
गो-रक्षा की व्यावहारिक प्रणाली
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(श्री राधाकृष्ण बजाज)
गोरक्षा हिन्दू धर्म की मुख्य वस्तु है। गोरक्षा मुझे मनुष्य के सारे विकास-क्रम में सबसे अलौकिक चीज मालूम हुई है। मुझे तो यह भी स्पष्ट दीखता है कि भारत में गाय को ही देवभाव क्यों प्रदान किया गया है। इस देश में गाय ही मनुष्य का सबसे सच्चा साथी, सबसे बड़ा आधार थी। यह भारत की एक कामधेनु थी। यह सिर्फ दूध देने वाली ही न थी, बल्कि सारी खेती का आधार स्तम्भ थी।
गाय दया धर्म की मूतिमंत कविता है। इस गरीब और सीधे पशु में हम केवल दया ही उमड़ती देखते हैं। यह लाखों, करोड़ों भारतवासियों को पालने वाली माता है। इस गाय की रक्षा करना, ईश्वर की समस्त मूक सृष्टि की रक्षा करना है। वर्तमान समय में गोरक्षा का प्रश्न बड़ा विवादग्रस्त बन गया है और जो लोग केवल धर्म-शास्त्रों के वाक्यों पर श्रद्धा रखने को तैयार नहीं, वे परिस्थिति और उपयोगिता की दृष्टि से ही इस प्रश्न पर विचार करना चाहते हैं। इस दृष्टि से इस विषय की आलोचना करने से हमको प्रतीत होता है कि गोरक्षा की मौजूदा प्रणाली में कुछ संशोधन करना अनिवार्य है अन्यथा हम उसकी रक्षा कर सकने में असमर्थ होंगे।
हम यह तो स्वीकार करते हैं कि गोवध-बन्दी सम्पूर्ण होनी चाहिए। उसे आँशिक या उपयोगी गायों तक सीमित रखने से काम नहीं चलेगा। गौरक्षा और सम्पूर्ण गौ-वध बन्दी भारतीय संस्कृति का एक अपरिहार्य अंग है। भारत कभी गौ-वध सह नहीं सकेगा। गौ से मेरा मतलब गाय, बैल, बछड़े-सम्पूर्ण गौ-वंश से है। उपयोगी पशुओं की रक्षा की दृष्टि से भैंस, घोड़े आदि अन्य उपयोगी पशुओं का कत्ल बन्द करने के लिए स्वतन्त्र कानून बनाना पड़े, तो उसमें कोई आपत्ति नहीं। भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि वह गौ-वध रोकती है। विश्व शाँति के लिए यह आवश्यक है कि स्वार्थ-परायणता घटे और कृतज्ञता व सेवापरायणता बढ़े। भारतीय संस्कृति ने गौरक्षा द्वारा मानव को इस ओर ले जाने का प्रयत्न किया है। गौ-वध रोकना दूसरे शब्दों में मानवता की रक्षा करना है। जन्म देने वाली माता तो केवल साल भर दूध पिलाती है, लेकिन गौ-माता तो जन्म भर पिलाती है। बिना लोहे व कारखाने के बैल, एक ऐसा इञ्जिन है, जो बिना तेल के स्थानीय घास पर चलता रहता है। गाय ऐसी खाद देती है, जो हजारों वर्षों से हमारी जमीन की उपजाऊ शक्ति कायम रखती आ रही है। ऐसी परोपकारी गाय को हम कम से कम सम्मान दें, तो भी माँ से कम नहीं मान सकते। गाय जीवन भर हमको उत्पादन देती है। जिसने अपने जीवन में हमें हजारों का लाभ दिया, वही बुढ़ापे में साल, दो साल बैठकर अपनी मौत मरना चाहती है। उस समय भी वह खाद तो देती ही रहेगी। फिर भी उस अर्से में सौ दो सौ रुपया खर्च होगा। उसकी कमाई में से होने वाले इस खर्चे को बचाने के लोभ से उसके कत्ल का विचार करना मानवता से गिरना है। मनुष्य केवल अर्थ के बल पर नहीं जीता। भावना का उसके जीवन पर भारी असर होता है। भावना के लिए मनुष्य ही नहीं, राष्ट्र के राष्ट्र मर मिटते हैं। गौ-वध बन्दी के लिए भावना का होना पर्याप्त कारण मानना चाहिए।
