
हिन्दू धर्म की विशेषताएँ और हमारी अयोग्यता
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(श्री जगतनारायणलाल)
किसी धर्म के जीवित या निर्जीव होने का, किसी धर्म की गुरुता और लघुता का पता उस धर्म पर चलने वालों के जीवन से चलता है। अगर इस कसौटी पर आज हिन्दू धर्म को कसा जाय तो स्पष्ट रूप से जान पड़ेगा कि आज हमारे धर्म का कैसा घोर पतन हुआ है। एक समय था जब हमारे यहाँ धर्म का सच्चा प्रचार था, जब धर्म ही जीवन था। पर अभी कुछ ही वर्ष पहले ऐसा भी समय आ गया जब पढ़े-लिखे विद्वान् हिन्दू, अपने को हिन्दू कहने में शर्माते थे। विदेशी लोग हिन्दू-धर्म को जंगली, असभ्य लोगों का प्रारम्भिक धर्म बतलाते थे। भगवान की असीम दया से वह समय बदल गया है और अब विदेशियों का भाव हमारे धर्म के सम्बन्ध में बिल्कुल दूसरा हो गया है। आज सारे संसार में इस धर्म की महत्ता, गम्भीरता और सत्यता की चर्चा है। वे ही विदेशी जो एक समय इसकी इतनी निन्दा करते थे। आज इसकी ओर श्रद्धा और भक्ति की दृष्टि से देखते हैं और भारतवर्ष को तीर्थ स्थान समझते हैं। पर हम हिन्दुओं ने क्या किया? ध्यान से देखा जाय तो हम जहाँ थे वहीं पड़े हैं। समय का प्रवाह सारी मनुष्य जाति को आगे की ओर बढ़ाये लिये चला जाता है, पर हिन्दू जाति अभी तक अजगर की तरह निष्क्रिय और बेखबर पड़ी है। हमारे जीवन में धर्म के वास्तविक तत्वों का उपयोग नहीं हो रहा है। हम आँख बन्द किये बिना सोचे समझे केवल लकीर के फकीर बने हुए हैं। धर्म को हमने बच्चों का खेल बना रखा है।
सोचने की बात है कि हमारे धर्म का बड़प्पन किस बात में है? क्या कारण है कि जिसे दूसरे देश और दूसरे धर्म वाले पहले घृणा और अवहेलना की दृष्टि से देखते थे, वे ही पीछे उसे श्रद्धा के भाव से देखने लगे? इसका खास कारण यही है कि जीवन सम्बन्धी प्राकृतिक स्वाभाविक नियमों का जितना खजाना हिन्दू-धर्म की पुस्तकों में आज भी वर्तमान है उतना अन्य धर्म की प्रचलित पुस्तकों में नहीं पाया जाता। इसका यह मतलब नहीं कि अन्य धर्म की पुस्तकों में सत्य अथवा ईश्वरोपासना का मार्ग नहीं है। प्रत्येक धर्म अपनी-अपनी जगह पर ठीक है। प्रत्येक में सत्य है। पर हिन्दू-धर्म में जीवन सम्बन्धी प्राकृतिक नियमों का वर्णन विशेष अंश में और बहुत अधिक विस्तार से किया गया है।
हम प्रायः ऐसी बातें सुन कर फूल जाया करते हैं और समझने लगते हैं कि हमसे बढ़कर कौन है, क्योंकि हमारा धर्म तो सबसे बढ़ कर है! यह हमारी भूल है। धर्म की एक-दूसरे के साथ तुलना करके एक को बड़ा और दूसरे को छोटा बतलाना समझ की गलती है। वास्तव में सभी धर्म अपनी-अपनी जगह और अपनी परिस्थितियों में सही हैं। इसलिए फूलने या घमण्ड करने की कोई बात नहीं है। वास्तव में धर्म तो हमारा वही है जिसको हम जीवन में बर्तते हों। जो सिद्धान्त या जो आदर्श केवल किताबों में लिखे हैं और जिनका हमारे जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं, उन पर गर्व करना व्यर्थ है।
एक बात और देखने की यह भी है कि प्रत्येक प्राकृतिक नियम शक्ति का एक-एक अस्त्र है। यह एक साधारण कहावत है कि ‘ज्ञान शक्ति है’। तो क्या हिन्दू धर्म के महान प्राकृतिक-नियमों के कारण हमारी शक्ति उसी परिणाम में बढ़ी हुई है? नहीं हमारी तरह शक्ति हीन अथवा निःस्वत्व गति संसार में कदाचित् ही दूसरी होगी। इसका प्रधान कारण यही है कि हमने धर्म को अर्थात् प्राकृतिक नियमों को जीवन से अलग हटा रखा है। सत्य, ब्रह्मचर्य, त्याग, परोपकार आदि की महिमा तो हम बराबर सुनते और कहते रहते हैं, पर इनका प्रयोग अपने जीवन में कितने आदमी, कितने परिणाम में करते हैं, यह हमसे छिपा नहीं है।
फिर भी परम्परा से ये नियम हमारे रक्त में समा गये हैं, अंग-अंग में प्रवेश कर गये हैं। किसी साधारण अनपढ़ आदमी के पास चले जाइये, वह भी ईश्वर, पुनर्जन्म, कर्म इत्यादि महान सत्यों की चर्चा साधारण बोलचाल में नित्य करता पाया जायगा। वह इनमें से किसी के महत्व को नहीं जानता, लेकिन यह बातें उसके रक्त -माँस में समा गई हैं। समझे या न समझे, पर वह अपने को इनसे अलग नहीं कर सकता। इनमें से एक-एक नियम का ज्ञान ऐसा शक्ति शाली है कि ठीक से समझ में आ जाने पर वह सारे जीवन को बदल देता है, सारी दुनिया को पलटने की शक्ति रखता है। दूसरे देश वाले इसी बात को देखकर दंग रहते हैं कि भारत का एक साधारण से साधारण आदमी जीवन के इन गहन सिद्धान्तों को कैसे जानता है? इन सिद्धान्तों का थोड़ा भी ज्ञान पाकर वे जीवन में कहाँ से कहाँ पहुँच जाते है और रात-दिन इनमें रहते हुए भी हम जहाँ के तहाँ ही पड़े रहते हैं, वरन् प्रायः नीचे की ओर खिसकते रहते हैं।
वास्तविक बात यह है कि हम जीवन के साथ और जीवन के नियमों के साथ बच्चों की तरह खेल कर रहे हैं। असलियत को खो बैठे हैं और नकल करते जा रहे हैं। लेकिन गौर करने से मालूम होता है कि हमारी रीति-रिवाजों रूपी खिलौने के भीतर प्रकृति के गहन गम्भीर तत्व छिपे पड़े हैं।
हिन्दू धर्म की जो विशेषताएं बतलाई जाती हैं—चाहे वह कर्म का नियम हो, अथवा पुनर्जन्म का, अथवा वर्णाश्रम धर्म का या और कोई-वे सभी प्राकृतिक नियम हैं। इस बात को सुनकर अनेक लोग आश्चर्य करते हैं, क्योंकि हम धर्म अथवा इन नियमों के मूल तत्व को नहीं जानते और उदार भाव से देखने के बदले सभी वस्तुओं को संकीर्ण दृष्टि से देखा करते हैं। हमारे आश्चर्य चकित होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि हम इन्हीं बातों को हिन्दू-धर्म का प्रधान स्तम्भ समझते हैं और इसलिए ऐसा सोचते हैं कि इन्हीं के कारण हिन्दू धर्म अन्य धर्मों से भिन्न और विशिष्ट बना हुआ है। यदि हम इन बातों को प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक मान लें तो हमारे धर्म की विशेषता अविलम्ब ही नष्ट हो जायगी। पर हम यह नहीं समझते कि इसी संकीर्णता के कारण हम अपने धर्म के महान सत्यों को समझने से और समझकर उनको व्यवहार में लाने से वंचित रह जाते हैं। इन सत्यों को ठीक से समझने के लिए सबसे पहले हृदय में उदारता और मन में निष्पक्षता के भावों को लाना आवश्यक है। यदि हम ऐसा कर सकें तो आगे चलकर हमको जान पड़ेगा कि हमसे हमारे धर्म की कोई क्षति नहीं हुई वरन् उसका महत्व ही बढ़ता है।
इसलिए हमको निश्चित रूप से यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रकार आकर्षण, विद्युत, चुम्बक आदि के वैज्ञानिक नियम सभी देश वालों में समान रूप से सत्य हैं उसी प्रकार हिन्दू-धर्म के मूल सिद्धाँत भी पूर्णतः व्यापक हैं, अर्थात् देश और काल इनको बाधित नहीं कर सकते। कोई जाने अथवा न जाने-किसी धर्म ग्रन्थ में इनका जिक्र हो या न हो-ये बराबर एक भाव से अपना कार्य करते रहते हैं। जिस प्रकार भिन्न-2 देशों में किसी प्राकृतिक नियम विशेष का वैज्ञानिक आविष्कार आगे-पीछे होता रहता है, उसी प्रकार इन सत्य सनातन नियमों का जिक्र कहीं आगे आता है, कहीं पीछे आता है। दुःख की बात तो यह है कि साधारण प्राकृतिक वस्तुओं जैसे, हवा, पानी, प्रकाश, आकाश आदि को तो हम अपना अथवा दूसरे का नहीं समझते, लेकिन जहाँ जीवन सम्बन्धी अत्यन्त गहन गम्भीर प्राकृतिक नियमों का सवाल आता है, वहाँ उनको अपना और दूसरे का समझने लगते हैं।
वास्तव में अन्धविश्वास बड़ा हानिकार होता है। जो धर्म को नहीं जानता उसका सुधार धर्म का नाम लेकर और ज्ञान कराके किया जा सकता है। पर जो धार्मिक नियमों को उलटा पुलटा समझकर उसी को अपना धर्म बना लेता है, उसका सुधार अत्यन्त कठिन है और हम हिन्दुओं की ऐसी ही दुर्दशा है। हमारी पुस्तकें जीवन के गहन से गहन नियमों से भरी पड़ी हैं, पर उनका यथार्थ ज्ञान हमको नहीं है। उन्हीं का कुछ उलटा-पुलटा अर्थ निकालकर हमने रस्म-रिवाज कायम कर लिए हैं। इन्हीं रस्मों-रूढ़ियों को हम आज हिन्दू-धर्म समझ रहे हैं। अधिकाँश क्या प्रायः सभी धार्मिक झगड़े इन्हीं नासमझियों तथा अन्धविश्वासों के कारण होते हैं। इस प्रकार धर्म ही के नाम पर धर्म का नाश किया जा रहा है।