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Magazine - Year 1956 - Version 2

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चिन्ता और भय की क्या जरूरत?

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(श्री स्वामी शिवानंद सरस्वती)

भय, चिन्ता और उद्विग्नता का मूल कारण अविद्या है सुषुप्ति में जब मन ब्रह्म में स्थित है तब ये सब तटस्थ रहते हैं। जब मन शरीर से पृथक् रहता है तब वेदना की अनुभूति नहीं होती। अतएव यह स्वतः सिद्ध है कि ये सारे कार्य कलाप मन द्वारा विनिर्मित हैं। जब इन कुत्सित संस्कारों का जो कि इन आधि-व्याधियों के उत्पादक हैं, विवेक से उन्मूलन कर दें, तो आप आत्मानन्द के अलौकिक सुख को हस्तगत कर सकते हैं। आप अवश्य प्रयत्न करें। आपको घर-बाहर की चिन्ता है वित्त-परिवार की चिन्ता है। बस-बस यही चिन्ताओं का उद्गम है, यही बन्धन है और इसी से मुक्ति का नाम ज्ञान है। यह सम्बन्ध अथवा बन्धन ही चिन्ताओं का आवाहन करता है। यह अभिमान है जो अविद्या जन्य है। शरीर का मोह नष्ट कर, अहंता का उलझन काटकर जब जीवात्मा ब्रह्मत्व की ओर बढ़ता है जब अविद्या, अज्ञान, ममता और माया का पटाक्षेप हो जाता है, तथा अजस्र क्लेश, असीम वेदना, साँसारिक यातना और यंत्रणाओं का पीछा छूट जाता है और वह क्षणभंगुर अस्तित्व की विस्मृति कर सनातन अस्तित्व की उत्कंठा से आपूरित हो जाता है। यह देहाध्यास ही मूलभूत अज्ञान का कारण है। यही परम शत्रु है। आप इसकी ओर से उदासीन रहें। आप इस देह के मलकूप से निकल कर आनन्द मार्ग पर आयें।

आपको अपने सुन्दर मुख के मलीन हो जाने की चिन्ता रहती है। आपको अपने कालर टार्च के धूसरित हो जाने की चिन्ता रहती है। पाउडर और स्नो से जिसकी आप इतनी शुश्रूषा कर रहे हैं, वह कभी मरघट पर असहाय पड़ा रहेगा। यही शरीर श्रृंगालों का आहार मात्र रह जायेगा। इस पुत्र, वित्त, परिवार के लिए आप इतना जान दे रहें हैं वे वास्तव में आपके परम शत्रु हैं। आप जीवन देकर भी क्या इन्हें सुखी कर सकते हैं? कदाचित नहीं। आपको बच्चे के खिलौने पर भी सावधानी रखनी पड़ती है। आपको पत्नी की आवश्यकताओं पर भी तरस है। आप इसके प्रतिशोध में क्या पाते हैं—केवल प्रताड़ना या और कुछ? तात्पर्य, संसार यातना का ही पर्याय है। जिस प्रकार रेशम का कीड़ा और मकड़ी अपने जाल निर्माण अपने नाश के लिए ही करता है उसी प्रकार इन चिन्ताओं का सर्जन आप अपने हाथों से अपने ही नाश के लिए कर रहे हैं। सूर्य अपने ताप से समुद्र के जल को वाष्प बनाता है और वही बादल बनकर पुनः उसी को ढक लेता है। अतएव आपकी चिन्ता जिसके निमित्त है वही आपका क्षतिमूलक है।

एक वणिक को निरन्तर यह चिन्ता बनी ही रहती है कि वह किस प्रकार मिथ्या व्यवहार द्वारा भी लाभान्वित ही रहे। एक छात्र को सतत् परिश्रम के अनन्तर भी सफलता में संशय बना ही रहता है। तदनन्तर ठौर-ठौर ठोकर खाते हुए दासवृत्ति की चिन्ता और इसके उपरान्त विवाह और फिर परिवार की। जीवन का वृत्त चिंताओं से ही आच्छादित है। विद्युद्वत् कदाचित सुख की द्युति दृष्टिगोचर होती है और आप इसी की प्रत्याशा में काल यापन करते रहते हैं। चिंताओं के कारण आपके बाल श्वेत हो गए। आँखें सूज गई मस्तिष्क निष्क्रिय हो गया, अंग-प्रत्यंग शिथिल हो गए हैं। दिन-प्रतिदिन जरा को समक्ष देखकर आप म्लान मुख होते जा रहे हैं। फिर भी जीवन का कौन सा प्रश्न शेष रह गया है जिसका समाधान ढूंढ़ने के लिए आप कूड़े के ढेर पर से नहीं उठते। जीवन मृतक बनकर इन्द्रियों का क्रीतदास बनकर, मूढ़ मन का अनुगमन कर, साँसारिकता का बोझ सिर पर लेकर आप जिस मार्ग पर सफलता की प्रत्याशा में जो रहे हैं वह राह ध्वंस की ओर ले जायगी।

