। हमारे पूर्वज उपवास का महत्व समझते थे कि आवश्यकतानुसार और समय-समय पर कोई और धार्मिक नियमों पर उपवास करके दीर्घायु को प्राप्त कर लेते थे। हम भी इसी प्रकार उपवास को जीवन में आवश्यक स्थान देकर अपने शरीर और स्वास्थ्य को सुखमय बना सकते हैं।

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