
भौतिक वाद एवं आध्यात्मिक वाद
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(श्री कृपालु जी महाराज)
आज समस्त संसार में जिस दिशा में दृष्टि डालिए अशान्ति तथा क्रान्ति का साम्राज्य छाया हुआ है। प्रत्येक मानव के मस्तिष्क में भयानक— भविष्य मंडरा रहा है। मानव से लेकर विश्व पर्यन्त व्यष्टि एवं समष्टि सभी, शान्ति तथा सुख के हेतु कातर होकर अव्यक्त आकाश की ओर भयभीत की भाँति निहार रहे हैं। सम्पूर्ण संसार के हाहाकार एवं चीत्कार की निवृत्ति के विचार धाराओं के अपार पारावार में डूबते-उतराते हुए भी किनारा नहीं खोज पा रहे हैं। कोई कहता सन् 57 (सत्तावन) आ रहा है, न जाने क्या होगा? कोई कहता है—विश्व-शान्ति— सम्मेलन हो रहे हैं अवश्य शान्ति हो जायेगी। कुछ कहा नहीं जा सकता। बड़े-बड़े बुद्धि के ठेकेदार संशयात्मक समस्या को लिए बैठे हैं। सुलझाने के बजाय उलझता ही हस्तगत सा हो रहा है।
यद्यपि यह कोई नवीन स्थिति तो नहीं। इतिहास में समय-समय यह सदा ही ऐसे अवसर आते रहे हैं। परिवर्तनशील संसार का स्वभाव ही है। तथापि कोई न कोई मार्ग सदा ही उपलब्ध हुआ है। अन्यथा तो यह वर्तमान विश्व ही मूल-विश्व के रूप में लुप्त हो गया होता।
समस्त विश्व के मत दो ही दृष्टिकोणों पर आधारित रहे हैं जिन्हें, हम “भौतिकवाद” आध्यात्मिकवाद’ के नाम से पुकारते आये हैं—इतिहास साक्षी है। अन्य सभी मत इन्हीं दोनों मतों में ही अन्तर्निहित है, यह निर्विवाद-सिद्ध सिद्धाँत है।
भौतिकवाद हम उसे कहते हैं जिसमें इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा ही उन्नति की जाय अर्थात् इन्हीं द्वारा परम—चरम—शाँति का अन्वेषण किया जाय ईश्वर आदि की किंचित भी अपेक्षा न हो।
आध्यात्मिक वाद हम उसे कहते हैं जिसमें मन, इन्द्रिय, बुद्धि के द्वारा किए गये अन्वेषण को मिथ्या एवं दुःखमय माना जाये। केवल ईश्वरीय शक्ति के द्वारा ही परम शाँति की साधना की जाय।
आधुनिक भौतिकवादियों का कहना है कि विश्व के उत्थान सम्बन्धी साधना में ईश्वर का पुट दिया गया तो समस्त विश्व गर्त में चला जायगा। इसकी सिद्धि में उनके पास भी पर्याप्त तर्क एवं ऐतिहासिक-प्रमाण हैं।
आधुनिक आध्यात्मिक वादियों का कहना है कि संसार के सामान मिथ्या है। उनमें प्रवृत्त होना ही मूर्तिमान अशान्ति का आवाहन करना है। इसकी सिद्धी के हेतु उनके पास पर्याप्त तर्क एवं ऐतिहासिक-प्रमाण है।
भावार्थ यह कि प्रकाश एवं अंधकार की भाँति इन दोनों मतों में भी क्रान्ति हो रही है। एक दूसरे की बात सुनना या समझना तक नहीं चाहते, अपनी अपनी डफलो से अपना अपना राग अलाप रहे हैं और कभी वहाँ से अशांत होकर आध्यात्मिक वाद की ओर प्रवृत्ति होती है। पुनः इसी प्रकार भौतिक वाद की ओर अग्रसर होती है। यह कोटि क्रम चला जा रहा है। न आधुनिक भौतिक वादी शांति का प्रत्यक्ष कर पा रहे हैं।
न आधुनिक अध्यात्मिक वादी ही अशान्ति की क्राँति से छुटकारा पा रहे हैं। विचित्र पहेली है। लाल बुझक्कड़ का पता नहीं है जो बुझ सके; फिर बूझे कौन?
भौतिक वाद की ज्वाला से कुछ देश झुलस कर चुपके चुपके अध्यात्म वाद की ओर मुड़ रहे हैं। एवं कुछ आध्यात्मिक वाद के आधुनिक दंभ जगत से भाग कर भौतिक वाद की छाया में क्षण भंगुर छाँह ले रहे हैं। पर वे कल्पना में ही शाँति का स्वरूप देख पा रहे हैं। वस्तु तस्तु भ्राँति में ही है।
भौतिक वादियों का उद्घोष है कि, ईश्वर वादी काहिल, अपाहिज एवं अकर्मण्य हो जाता है। परावलंबी होकर मानवता से भी गिर जाता है। उत्थान की तो पृष्ठभूमि भी नहीं बन पाती।
अध्यात्मवादियों का दुँदुभि घोष है कि, भौतिक वादी छल—कपट युक्त एवं विलासी बन जाता है। उसका लक्ष्य आत्म रंजन न बनकर लोक—रंजन मात्र का ही रह जाता है। वह अपने खयाली पुलाव एवं विचार धाराओं में ही रहता है।
वास्तव में दोनों ही विचार सुनने पर सत्य प्रतीत होते हैं। क्योंकि जब हम भौतिक वादियों की दलीलें सुनते हैं कि, ऐ अध्यात्मवादी भारत वासियों तुम्हारे यहाँ चोरी-जारी-मक्कारी क्यों होती हैं? तुम्हारा यह वर्तमान आध्यात्मवाद उसमें कितनी न्यूनता कर सका है, जबकि अन्य भौतिक वादी देशों में अमुक अपराध कम हो रहे हैं इत्यादि। तो मानना पड़ता है कि अध्यात्मवाद व्यर्थ या निरर्थक सा है। पुनः हम जब अध्यात्मवादियों की दलीलें सुनते हैं कि, ऐ भौतिक वादियों तुम्हारे राज्य में जनता के शारीरिक एवं मानसिक रोग दिन-दिन क्यों बढ़ते जा रहे हैं? तुम क्राँतिकारी आविष्कारों के बना कर क्यों विश्व को नष्ट करते जा रहे हो? तुम स्वार्थ सिद्ध के दास बनकर क्यों दूसरों को ठगने पर तुले हो? तुम्हारी वासनायें प्रतिक्षण क्यों तुम्हारी भौतिक उन्नति के साथ ही बढ़ती जा रही है। इत्यादि तो मानना है कि भौतिकवाद मिथ्या एवं भ्रमास्पद है।
इस प्रकार यह भी मानना पड़ता है, वह भी मानना पड़ता है। इन दोनों के मानने के चक्कर में अन्ततोगत्वा यही मानना पड़ता है कि कुछ नहीं मानना पड़ता है। सब बकवास है। जब तक शान्ति का मूर्तिमान स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से समक्ष न आ जाये हमारा मानना सब अनाश्रित सा ही मानना पड़ता है।
अस्तु यह तो ध्रुव सत्य है कि इस विलक्षण-विरोधाभास को बिना हटाये उन शान्ति महादेवी का साक्षात्कार नहीं हो सकता। किन्तु प्रश्न यह है कि इसका विरोध परिहार हो कैसे? इसी भौतिकवाद को एवं आध्यात्मिक वाद के विरोध समन्वय के हेतु ही मैंने यह निश्चय किया कि भारत के समस्त दार्शनिकों (फिलासफर्स) को आमंत्रित किया जाये एवं गम्भीर विचार-विमर्श द्वारा उनके हेतु कोई समन्वयात्मक– क्रियात्मक मार्ग– जनता-जनार्दन के समक्ष स्थापित किया जाये, जिसके परिणाम स्वरूप विश्व शान्ति की समस्या सुलझ सके। मैं न तो भौतिकवादी हूँ, न अध्यात्मवादी हूँ यह सुनकर आप लोगों को आश्चर्य न होना चाहिये, क्योंकि मैं विश्व शान्ति का वादी तो हूँ ही।
यह विश्व-शान्ति जिस वाद से भी हो, मैं उसी वाद का निर्विवाद वादी हूँ। दूसरे शब्दों में जिस वाद की साधना से प्रत्यक्ष रूप से शाँति प्राप्त हो मैं उसी का समर्थक हूँ।
अतएव मेरे विषय में दोनों सिद्धांतानुयायी अपना निश्चयात्मक, एकदेशीय निर्णय न करें। मैं चाहता हूँ कि क्रियात्मक रूप से कोई ऐसा समन्वयात्मक सुमार्ग समुपलब्ध हो, जिस पर अग्रसर होकर सभी सुख-शाँति का अनुभव करें। मैंने गत-वर्ष इसी उद्देश्य को लेकर चित्रकूट में (“अखिल-भारत वर्षीय-भक्ति योग-दार्शनिक-सम्मेलन”) के नाम से एक आध्यात्मिक सम्मेलन कराया था। उसमें जनता की दृष्टि से अद्वितीय सफलता मिलने पर भी मुझे सन्तुष्टि नहीं हुई। अतएव मैंने प्रश्न उपस्थित करते हुए “द्वितीय-अखिल भारत वर्षीय महाधिवेशन” कानपुर में 5 अक्टूबर से 19 अक्टूबर तक किया है। सभी महानुभावों से निवेदन है कि वे इस व्यक्तिगत एवं विश्वजनीन प्रश्न के हल को, समय निकाल कर सुने एवं इसके द्वारा क्रियात्मक साँचे में अपने जीवन को ढाल कर सुख-शान्ति का अनुभव करें।