• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • युग के चरण
    • युग के चरण (Kavita)
    • सत्य व्यवहार की अपार शक्ति
    • स्वतंत्रता, समता और न्याय की स्थापना
    • भगवान बुद्ध के कल्याणकारी उपदेश
    • भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक आधार
    • शास्त्रवाद और बुद्धिवाद का समन्वय
    • कर्म और मानवीय प्रगति
    • मंत्र सिद्धि द्वारा आत्म साक्षात्कार
    • कल्पवृक्ष आपके पास ही हैं।
    • छठी इन्द्रिय और उसकी चमत्कारी शक्ति
    • स्नान की लाभदायक विधि
    • क्या रसायन विद्या सच्ची है?
    • गायत्री उपासना के अनुभव
    • यज्ञोपवीत एवं गुरु दीक्षा का स्वर्ण सुअवसर
    • धर्म जागृति के महान् केन्द्र-देव मन्दिर
    • मंत्र लेखन-एक महान साधना
    • धर्म प्रेमियों के सत्प्रयत्न
    • VigyapanSuchana
    • कैसा है वह धर्म फेरता माला चुप-चुप!
    • कैसा है वह धर्म फेरता माला चुप-चुप (Kavita)
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1958 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक आधार

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 5 7 Last
(डॉ. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

संसार की समस्त संस्कृतियों में भारत की संस्कृति ही प्राचीनतम है। आध्यात्मिक प्रकाश संसार को भारत की देन है। गीता, उपनिषद्, पुराण इत्यादि श्रेष्ठतम मस्तिष्क की उपज हैं। हमारे जीवन का संचालन आध्यात्मिक आधारभूत तत्वों पर टिका हुआ है भारत में खान-पान, सोना बैठना, शौच स्नान, जन्म-मरण, यात्रा, विवाह, तीज-त्यौहार आदि उत्सवों का निर्माण भी आध्यात्मिक बुनियादों पर है। जीवन का ऐसा कोई भी पहलू नहीं है, जिसमें आध्यात्म का समावेश न हो, या जिस पर पर्याप्त चिन्तन या मनन न हुआ हो।

भारतीय संस्कृति मनुष्य मात्र को क्या, संसार के प्राणीमात्र और अखिल ब्रह्माण्ड तक को भगवान का विराट् रूप मानती है। भगवान इस विराट में आत्म रूप होकर प्रतिष्ठित हैं और विश्व के समस्त जीव-जन्तु, प्राणी, स्थावर जंगम उसमें स्थिर हैं। वे अंग हैं और ये सब अंग जीवन के अन्त तक सब में यह भावना समाविष्ट रहे, एक मात्र इसी के लिए योग्यता, बुद्धि, सामर्थ्य के अनुसार अनेक कर्तव्य निश्चित हैं। कर्तव्यों में विभिन्नता होते हुए भी प्रेरणा में समता है, एक निष्ठा है, यह उद्देश्य है और यह उद्देश्य “आध्यात्म” कहलाता है। एक अध्यात्म लादा नहीं गया है, थोपा नहीं गया है, बल्कि प्राकृतिक होने के कारण स्वाभाविक है।

विराट के दो भाग हैं। एक है अनन्तः चैतन्य और दूसरा है बाह्य अंग। बाह्य अंग के समस्त अवयव अपनी-अपनी कार्य दृष्टि से स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं। कर्तव्य भी उनकी उपयोगिता की दृष्टि से प्रत्येक के भिन्न-भिन्न हैं, लेकिन ये सब हैं उस विराट अंग की रक्षा के लिए, उस अन्तः चैतन्य को बनाये रखने के लिए। इस प्रकार अलग होकर और अलग कर्मों में प्रवृत्त होते हुए भी जिस एक चैतन्य के लिए उनकी गति हो रही है, वही हिन्दू संस्कृति का मूलाधार है। गति की यह एकता-समसत्ता विनष्ट न हो इसी के लिये संस्कृति के साथ धर्म जोड़ा गया है। और यह योग ऐसा हुआ है जिसे पृथक नहीं किया जा सकता। यहाँ तक दोनों समानार्थक से दिखाई पड़ते हैं।

