
पौराणिक साहित्य और उसकी विशेषताएं
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(श्री एस. बी. वर्मा)
यद्यपि वेद हिन्दू-धर्म का मूल और उपनिषद् उसके अध्यात्म ज्ञान के भण्डार जाने जाते हैं, पर वास्तव में इस समय देश में हिन्दू धर्म का जो रूप प्रचलित है उसका आधार पुराण ही हैं। वेद मुख्यतया कर्मकाण्ड का प्रतिपादन करते हैं, उपनिषदों ने ज्ञान की गंगा बहाई है और पुराणों ने भक्ति मार्ग को जन्म दिया है। आजकल की जनता कर्मकाण्ड को भूल चुकी है, ज्ञान-मार्ग पर चलना उसके लिये महाकठिन है इसलिए भक्ति का सरल और सुगम मार्ग ही साधारण लोगों के चित्त में समा गया है और वे विष्णु, शिव, गणेश, देवी, सूर्य आदि किसी देवता के साकार रूप की आराधना और नाम कीर्तन द्वारा ही धर्म साधन की चेष्टा किया करते हैं।
यह प्रसिद्ध है कि पुराण 18 हैं, इनके नाम, श्लोक-संख्या के साथ नीचे दिये जाते हैं—(1)ब्रह्म-पुराण—10000, (2)पद्म-पुराण—55000, (3)विष्णुपुराण—23000, (4)शिवपुराण—24000, (5)श्रीमद्भागवत पुराण—18000, (6)नारद पुराण—25000, (7)मार्कण्डेय पुराण—9000, (8)अग्नि पुराण—10500, (9)भविष्य पुराण—14500, (10)ब्रह्मवैवर्त पुराण—18000, (11)लिंग पुराण—11000, (12)वराह पुराण—24000, (13)स्कन्द पुराण—81000, (14)वामन पुराण—10000, (15)कूर्म पुराण—17000, (16)मत्स्य पुराण—14000, (17)गरुड़ पुराण—19000, (18)ब्रह्माण्ड पुराण—12000—कुल योग 3,95,000 है।
इनके अतिरिक्त 29 उपपुराण भी हैं जिनमें वायु-पुराण, नरसिंह पुराण, ब्रह्माँड पुराण देवी भागवत आदि का नाम प्रसिद्ध है। इनमें से कुछ पुराणों में विष्णु को प्रधान बतलाया गया है और कुछ में शिव को। सौर सम्प्रदाय वाले सूर्य को सर्वोपरि मानते हैं। इसलिए अनेक स्थलों में पुराणों में एक दूसरे का विरोध पाया जाता है और इसका एकमात्र कारण साम्प्रदायिक भेद ही जान पड़ता है।
कुछ विद्वानों का विचार है विष्णु पुराण और वामन पुराण को छोड़कर समस्त पुराणों के कई बार नये-नये संस्करण हुए हैं जिसके परिणामस्वरूप उनका कलेवर बहुत कुछ बदल गया है। इनके मतानुसार पुराणों को निम्नलिखित 6 श्रेणियों में बाँटा जा सकता है—
1—विश्वकोषात्मक पुराण :-
इस समूह में गरुड़, अग्नि और नारद पुराण आते हैं—
1—गरुड़ पुराण— इसमें 287 अध्याय हैं। पूर्व खंड में नाना विद्याओं का विस्तृत विवरण है। रत्नों की परीक्षा की विधि, राजनीति का वर्णन, आयुर्वेद के आवश्यक निदान तथा चिकित्सा, तरह-तरह के रोगों को दूर करने के लिए औषधियाँ, पशु-चिकित्सा, छन्द-शास्त्र, परलोक का वर्णन आदि विषय दिये गये हैं।
2—अग्नि पुराण—इस पुराण को यदि समस्त भारतीय विद्याओं का शब्दकोष कहा जाय तो कुछ अतिशयोक्ति नहीं है। पुराणों का एक उद्देश्य जन-साधारण में ज्ञातव्य विद्याओं का प्रचार करना भी था, इसका प्रमाण इस पुराण से मिल जाता है। मन्दिर-निर्माण, मूर्ति की प्रतिष्ठा और पूजन का विधान, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, व्रत, राजनीति, आयुर्वेद आदि शास्त्रों का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। छन्द-शास्त्र, अलंकार शास्त्र, व्याकरण, कोष के विषय को पन्द्रह-बीस अध्यायों में समझाया गया है। योगशास्त्र के यम-नियम तथा अद्वैत वेदान्त का वर्णन खूब समझाकर किया गया है। एक अध्याय में गीता का साराँश भी दे दिया गया है। इसमें पुराण के पाँचों लक्षणों के अतिरिक्त हिन्दू साहित्य और संस्कृति के समस्त विषयों का समावेश है। इससे इस पुराण का यह दावा सत्य प्रतीत होता है कि—आग्नेये हि पुराणोऽस्मिन सर्वा विद्याः प्रदर्शिता।” (383।52)
3—नारद पुराण— इसके पूर्व भाग में वर्ण और आश्रम के आचार, श्राद्ध, प्रायश्चित आदि का वर्णन किया गया है। इसके अनन्तर व्याकरण, निरुक्त , ज्योतिष, छन्द, आदि शास्त्रों का अलग-अलग एक-एक अध्याय है। विष्णु, राम, हनुमान, कृष्ण, काली, महेश के मन्त्रों का विधिवत् निरूपण किया गया है। इसके सिवा अठारहों पुराणों की विस्तृत विषय-सूची दी गई है, जो सभी पुराणों का साराँश जानने के लिए अत्यन्त उपयोगी है।
