
कैसा है वह धर्म फेरता माला चुप-चुप (Kavita)
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स्वप्न मुरलिका पर बैठे स्वर साध रहे तुम?
जब कि सत्य की अस्मत दुश्मन लूट रहा है,
कि शाँति की राजकुमारी की छाती पर
महायुद्ध का भीषण विषधर टूट रहा है!
क्या है वह तरुणाई, जो विद्रोह न कर दे,
शीश कटे जब कभी किसी के अहंकार का;
कैसा है वह बागबान, खामोश रहे जो
रहा हो कंठ कि जब कोई बहार का!
ई बुज़दिल कह-कह कर छेड़ रहा हो,
है वह खड्ग म्यान का मोह न छोड़े;
कैसा है वह गर्व शोर तो खूब मचाए
आगे बढ़ कर तुरत जुल्म का वक्ष न तोड़े!
कैसा है वह शंख, शिवालय की छाया में,
देव - मूर्ति के आगे गाए खूब आरती;
धारण कर ले मौन, मगर जब सेना कोई
बहुत देर से खड़ी हुई हो मुख निहारती!
कैसी है वह ध्वजा, पवन में खूब उड़े जा,
किन्तु धुएँ का दुर्ग देख कर शीश झुका ले,
इन्द्र-धनुष की तरह गगन में तभी उगे, जब
साथ-साथ चलते हों बादल के रखवाले!
कैसी है वह आग, प्राण में रही धधकती,
लेकिन सीना तोड़ शत्रु की ओर न दौड़ी;
कैसा है वह लहू, गर्म होकर जो सहसा
बाहर आ न सका खुद तोड़ कलाई चौड़ी!
कैसी है वह मुट्ठी, बँध-बँध कर खुल जाए,
और सामने खड़ा शत्रु सव्यंग्य विहँस दे,
कैसी है वह बाँह, जुल्म की कमर न तोड़े
एक बार यदि पूरा जोर लगा कर कस दे!
तट पर बैठे हुए घरौंदे बना रहे तुम?
जब कि समन्दर की छाती में ज्वार तड़पता!
तुम फूलों की सेज सजाकर शयन कर रहे,
जब कि किसी की छाती पर अंगार तड़पता,
कैसा है वह धम, फेरता माला चुप-चुप
जब कि किसी की गंगा पर बारूद बरसता;
कैसा है वह प्यार, हाथ मल कर रह जाए
चूस रहा जब दनुज रूप की सरल सरसता!
कैसा है वह कृषक, देखकर आँख चुरा ले,
नई सुबह की फसल अधपकी मुरझ रही हो,
किसी खेत की हँसती-गाती पगडंडी पर
महा नाश की विषमय बिजली गरज रही हो!
कैसी वह सभ्यता, रहे जो खड़ी देखती,
कोई बरसा ज्वाल किसी का चमन लूट ले,
कैसा है वह देशभक्त, जो तड़प न जाए,
कोई दे धमकियाँ किसी का वतन लूट ले!
या तो यह कह दो, जीवन ही रहा न तुम में,
या यह मानो जीवित हैं, पर, पुरुष नहीं हैं;
परम्परा के भक्त, न आगे बढ़ पायेंगे,
जहाँ रुका था गौतम, अब भी खड़े वहीं हैं।
देखो, लुट न कहीं जाए सिन्दूर सुबह का,
अन्धकार का साम्राज्य फैले न जगत पर,
नई किरण जो उतर रही है आसमान से,
कहीं आत्महत्या कर लेट न जाए पथ पर
नई जिन्दगी का न खून कोई कर डाले,
नई पौध को कोई लगा न जाए फाँसी;
कोई कालिख नहीं पोत दे नई ज्योति पर
लौट न जाए कहीं नई चेतना रुआँसी।
पूरा जोर लगा कर यह जयघोष गुँजा दो,
हाथ मनुजता के ही यह मैदान रहेगा!
सेहरा पुनः बँधेगा केवल शीश सत्य के
और विपथगामी केवल अपमान सहेगा!
यह कि आदमी पशु से बहुत-बहुत ऊँचा है,
बौने हाथ दनुज के उस को छू न सकेंगे,
यह मन्वन्तर मनु से बहुत-बहुत आगे है
छू न सकेंगे, चरण प्रलय के व्यर्थ थकेंगे।
अय मेरे साथियो, उठो, तलवार थाम लो,
शीश रहे या जाय, प्राण का दाव लगा दो,
पाँव बढ़ा दो, नया जागरण बुला रहा है
ज्वाला धधका दो, हर सोई आँख जगा दो।
कोई हाथ न दीखे ऐसा खड्ग-हीन हो,
कोई म्यान न दीखे, जिस की गोद भरी हो,
पहले तुम टूटो, पीछे टूटे वह गर्दन
जो अपना अधिकार बचाने को उभरी हो।
*समाप्त*
श्री बालस्वरूप राही
श्री बालस्वरूप राही