“धर्म” शब्द की व्युत्पत्ति से ही विराट की एकतानता का भाव स्पष्ट हो जाता है। जो वास्तविकता है, उसी को धारण रखना धर्म है, वास्तविक है, चैतन्य है। यह नित्य है, अविनश्वर है, शाश्वत है। सभी धर्मों में आत्मा के नित्यत्व को, शाश्वतपन को स्वीकार किया गया है। लेकिन अंग में पृथक दिखाई देते रहने पर भी जो उसमें जो एकत्व हैं, उसको सुरक्षित रखने की ओर ध्यान देने से विविध सम्प्रदायों की सृष्टि हो पड़ी है। हिन्दू धर्म में इस एकता को बनाये रखने, जाग्रत रखने की प्रवृत्ति अभी तक कायम है। यही कारण है कि संसार में नाना सम्प्रदायों-मजहबों की सृष्टि हुई लेकिन आज उनका नाम ही शेष है। पर हिन्दू धर्म अपनी उसी विशालता के साथ जीवित है। हिन्दू धर्म वास्तव में मानव धर्म है। मानव की सत्ता जिसके द्वारा कायम रह सकती है और जिससे वह विश्व चैतन्य के विराट अंग का अंग बना रह सकता है, उसी के लिए इसका आदेश है।

हिन्दू धर्म की विशेषता की सबसे बड़ी देन उसकी अपनी विशिष्ट उपासना पद्धति है। विश्व आत्मा की उपासना के लिए उसके समय विभाग में कोई एक समय निश्चित नहीं है। उपासना देश और काल में विभाजित नहीं है। उसका तो प्रत्येक क्षण उपासनामय है। वे अपने विश्व चैतन्य को एक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहते, बल्कि गतिविधि का प्रत्येक भाग इन चैतन्यदेव के लिए ही लगाना चाहते हैं।

उपासना की दृष्टि से विराट पुरुष चार भागों में विभक्त हैं और समय भेद से भी उनके चार भाग कर दिये गए हैं। ये दोनों प्रकार के चार भाग हिन्दू संस्कृति में वर्ण एवं आश्रमों के नाम से पुकारे जाते हैं। यों समस्त ब्रह्माण्ड में वर्ण धर्म और आश्रम पाये जाते हैं, लेकिन हिन्दू संस्कृति उन्हें पृथक नहीं रहने देना चाहती। उसकी दृष्टि में उनका अस्तित्व तब तक ही है, जब तक कि विराट पुरुष की रक्षा के लिए उनकी गतिविधि है। दूसरे शब्दों में विश्व चैतन्य की सामंजस्य स्थापना में अपने को लगाये हुए है। अन्य संस्कृतियाँ या धर्मों की गति विधि विराट् के प्रति नहीं है। वे अंग के अंश तक ही सीमित हैं। कोई भी बुद्धि विशिष्ट व्यक्ति इस बात को स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता कि समस्त शरीर का ध्यान छोड़कर शरीर के किसी एक ही अंग का ध्यान रखने से शरीर की रक्षा सम्भव ही नहीं हो सकती। अतः जो लोग चैतन्य को भुलाकर, जिसने कि विराट् पुरुष के शरीर को विभिन्न अंगों के द्वारा एक कर रखा है, अलग-अलग अंगों तक ही अपने को सीमित रखते हैं और अपने साथी एवं सहयोगी दूसरे अंगों को न सिर्फ भुला देते हैं, बल्कि उनके साथ प्रतिस्पर्धी बनकर उनकी सत्ता ही खो देना चाहते हैं, वे स्वयं भी अपनी सत्ता कैसे स्थिर रख सकते हैं?

इसलिए हिन्दू संस्कृति में इस स्पर्द्धा से बचने के लिए जीवन के आरम्भ काल में प्रत्येक को स्वरूप ज्ञान करने का आदेश है। चिन्मय सत्ता के साथ विराट के साथ व्यक्ति को जोड़ने वाली इस कड़ी का नाम ब्रह्मचर्याश्रम है।

“ब्रह्मचर्याश्रम” इस नाम से ही ध्वनित होता है कि मानव की वह स्थिति है, जिसमें कि ब्रह्म में विराट् पुरुष में, विश्वात्मा में भ्रमण करना, उसके प्रति अपने को समर्पित करना सिखाया जाता है। ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्र नाम से जिन चारों वर्णों को व्यक्त किया जाता है, उनका विभेद उनकी कार्य क्षमता की दृष्टि से ही किया जाता है और फिर इन्हीं चारों में अन्तर्भाव हो जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम इन चारों को ही ब्रह्म में वरण करने की विद्या सिखाता है।

शरीर के मुख, बाहु, उरु, पाद का काम अपने लिए नहीं है, समस्त शरीर के लिए है, उसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का काम अपने लिए नहीं विराट् पुरुष के लिए है। इस दृष्टि को अन्त तक बनाये रखने की शिक्षा ब्रह्मचर्याश्रम में दी जाती है। यह आश्रम कर्म प्रधान है, व्यवहार प्रधान है। जो शिक्षा पाई है, उसे जीवन में उतार लाना। इस शिक्षा का क्रियात्मक रूप गृहस्थाश्रम से आरम्भ होता है, वानप्रस्थ में इसकी वृद्धि होती है और संन्यास में परिपक्वता आती है।