भैंस या बकरी का कत्ल रोकने का कानून बनाने की सिफारिश हम इसलिए नहीं करते कि इनके वंश को बचाना हमें संभव नहीं दीखता। उनके नरों से काम नहीं लिया जाता। जिनसे काम नहीं लिया जाता, उनको हमेशा खाना देना मनुष्य के लिये संभव नहीं हो सकता। गाय के नर-मादा दोनों से हम काम लेते हैं। इसलिए उसे बचाना संभव माना गया है। गो दूध, गो घृत मनुष्य के लिये सर्वोत्तम हैं। गोवध-बन्दी के बाद जो समस्याएँ खड़ी होंगी उनको हल करने के लिये हमारे सुझाव इस प्रकार हैं :—
(क) जंगली गाय (ख) आवारा गाय और (ग) कम दूध देने वाली गाय, इन तीनों श्रेणियों के गाय बैलों, दोनों से खेती जोतने का उनकी शक्ति के अनुसार हलका या भारी काम लिया जाय। (घ) बूढ़े गाय-बैलों को जो चल फिर कर खा सकते हैं गो-सदन में भेज दिया जाय (च) अपंग गाय-बैलों को पिंजरा पोलों या गोरक्षण संस्थाओं में भेज दिया जाय। (छ) बेकाम साँड़, जो धार्मिक दृष्टि से छोड़े हों या वैसे ही घूमते हों, पर जो नस्ल सुधारने के लिये उपयोगी न हों, उन्हें बधिया बनाकर काम में ले आना चाहिये। बूढ़े हों तो उनको गोसदन में भेज देना चाहिये।
गाय को जोतने के विषय में लोगों की भावना जागृत करनी होगी। जब लोग देखेंगे कि बिना काम लिये गाय को खाना देना या उसकी जान बचा सकना संभव नहीं, तो वे काम लेने को तैयार हो जायेंगे। आज पुराने जमाने की तरह जन संख्या को ध्यान में रखकर थोड़ी जमीन से ही काम निभाना होगा। मैसूर स्टेट में आज भी गायों से खेत जोतने का काम लिया जाता है।
हिन्दू-धर्म और आज के हम हिन्दू, इनमें फर्क करना होगा। हिन्दू-धर्म की भावना गो रक्षा के लिये अत्यन्त तीव्र है। लेकिन आजकल के जमाने में हमारा नैतिक स्तर ही नीचे गिर गया है। इस कारण सभी बातों में ढिलाई आ गई है। इसका इलाज है पूरे देश के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाना। देश में आज जो भूदान आन्दोलन चल रहा है, वह देश का नैतिक स्तर ऊँचा उठाने में सहायक होगा, ऐसी आशा है।
हम किसी भी तरीके के गो-टैक्स या पशु-सेस को उचित नहीं समझते। आज खुशी से पुरानी गो-शालाओं की जो लाग-बाग चालू है उसी को कानूनी बनाकर सब मंडियों पर लागू करना काफी है अनुत्पादक गाय से उसकी शक्ति के अनुसार काम लेने में कोई हर्ज नहीं मानना चाहिये। आज के जमाने में बिना काम लिये खाना देना संभव नहीं है। अनुत्पादक गाय से काम नहीं लिया जायगा, तो उसको बचा सकना संभव न होगा।
हम देखते हैं कई विद्वान् गाय के हित में ही गोवध जारी रखना ठीक बतलाते हैं। वे समझते हैं कि गोवध चालू रहा तो गाय की हालत अच्छी रहेगी और गोवध बन्द होने से हालत एक दम बिगड़ जायगी। उनकी सद्भावना की हम कदर करते हैं। फिर भी वे सोचें कि आज जब 150 वर्ष से अबाध गोवध जारी है, तो क्या गाय की हालत सुधरी या बिगड़ी? 150 वर्ष तक गोवध कायम रख कर भी जब गाय की हालत बिगड़ती गई, तो अब गोवध बन्द करके देश की भावना को तो संतोष दीजिये। जहाँ इतनी हालत बिगड़ी है वहाँ थोड़ी और बिगड़ जावेगी, इससे ज्यादा क्या होना है? वास्तव में देखा जाय तो गाय की हालत सुधरने या न सुधरने का आधार केवल गोवध या गोवध-बन्दी नहीं है। उसका आधार है गोपालन के विधायक तरीके। देश की भावना की कद्र करके हमें सम्पूर्ण गोवध बन्द करना चाहिए और उससे पैदा हुई सद्भावना को बटोर कर उसके द्वारा विधायक गोपालन से गाय की व भारत की दशा सुधारनी चाहिए।