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Magazine - Year 1958 - Version 2

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शास्त्रवाद और बुद्धिवाद का समन्वय

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(डॉ. भगवानदास जी एम. ए.)

हिन्दू जाति में धर्म ग्रन्थों की संख्या अत्यधिक है। हम लोग यद्यपि ईसाई, यहूदी, पारसी, मुसलमान आदि धर्मों को हिन्दू धर्म से निम्न कोटि का समझते हैं और यदि आध्यात्मिक और दार्शनिक तत्वों की विवेचना की दृष्टि से देखा जाय तो इस कथन को सर्वथा असत्य भी नहीं कह सकते। तो भी उन धर्मों में एक ही धर्म स्थापना और एक ही धर्म ग्रन्थ को मान्यता प्रदान की जाती है, इस कारण उनके अनुयायियों में धार्मिक नियमों का पालन और आचरण कहीं अधिक परिमाण में देखने में आता है। इसके विपरीत हिन्दू धर्म में उच्चकोटि का आध्यात्मिक और दार्शनिक ज्ञान होते हुए भी अनेक धर्म संचालकों और अनेक धर्म शास्त्रों के होने के कारण इतनी अधिक मत विभिन्नता और उसके फल से पारस्परिक मतभेद देखने में आता है कि समस्त हिन्दुओं को एक धर्म का अनुयायी कह सकना भी एक समस्या हो जाती है। वैसे विद्वानों ने इन मत को भिन्न भिन्न स्तर (श्रेणी) के मनुष्यों के भेदों, अनुकूल, सरल अथवा कठिन धर्माचरण बतला कर उनका सामंजस्य करने की चेष्टा की है, पर कम से कम व्यवहार में तो इस समय इस परिस्थिति का परिणाम अच्छा नहीं जान पड़ता। इसके कारण नीची श्रेणी के अल्प बुद्धि बनते, वरन् पूर्ण विद्वान कहलाने वाले भी धार्मिक सिद्धान्तों और नियमों का अर्थ एक दूसरे से बिल्कुल उल्टा लगाते हैं। इसके फल से समाज में स्पष्ट रूप से फूट और कलह उत्पन्न होती है और वह विशृंखल और निर्बल बनता है।

हिन्दू जाति के कल्याण के लिए यह परमावश्यक है कि आंखें बन्द करके ‘शास्त्र की दुहाई’ देने की प्रवृत्ति को यथासम्भव कम किया जाय। शास्त्र समय-समय पर बने हैं और उनमें उस समय की परिस्थिति के अनुसार आवश्यकीय परिवर्तन किये गये हैं। इसके अलावा भारतवर्ष स्वयं एक महाद्वीप के तुल्य हैं और इसमें भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोगों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार और सामाजिक नियमों में बहुत अधिक अन्तर रहा है, पर इन सब लोगों को हिन्दू ही माना जाता है। इसके अतिरिक्त इधर एक हजार वर्षों के विदेशी शासन के प्रभाव और वैज्ञानिक आविष्कारों के कारण प्राचीन परिस्थिति बहुत अधिक बदल गई है और हम चाहे मुँह से ‘शास्त्र-शास्त्र’ चिल्लाते रहें पर उनके अनेक नियमों का पालन नहीं कर सकते। उदाहरण के लिए रेल की यात्रा और कारखानों में हजारों मजदूरों के एक साथ काम करने की अवस्था पर विचार कीजिये तो आपको स्पष्ट जान पड़ेगा कि वहाँ पर शास्त्रों में बतलायें चौका-चूल्हे और छुआछूत के नियमों पर चल सकना प्रायः असम्भव होता है। इसलिए यह अनिवार्य है कि हिन्दू विद्वान स्वयं शास्त्रों के वास्तविक तत्व पूर्ण सिद्धान्तों के अनुकूल वर्तमान समय के व्यवहारोपयोगी नियम निर्धारित करें। इस समय हिन्दू-शास्त्र कहाने वाले ग्रन्थों और नियमों में कैसा वैषम्य हो गया है, इसका विवेचन बनारस के शास्त्रीय विषयों के मर्मज्ञ विद्वान बा. भगवानदास जी ने बड़े स्पष्ट रूप में किया है जिससे विदित होता है कि इस प्रवृत्ति से हिन्दू समाज में कैसा अड़ंगा लगा हुआ है।

शास्त्रों के सम्बन्ध में जो तर्क-वितर्क प्रायः हुआ करता है उसका निचोड़ यही है कि हमको अन्त में ‘बुद्धि’ की शरण लेनी चाहिए। यदि ‘शास्त्र’ शब्द ही पकड़ा गया तो फिर उसके साथ चलना कठिन हो जायगा। उदाहरण के लिए शास्त्रों में एक ओर तो अहिंसा को मुक्ति का एक प्रधान साधन माना है, दूसरी ओर अन्य शास्त्रों में बकरा, भैंसा, घोड़ा तथा मनुष्य तक का बलिदान देने का विधान है। “सोत्रामण्याँ सुराँ पिवेत्” यह भी वेद विदित है। फिर इतने पर ही समाप्ति क्यों? शाक्त सम्प्रदाय वाले तंत्र ग्रन्थों को ही सबसे बड़ा ‘शास्त्र’ बतलाते हैं, उनके ‘शास्त्र’ की आज्ञा मानकर पंच मकार का सेवन क्यों न किया जाय? यदि नहीं, तो क्यों नहीं? इस प्रश्न का उत्तर देने का जब आप प्रयत्न करेंगे तो आपको विदित हो जायगा, कि बुद्धि की शरण लेने के अतिरिक्त आपको कोई दूसरा उपाय नहीं है।

