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Magazine - Year 1956 - Version 2

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संस्था के कार्यकर्ता की जिम्मेदारी

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(राष्ट्र सन्त श्री तुकड़ो जी महाराज)

परमार्थ की लम्बी बातें हाँकना छोड़ दो और पहले अपनी ओर देखो। मेरा ख्याल है कि परमार्थ भी मनुष्य के व्यवहार को सुव्यवस्थित बनाने के उद्देश्य से ही कहा गया है। अगर व्यवहार ठीक नहीं बनता है तो उसमें कोई अर्थ नहीं। ऊँची-ऊँची बातों का जिक्र करने से पहले हमको अपने जीवन को पवित्र बनाना चाहिये। मनुष्य में जो शैतानी है- जो आसुरी गुण है, जिनके कारण वह खुद अपने तथा समाज बल्कि विश्व के जीवन में आग लगा देता है, उन दुर्गुणों पर काबू पाना सबके लिये सब तरह लाभदायी है। समाज की स्थिरता कायम रखते हुए ऊँची राह पर आगे बढ़ने के लिए हम सबको पहले अपने दैनंदिन व्यवहार को सुधारना होगा। खाना-पीना पवित्र रखना होगा। सच बोलने और सीधे चलने की आदत डालनी होगी। छल-कपट को छोड़ सबके हित का सोचना होगा। पीछे किसी की टीका-टिप्पणी न करते हुए, सामने बोलने की तैयारी करनी होगी। उसमें भी तारतम्य रखना होगा। जो कुछ बोलना हो वह मीठे लब्जों में, कोई गलत परिणाम न निकले यह सोचते हुए बोलना होगा।

ख्याल रहे कि, जीवन का ऐसा सुधार अकेला-अकेला व्यक्ति भी कर सकता है, केवल निश्चय की जरूरत है। परन्तु हम कुछ लोग मिल जुलकर एक ही रास्ते पर चलने का अगर तय करें, तो रास्ता बिलकुल आसान होगा इसमें सन्देह नहीं। अपने आसुरी गुणों को अकेला आदमी विपरीत परिस्थिति में आसानी से नहीं हटा सकता। परिस्थिति को अनुकूल बना लेना हो तो कुछ लोगों के संगठन की आवश्यकता होती है। एक ध्येय से प्रेरित हुए लोग इकट्ठा होकर परिस्थिति में उचित परिवर्तन ला सकते हैं और प्रगति करना उनके लिये सुगम हो जाता है। संस्था, आश्रम, संप्रदाय आदि बनाने का यही तो उद्देश्य होता है।

लेकिन अक्सर हम देखते हैं कि बड़े लोगों के सामने तो सब ठीक चलता है किन्तु उनके पीछे शिथिलता छा जाती है। अपने नेता को ही नहीं, बल्कि अपने देवता को भी लोग फँसाते हैं। मनुष्य में आलस्य आ जाना स्वाभाविक है। उसके लिये संगठन के चालक को बारबार सोचकर अपने कार्य में नयी जान लाने की कोशिश करनी चाहिये। उसी कार्यक्रम को कुछ दूसरे ढंग से ढालकर सामने रखना चाहिये, जिससे नवीनता की भावना पैदा हो। लोगों में उमंग बनी रहने के लिये यह जरूरी है। साथ ही हर नियम या कार्यक्रम के पीछे जो तत्त्वज्ञान है उसे हर एक को मालूम कर लेना चाहिये। जिसे उसका ज्ञान नहीं वह उसका महत्त्व नहीं समझ सकता और फिर उसका आकर्षण कायम रहना मुश्किल हो जाता है। हम चिल्ला-चिल्लाकर जो बातें करते हैं, उसका कारण, हमारा विश्वास उन बातों पर जम चुका है, लेकिन जो लोग फिर भी उस पर डटे नहीं रह सकते इनका विश्वास अभी नहीं जमने पाया, यही इसका कारण हो सकता है। ऐसी हालत में हमारा फर्ज होता है कि हम उन्हें बारीकी से समझावें।

केवल किसी व्यक्ति के रहने से वे कार्यक्रम में सम्मिलित हों, यह ठीक नहीं। केवल नियम—पालन की दृष्टि या जबरदस्ती कार्यक्रमों में सम्मिलित होना भी कोई स्पृहणीय नहीं कहा जा सकता। स्वयं उनकी धारणा उन्हें सम्मिलित होने के लिये खींच लावे, तभी उनका विकास हो सकता है। इसके लिये उनके दिल को हमें निश्चयात्मक रूप देना होगा, वैसे संस्कार उन पर करने होंगे। निश्चय टिकाने के लिये बार-बार सहानुभूतिपूर्वक समझाना होगा। झाड लगाया लेकिन पानी न डाला तो वह सूख जाता है, विचारों या सद्भावनाओं के अंकुरों की भी यही हालत होती है। इसलिये बार-बार हमें सोचकर विचारों द्वारा उन्हें सींचते रहना चाहिये। स्वयं उनके विचारों को विकसित करने के लिये क्या किया जाय, इसको खोजते रहना चाहिये। हर काम में संशोधन की जरूरत होती है। बहुत ही सूक्ष्मता से कारणों को ढूंढ़ निकालना पड़ता है, व्यवहार में भी और परमार्थ में भी!

