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Magazine - Year 1958 - October 1958

Media: TEXT
Language: HINDI
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रामकृष्ण परमहंस की स्वर्णिम सूक्तियाँ

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First 21 23 Last
मानवी गुरु कान में मंत्र फूँकते हैं और दैवी गुरु आत्मा में तेज।

परोपकारी महात्मा लोग ईश्वर के नजदीकी सम्बन्धी हैं और दूसरे संसारी मनुष्य तो उसके केवल उत्पन्न किये प्राणी मात्र हैं।

जिस घर में साँप अधिक हों उस घर में रहने वाला मनुष्य जिस प्रकार बड़ा सावधान रहता है उसी प्रकार संसार में रहने वाले मनुष्यों को विषय वासना और लोभ में पड़ने से सावधान रहना चाहिये।

शान्ति और सद्गुण युक्त जीवन व्यतीत करने के लिये लोगों की प्रशंसा और निन्दा पर ध्यान देना छोड़ दो।

सोने और पीतल को कसौटी पर रगड़ने से मालूम हो जाता है कि कौन सोना है और कौन पीतल है। उसी प्रकार संकट और आपत्ति की कसौटी पर रगड़ने से सच्चे और ढोंगी साधुओं की परीक्षा हो जाती है।

मोती गहरे समुद्र में होते हैं। उनको पाने के लिये गहरी डुबकी लगानी पड़ती है और बड़ा प्रयत्न करना पड़ता है। इस संसार रूपी सागर में ईश्वर को प्राप्त करने की भी यही विधि है।

दाद को खुजलाने में पहले जितना सुख जान पड़ता है खुजलाने के बाद उतनी ही असह्य पीड़ा भोगनी पड़ती है। उसी प्रकार संसार के भोग पहले बड़े अच्छे लगते हैं परन्तु बाद में उनसे असह्य और अकथनीय दुख मिलता है।

नाव पानी में रह सकती है, परन्तु पानी नाव में नहीं रह सकता। उसी प्रकार मुमुक्षु संसार में रह सकता है, लेकिन संसार को मुमुक्षु में नहीं रहने देना चाहिये।

हवा चन्दन के वृक्ष से भी गुजरती है और सड़े हुये मुरदे पर से भी, लेकिन वह किसी से मिलती नहीं। दोनों प्रकार की गन्ध, अलग रहती है। उसी प्रकार मुक्त पुरुष संसार में रहते हैं लेकिन संसारी मनुष्यों में मिल नहीं जाते।

धर्म क्यों बिगड़ते हैं? मेह का पानी साफ होता है, लेकिन यदि वह गन्दी छतें, गन्दे नल और नालियों से होकर बहे तो वह भी गन्दा हो जाता है।

—रामकृष्ण परमहंस

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October 1958
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