हिन्दुओं की ढाई हजार जाति और उपजातियों में से प्रत्येक का अपना ‘शास्त्र’ अलग है। भोजन के विषय में, विवाह के विषय में, दाय-भाग के विषय में अनन्त भेद हैं, जो सभी ‘शास्त्रीय’ बतलाये हैं। मनु ने आठ प्रकार के विवाह और बारह प्रकार के पुत्र कहे हैं। दाय-भाग के विषय में ‘मिताक्षरा’ कुछ कहती है, ‘जीमूतवाहन’ का मत कुछ और है, ‘दत्तक मीमाँसा’ और ‘अपरार्क’ में भिन्न बातें बतलाई गई हैं। इनमें से आप किसको ठीक मानेंगे, क्योंकि ये सभी माननीय ‘शास्त्र’ स्वीकार किये जाते हैं।

जब किसी शास्त्र सम्मत मानी जाने वाली बात का विरोध किया जाता है तो शास्त्रवादी प्रायः वह दलील पेश करते हैं कि “इस प्रथा या नियम को लाखों, करोड़ों आदमी हमारे पूर्वज इतने पुराने समय से मानते आये हैं, तो वे क्या खूब मूर्ख थे” इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि “करोड़ों आदमी अति प्राचीन काल से शराब पीते आये हैं और शास्त्रों में भी अनेक जगह इसका विधान पाया जाता है, भगवान कृष्ण के बड़े भाई और अंशावतार बलरामजी घड़ों शराब पी जाते थे, तो क्या शराब पीना शास्त्र सम्मत और श्रेष्ठ कार्य मान लिया जाय?” वास्तविक बात तो यह है कि ‘शास्त्र’ या प्राचीन ग्रन्थों में लिखी होने से ही किसी बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता। उसे बुद्धि के तराजू पर तोलना और उसकी उपयोगिता को समझ लेना भी आवश्यक है। भगवान मनु ने कहा है :-

एकोअपि वेदाविद् धर्म यं व्यवस्येद् द्विजोतमः। स विज्ञेयः परो धर्म्मा, न अज्ञानाँ उदितौ अयुतैः॥

(अ. 12 श्लोक 113)

अर्थात् “एक भी सच्चा तपो विद्या युक्त विद्वान, वेद वेदान्त का मर्म जानने वाला जो निर्णय कर दे, उसको धर्म मानना चाहिये, पर दस हजार अज्ञ (अनजान) भी जो कहें उसे नहीं मानना चाहिए।”

‘शास्त्रों’ के नाम पर अंध श्रद्धा के अत्यन्त बढ़ाने का ही फल है कि हिन्दू जाति की दासत्व बुद्धि प्रतिदिन अधिकाधिक बढ़ती गई। उन्होंने कब्रों और दरगाहों पर जाकर भी मस्तक झुकाया। काशी की पंचकोशी यात्रा में एक बार देखा गया कि एक आदमी ने अपने को ‘ब्राह्मण’ कहकर एक मील के पत्थर को ‘महादेव’ बतलाया और अनेक देहातियों ने उस पर फूल, पत्ते, पानी और पैसे चढ़ाये और उन पैसों को लेकर ‘ब्राह्मण’ देवता चल दिये।

इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि जब तक भारतवासी स्वतन्त्र विचार के रहे, तर्क के बल पर चले, तब तक हिन्दू जाति जीवित रही, अर्थात् मूल सिद्धान्त को स्थिर रखते हुए विशेष आचार, धर्म-कर्म, विधि-निषेध समय-समय पर अवस्थानुसार बदलते रहे। अन्य बातों को छोड़कर केवल एक इसी बात पर विचार कीजिये कि जब आरम्भ में समस्त व्यवहारों का निर्णय करने के लिए मनुस्मृति बन ही चुकी थी, तो फिर सत्ताईस अन्य स्मृतियाँ क्यों बनाई गई? इसका कारण यही हो सकता है कि मनु के मूल सिद्धान्तों को अटल रखते हुए थोड़ा बहुत हेर-फेर गौण बातों में समय-समय पर होता रहा है। पर जब से हम अन्ध-विश्वासी बने या बना दिये गये तब से शास्त्रों की प्रगति रुक गई। अब उन प्रगतिशील ऋषियों की हम ऐसी अकर्मण्य सन्तान हैं, कि शास्त्रों की दुहाई देने के सिवाय अपनी विवेक बुद्धि से काम लेना ही नहीं जानते।

इसका आशय यह नहीं कि हम अपने शास्त्रों को त्याग दें या उनकी निन्दा करें। हमको कालक्रम से बिगड़ी हुई परिस्थिति को सुधारने का प्रयत्न करना चाहिए न कि एक दूसरे की कटु आलोचना करके अपनी संगठन शक्ति को और भी निर्बल करना। इसलिए उचित यही है कि प्रमाणित प्राचीन ग्रन्थों को ही मान्यता दी जाय और उनके मूल सिद्धान्तों को संग्रह करके गौण बातों अथवा ‘उपनियमों’ को वर्तमान परिस्थिति के अनुकूल निर्धारित किया जाय। यदि यह कार्य सार्वजनिक रूप से दलबन्दी या प्रतिद्वन्दिता की भावना को दूर रखकर किया जायगा तो निस्सन्देह इससे समाज का कल्याण होगा।

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