लेकिन हम कई जगह देखते हैं कि संगठन के जिम्मेदार लोग अपने इस कर्तव्य को भुला देते और एक हुकूमत का रास्ता अख़्तियार कर लेते। ठाँट-फटकार से काम लेना चाहते। यह कोई ठीक तरीका नहीं है। बच्चा आज क्यों रोया? बिना रोटी खाये ही क्यों सोया? घर को चलाने वाला गृहस्थ इस बात को गौर से सोचता है और जो इस प्रकार सहृदयता से सोचता है वही घर को ठीक चला सकता है। किसी संस्था का व्यक्ति झूठ क्यों बोला, क्यों वह अपने काम को नहीं कर सका, क्या कारण है कि उसका दिल टूटता चला जा रहा है, इन बातों को जिम्मेदार लोग जब सूक्ष्मता से सोचेंगे तो कोई कारण नहीं कि उस संगठन में बिगाड़ पैदा हो।

सम्भव है कि संगठन में सभी एक भूमिका के नहीं रह सकते। किसी का कदम फिसल भी सकता है, किसी के हाथों गलती भी हो सकती है। उसको बिना सोचे टीका का शस्त्र उठाना कहाँ तक ठीक है? मैं भी तो पूरा आदर्श मानव नहीं हूँ, कुछ अवगुण मुझमें भी हैं या नहीं?” इसको न सोचने वाला मुखिया लोक संग्रह करने का अधिकारी कभी नहीं हो सकता। इसका मतलब यह नहीं कि वह गलतियों को न निकाले। उन्हें तो अवश्य निकालना चाहिये, नहीं तो सारी संस्था का सत्यानाश होने में देर नहीं लगती। लेकिन गलती निकालने के समय विशाल हृदय और शान्त बुद्धि की आवश्यकता होती है। साथ ही, बारह महीनों के बाद किसी की गलती निकालना यह मूर्खता है। बागवान की तरह रोज के रोज सूखी पत्ती, टूटी डंगाल, कीड़ा-जाली आदि किस झाड़ पर है इसे खोजते हुए संस्था की बाग को सुरक्षित रखना चाहिये। जितनी जिम्मेदारी जो संभाल सकता हो उतनी ही जवाबदारी उसकी ओर सौंप देनी चाहिये, अन्यथा उसकी गलती के भागी हम भी हो जाते हैं।

सबको हमें ऊपर उठाना है। लोग खुद से नहीं आ सकते तो उनको भी हमें प्रेम से खींच लाना है। फिर जो हमारे पास आ चुके, उन्हें हम किस मकसद पर गमा सकते हैं? लोक संग्रह का मतलब, काम में तैयार हुए लोगों को गमाना तो हरगिज नहीं हो सकता। उनकी जिम्मेदारी हम पर है, जो हम संस्था के चालक कहलाते हैं। गलती उनकी भी हो सकती है, लेकिन सूक्ष्मता से उसे ढूंढ़ निकालते हुए हमें कोई मार्ग निकालना होगा। साथ ही यह भी सोचना होगा कि, जब कोई झाड़ फूलों से लद जाता है, उस पर रंग चढ़ जाता है, दो इंसान भी देखने के लिये बेताब होते हैं, मधुमक्खियाँ तो उसपर टूट ही पड़ती हैं। परन्तु क्या बात है कि निकट वाले लोग भी हमसे छूटे जा रहे हैं? इस प्रश्न का उत्तर जिम्मेदार व्यक्ति को अपने दिल में खोजते रहना चाहिये और बागवान की तरह अपनी बाग को सजाने-सँवारने में अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिये।

जिम्मेदार व्यक्ति को सबके साथ सलाहमशविरा करते हुए कार्य करना चाहिये, केवल अपनी ही इच्छा को प्रमाण समझकर नहीं। साथ ही, अन्य संस्थाओं में जो बुराइयाँ हैं उनकी अपेक्षा हमारी गलतियाँ कम हैं ऐसा समझकर सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये, बल्कि औरों में जो अच्छाई है उससे भी हम आगे कैसे बढ़ें, इस बात पर दृष्टि केन्द्रीभूत करनी चाहिये। बूढ़ा आदमी मना करने पर भी—काम करता ही रहता है और यदि न करे तो बीमार पड़ता है, उसी प्रकार हमारे शरीर को परिश्रम और सेवा की आदत सी लग जानी चाहिये। इस प्रकार हम मिलजुलकर, अपनी जिम्मेदारी सावधानी से संभालते हुए अगर संस्था चला सकते हैं तो उसमें सबके साथ हमारा भी महान कल्याण होना स्वाभाविक है। देश में इन गुणों की आज चारों ओर जरूरत है। मैं आशा करता हूँ कि संस्था के जिम्मेदार लोग ये सभी ख्याल में रखते हुए आगे कदम बढ़ाते रहेंगे।

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