कवि मानस-व्यथा-पूर्ण भाव ही प्रकट करते हैं, साहित्यिकों की लेखनी पृष्ठों को अश्रु से ही सींच देती है, परन्तु क्या योगी और भक्तों के आन्तरिक व्यथा की छाया देखी है? भय और चिंताओं से त्रस्त कौन है जो दुराचारी है, कुकर्मी है, असंभव है कोई सत्पथारुढ़ हो फिर भी वह चिंता रत है। इसका एकमात्र कारण यही है कि जिस प्रकार काजल की कोठरी में कितनी भी सतर्कता से क्यों न प्रवेश करें, काजल की उक्त रेखा आपको छू ही देगी। यह काजल की कोठरी आपका परिवार, आपका वैभव और देहाध्यास है। आप इनमें जब तक आसक्त हैं तब तक आप स्वप्न में भी सुख की आशा न रखें। जिस प्रकार रूप के पीछे छाया तथा बैल के पीछे गाड़ी का पहिया लगा ही रहता है- उसी प्रकार आपके पीछे दुख-दैन्य लगा ही रहेगा। एक पक्षी माँस का टुकड़ा लेकर उड़ता है और उसे छीनने के लिए पीछे हजारों पक्षी पड़ जाते हैं। जब वह टुकड़े को पृथिवी पर छोड़ देता है। तभी चैन की सांस ले पाता है। हां, तो इसी प्रकार आप तब तक चिन्तित रहेंगे ही जब तक आपने परिवार और वित्त को अपना समझ रखा है। यह शारीरिक बन्धन ही नाश का मूल है। पारिवारिक बन्धन इसी का हेतु है। न आप परिवार के हैं, न यह परिवार आपका है, न आप शरीर के हैं और न यह शरीर आपका है। आज ही मल मूत्र के इस कूप से आप अपने स्वरूप को पहचानें। आप अमर आत्मा हैं। सत् चित् और आनन्द हैं, भय चिंता और क्लेश आपके साम्राज्य में कहाँ है? यह शोक और आतुर उच्छ्वास भी आपकी असमर्थता नहीं, बल्कि यह शरीर के प्रारब्ध कर्म का भोग मात्र है। और आप शरीर नहीं। आप असंग विरक्त अकर्ता और अभोक्ता हैं। शुद्ध सनातन और आनन्दमय ब्रह्म हैं। एक ब्रह्म यही ज्ञान है। जरा चित्त देकर सोचें कि गगनचारी कितना आह्लादित है जिसे चिंता छू नहीं पाती। आप उससे भी अधमतर हैं। एक परमहंस संन्यासी को देखें जिसकी मस्ती पर आपको तरस आयेगा। जिसके तन पर एक चिथड़ा नहीं रहता उस एक अवधूत को देखें, क्या उसे हिमालय के हिम कण गला सकते हैं, अथवा उसे अविरल वर्षा की ही परवा है? क्या उसे भूख प्यास भी लगती है? आप नहीं जानते होंगे आप अपनी चिंताओं से कहिए.... नमस्ते, मैं तुमसे कहीं ऊपर हूँ तुम मुझे छू नहीं सकते। मैं हूँ आनन्द, आरोग्य और उल्लास। मैं हूँ नित्य मुक्त, सर्वव्यापक, सर्वसमर्थ आत्मा.... जिसे न अग्नि जला सकती है और न शीत कंपा सकती है, और न मृत्यु ही नष्ट कर सकती।

अनुभव कीजिये और स्मित हास मय आनन रखिये। रोये हुये को भी हास्य का आसव पिलाइये। मानव जीवन रोने के लिए नहीं है। आप निरर्थक रोग-शोक-सन्ताप से मुख मोड़कर आत्मानन्द का उपभोग करें, आत्मा में ध्यान करें, आत्मा में ही रमन करें। क्योंकि आप अमर आत्मा ही हैं। यह साँसारिक उलझन यथा शीघ्र तोड़कर आप ईश्वर साक्षात्कार करें तथा जीवनमुक्त बनें, यह अनर्गल पारिवारिक प्रलाप का विस्मरण कर हर्षोत्फुल्ल होकर गायें....

देहोनाहम् जीवोनाहम् ब्रह्मैवाहम् ब्रह्मोहम्

सोऽहम् सोऽहम् सोऽहम् शिवोऽहम् शुद्ध सच्चिदानंदोऽहम्

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