इस प्रकार शरीर में रहकर और शरीर रक्षा के लिए ही अपना रक्षण और अस्तित्व बनाये रखकर शरीर के प्रति आत्मोत्सर्ग कर देना शरीराँगों का काम है। विश्व-आत्मा के लिए उसी प्रकार अपना अस्तित्व रखकर कार्य करते हुए उत्सर्ग कर देना वर्ण धर्म का उद्देश्य है। चैतन्य शक्ति को क्षण भर भी न भुलाने वाली यह हिंदू संस्कृति हमेशा आत्मा की ओर ही अभिमुख रहती है और इस प्रकार अभिमुख रहना ही हिंदू धर्म को बचाये रहने का एक मात्र साधन है।

हिन्दू धर्म आध्यात्म प्रधान रहा है। आध्यात्मिक जीवन उसका प्राण है। अध्यात्म के प्रति उत्सर्ग करना ही सर्वोपरि नहीं है, बल्कि पूर्ण शक्ति का उद्भव और उत्सर्ग दोनों की ही आध्यात्मिक जीवन में आवश्यकता है। कर्म करना और कर्म का चैतन्य के साथ मिला देना ही यज्ञमय जीवन है। यह यज्ञ जिस संस्कृति का आधार होगा, वह संस्कृति और संस्कृति को मानने वाली जाति हमेशा अमर रहेगी।

हिन्दू जाति कभी भी धन के पीछे नहीं पड़ी। ऐश्वर्य, यश, प्रतिष्ठा, धन इत्यादि सब कुछ इन्हें विपुलता से प्राप्त हुआ। यह धन शायद अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा कहीं अधिक था, पर भारतीय संस्कृति का आधार अर्थ, लाभ, धन, विलास कभी नहीं रहा है। युगों तक भारत शक्तिशाली बना रहा, पर तो भी शक्ति उसका आदर्श कभी नहीं बना। अपनी शक्ति का कभी उसने दुरुपयोग नहीं किया। साम्राज्य बढ़ाने, दूसरों का दमन करने, हिंसा, मारकाट या पद लोलुपता का भारत कभी शिकार नहीं बना। धन और पाशविक शक्ति कभी भी उसकी प्रेरक शक्तियाँ नहीं बन सकीं।

यही एक ऐसी संस्कृति रही है, जिसने जीवन के ऊपरी स्तर की चिन्ता कभी नहीं की है। बाहरी तड़क-भड़क में उसका कभी भी विश्वास नहीं रहा है। यह साँसारिक जीवन सत्य नहीं है। सत्य तो परमात्मा है, हमारे अन्दर बैठी हुई साक्षात् ईश्वर स्वरूप आत्मा है, वास्तविक उन्नति तो आत्मिक उन्नति है। इसी उन्नति की ओर हमारी प्रवृत्ति बढ़े, इसी में हमारा सुख-दुख हो। यही हमारा लक्ष्य रहा है। अपने हाल के इतिहास में भी भारत ने अपनी संस्कृति, अपने धर्म, अपने ऊंचे आदर्शों को प्रथम स्थान दिया है। हिन्दू का खाना धार्मिक, पीना धार्मिक, उसकी नींद धार्मिक, उसकी वेश-भूषा धार्मिक, उसके विवाह, मृत्यु आदि धार्मिक अर्थात् सर्वत्र ईश्वर, आत्मा और धर्म की प्रेरणा रही है। यही इस देश और जाति की सजीवता का एकमात्र कारण है।

First 5 7 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • युग के चरण
  • युग के चरण (Kavita)
  • सत्य व्यवहार की अपार शक्ति
  • स्वतंत्रता, समता और न्याय की स्थापना
  • भगवान बुद्ध के कल्याणकारी उपदेश
  • भारतीय संस्कृति का आध्यात्मिक आधार
  • शास्त्रवाद और बुद्धिवाद का समन्वय
  • कर्म और मानवीय प्रगति
  • मंत्र सिद्धि द्वारा आत्म साक्षात्कार
  • कल्पवृक्ष आपके पास ही हैं।
  • छठी इन्द्रिय और उसकी चमत्कारी शक्ति
  • स्नान की लाभदायक विधि
  • क्या रसायन विद्या सच्ची है?
  • गायत्री उपासना के अनुभव
  • यज्ञोपवीत एवं गुरु दीक्षा का स्वर्ण सुअवसर
  • धर्म जागृति के महान् केन्द्र-देव मन्दिर
  • मंत्र लेखन-एक महान साधना
  • धर्म प्रेमियों के सत्प्रयत्न
  • VigyapanSuchana
  • कैसा है वह धर्म फेरता माला चुप-चुप!
  • कैसा है वह धर्म फेरता माला चुप-चुप (Kavita)
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj