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Magazine - Year 1956 - Version 2

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धर्म तत्व में समन्वय की आवश्यकता

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(श्री. डा. भगवानदास एम. ए.)

संसार के सब मतों का समन्वय विश्व की एकता के लिये अनिवार्य है। संसार में ऐसे प्रयत्न पहले भी हुए हैं। वास्तव में संसार में जो सबसे पुरानी बात है वही सदा नयी है।

नयो नवो भवति जायमानो अन्हां कतुः।

दिवसों के पताकारूप सूर्यदेव, अतिप्राचीन होते हुए भी, नित्य नये होकर प्रतिदिन जन्म लेते हैं। किन्तु संसार का ज्ञान प्राप्त करने के पहले आत्मज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। ज्ञानकाण्ड के बिना कर्मकाण्ड का साधन नहीं होता। आत्मा ही “मैं” ही सब कुछ है, क्योंकि बिना ‘मैं’ की चेतना के, बिना देखने वाले के यह सब दृश्य कुछ भी नहीं हो सकता—ऐसा जो देखता है, मानता है, जानता है, आत्मा में ही सुख पाता है, आत्मा से ही खेलता है, आत्मा को साथी बनाता है, आत्मा से ही आनन्द पाता है; वही विराट, अपना राजा, आत्मवश, स्वाधीन स्वतंत्र होता है, वह जिस लोक में जाना चाहता है वहाँ मानस कल्पना-शक्ति से जा सकता है। जो इसके विरुद्ध देखते हैं ‘मैं’ के बड़प्पन को नहीं पहचानते, आत्मा से ‘मैं’ से किसी दूसरे को बड़ा समझते हैं, उनके ऊपर दूसरे ही राजा होते हैं; उनके लोक उनकी सामग्री पराधीन और क्षीयमान होती है; किसी लोक में, किसी देश में, इसी भूलोक के विविध खण्डों देशों, द्वीपों, वर्षों में, तथा भुवः स्वः आदि लोकों में, वे मनमाने आदर-से सम्मान से नहीं घूम फिर सकते।

लगभग 1910-11 ई. में एक समाचार पत्र ने यह प्रश्न किया था कि ‘हिन्दू’ किसको कहते हैं, हिन्दुत्व का क्या विशेष व्यावर्तक लक्षण है, किस आचार-विचार वाले मनुष्य को हिन्दू कहना चाहिये। उस पत्र ने इस प्रश्न पर बहुत से जाने-माने लोगों के उत्तर-प्रत्युत्तर प्रकाशित किये। अन्त में यही सिद्ध किया गया कि जो अपने को ‘हिन्दू’ कहे वही हिन्दू है। किन्तु वास्तव में जिसे आज ‘हिन्दू धर्म’ कहते हैं उसका उचित नाम संस्कृत और परिष्कृत अवस्था में ‘मानव-धर्म’ था और अब भी होना चाहिये। जिस प्रकार मनुष्य शरीर में बहुत विभिन्न कर्म, धर्म, रूप, आकार और अवयव हैं; पर जब तक जीव-आत्मा-सूत्र-आत्मा उन सब का संग्रह किये रहता है—उन्हें एक सूत्र में बाँधे रहता है तब तक वे अत्यन्त भिन्न होते हुए भी मिल कर एक शरीर कहलाते हैं; पर जब वह सूत्रात्मा हट जाती है, तब उनके आपस में तरह तरह के विकार और विरोध पैदा हो जाते हैं, शरीर मृत होकर उसकी एकता नष्ट हो जाती है, सब अवयव विच्छिन्न हो जाते हैं, और सड़-गल जाते हैं। जैसे माला के दाने सूत्र से बंधे रहते हैं और शोभा देते हैं, पर उसके टूटने पर बिखर जाते हैं, वैसे ही आत्म सत्ता का, बुद्धिमत्ता का, आत्मज्ञ बुद्धि का, और विधि आचार-विचारों को और विधि आचार-विचारवानों को, अपने साथ, और एक दूसरे के साथ बाँधे रहते हैं, तब तक वे सब, एक एक, अपनी-अपनी हद के अन्दर अपना-अपना कर्म-धर्म करते रहते हैं, और समाज-शरीर की शोभा सौंदर्य-बल आदि की वृद्धि होती रहती है। जब ऐसा नहीं होता, तब वे एक दूसरे से कलह करके मर मिटते हैं।

हिन्दू धर्म में संसार के अन्य धर्मों के साथ सामंजस्य की, उनके मूल तत्वों को ग्रहण करने की शक्ति बीज रूप में निहित है। अधिकारी के भेद से धर्म में भेद होता है। देश, काल निमित्त के भेद से धर्मों में भेद होता है। जिस स्थान पर खड़े होकर हम देखते हैं उस स्थान के बदलने से दर्शन, दृश्य का रूप बदल जाता है। इस देश-काल-मात्र-निमित्त और कर्म की विशेषता से जो एक व्यक्ति के लिए धर्म है वही दूसरे आदमी के लिये दूसरे देश-काल और पात्र निमित्त और कर्म की विशेषता से, अधर्म होता है। केवल एक दो ग्रन्थ पढ़ लेने से धर्म का पता नहीं लगता; न सदा के लिये कभी न बदलने वाले धर्मों की सूची का परिपाठ कर दिया जा सकता है। अच्छी अवस्था का धर्म दूसरा और विषम अवस्था का धर्म दूसरा होता है।

छोटे बच्चों को मिट्टी के खिलौने अच्छे लगेंगे- उन्हें रेखागणित और बीजगणित में उलझाने का प्रयत्न व्यर्थ होगा। यही दशा मतों की, सम्प्रदायों की और पन्थों की है—’मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना।’ और ‘भिन्नरुचिर्हिलोकाः।’ प्रसिद्ध ही है; पर जब बचपन बीत जायगा तो खिलौने अपने आप छूट जायेंगे और दूसरे प्रकार के ऊंचे खिलौनों में मन लग जायगा।

अप्सु देवा मनुष्याणां, दिवि देवा मनीषिणाम्। बालानां काष्ठ लोष्ठेषु, बुधस्यात्मनि देवता। उत्तमा सहजाऽवस्था, द्वितीया ध्यान धारण, तृतीया प्रतिमा पूजा, होमयात्रा चतुर्थिका।

बच्चों के देवता काठ-पत्थर के खिलौनों में, मूर्तियों में, साधारण मनुष्यों के तीर्थ माने हुए सरिता, सरोवरों के जल में, मनीषी विद्वानों के सूर्यचन्द्र आदि आकाश में हैं, बुधका-बोधवान का, ज्ञानवान का देव, सर्वव्यापी अपनी आत्मा ही है।, सहज अवस्था, अर्थात् सब दृश्य संसार को ही परमात्मा का स्वरूप जानना, यह उत्तम कोटि है; विशेष-विशेष ध्यान धारण करना, यह उससे नीची दूसरी कोटि है, प्रतिमाओं-मूर्तियों की पूजा तीसरी कोटि है, और होम तथा यात्रा चौथी है।

इस प्रकार देखें तो हिन्दुओं में भी उपासनाओं के भेद हैं और उनमें अन्ध श्रद्धा का बाहुल्य है। मुसलमान स्वयं मूर्तिभंजक होते हुए भी कब्रों की पूजा करते हैं। मानव स्वभाव उपासना के विभिन्न मार्गों में भी एक अद्भुत सामंजस्य खोज लेता है जो इस बात का प्रमाण है कि मानव जाति में एक स्वभावगत मौलिक एकता है और उसके विचारों में सदैव समन्वय की गुँजाइश रहती है।

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