2—तीर्थ और व्रत विषयक पुराण :-
4—पद्मपुराण— इसकी प्रतिष्ठा वैष्णवों में बहुत है। इसमें पाँच खण्ड हैं—सृष्टि-खंड, भूमिखंड, स्वर्ग-खंड, पाताल खंड और उत्तर खंड। सृष्टिखंड में संसार की उत्पत्ति का सविस्तार वर्णन है। भूमि खंड में बैकुण्ठ लोक-वर्णन, परलोक साधन, परलोक वर्णन, प्रलय लक्षण आदि है। पाताल खंड में रामचरित और कृष्णलीला का वर्णन, शिवलिंगार्चन विधि आदि है। उत्तरखंड में अपवर्ग साधन, मोक्ष-शास्त्र का परिचय है। इसमें अनेक तीर्थों तथा व्रतों की महिमा और गृहस्थाश्रम के धर्म का भी विवेचन है।
5—स्कन्द पुराण— इसमें शिवोपासना विषयक एक अनुपम खंड है। इसके उत्तर भाग में ब्रह्मगीता और सूतगीता दी गई है। दूसरे खंड में तीर्थों के उपाख्यान और पूजन विधि हैं। इसके रेवाखंड में सत्यनारायण की सुप्रसिद्ध कथा है। यह पुराण सब पुराणों से विशालकाय है।
6—भविष्य पुराण— इसमें सब प्रकार के व्रतों के विधान और उनकी कथाएं दी गई हैं। वेद पढ़ने की विधि, गायत्री का माहात्म्य, साँप द्वारा डँसे पुरुष के लक्षण, सर्प का विष हरने वाली मृत संजीवनी गोली, कलियुग के राजाओं की वंशावली आदि हैं।
3—संशोधित तथा परिवर्धित पुराण :-
7—ब्रह्मपुराण— पहले यह पुराण ब्रह्ममहात्म्य सूचक बताया गया है। परन्तु इसके अन्तिम अध्याय में लिखा है कि यह वैष्णव पुराण है। इस पुराण में विष्णु के अवतारों की कथा की विशेषता है। उत्कल प्राँत में स्डितलडडडडड जगन्नाथजी के महात्म्य का विशेष वर्णन है।
8—श्रीमद्भागवत— यह महापुराण संस्कृत- साहित्य का एक अनुपम रत्न है। यह भक्ति-शास्त्र का सर्वस्व है। निम्बार्क, बल्लभ तथा चैतन्य सम्प्रदायों पर इसका बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में श्रीकृष्ण चरित्र है जिसका हिन्दी रूपांतर ‘सुखसागर’ या ‘शुकोक्ति सुधासागर’ के नाम से विख्यात है।
(9)ब्रह्मवैवर्त-पुराण— कृष्ण-चरित्र का विस्तृत वर्णन इस पुराण की विशेषता है। इसके प्रकृति खण्ड में प्रकृति का वर्णन है, जो भगवान कृष्ण के आदेशानुसार दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती, सावित्री तथा राधा के रूप में अपने को समय-समय पर परिणित करती रहती है। इसमें सावित्री तथा तुलसी की कथा बड़े विस्तार के साथ उपलब्ध होती है।
4—ऐतिहासिक पुराण :-
(10)ब्रह्माण्ड-पुराण— इसमें पूरे विश्व का साँगोपाँग वर्णन है। इसके प्रथम खण्ड में विश्व के भूगोल का विस्तृत तथा रोचक वर्णन है। जम्बूद्वीप तथा उसके पर्वतों और नदियों का वर्णन अनेक अध्यायों में से है। नक्षत्रों तथा युगों का भी विशेष विवरण इसमें मिलता है। इसमें प्रसिद्ध क्षत्रिय वंशों का वर्णन इतिहास की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी है।
(11)वायु-पुराण— इसका अधिकाँश अप्राप्य है। पुराणों में इस पुराण की श्लोक संख्या 23000 दी गई है, परन्तु आजकल जो वायु-पुराण मिलता है उसमें 10091 श्लोक ही मिलते हैं। यह भौगोलिक वर्णन के लिये विशेष महत्व का है। प्रजापति-वंश, ऋषि-वंश और ब्राह्मण-वंश का इतिहास जानने के लिये भी बड़ा उपयोगी है। इसमें संगीत का विशद वर्णन उपलब्ध होता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता शिव के चरित्र का विस्तृत वर्णन है, जो साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से दूषित नहीं है।
(12)विष्णु-पुराण— इसमें भूगोल का बड़ा ही साँगोपाँग विवेचन है। चारों आश्रमों के कर्त्तव्यों का विशेष निर्देश है। राजा ययाति तथा वेद की शाखाओं और कृष्ण-चरित्र का विस्तार से वर्णन है। यह वैष्णव धर्म का मूलाधार ग्रन्थ है। नाना प्रकार की धर्म-कथा, व्रत-नियम, वेदान्त, ज्योतिष, वंशाख्यान आदि के वर्णन से यह भरपूर है। साहित्यिक दृष्टि से यह पुराण सबसे अधिक स्मरणीय, सरस तथा उच्चकोटि का माना गया है।
5—साम्प्रदायिक पुराण :-
(13)लिंग-पुराण— इसमें शिव-लिंग की पूजा का विवेचन है। सृष्टि का आविर्भाव भगवान शंकर द्वारा बतलाया गया है। इसमें शंकर के 28 रूप का वर्णन है। इसमें लिंगोपासना की उत्पत्ति भी दिखलाई गई है। शिव-तत्व की मीमाँसा के लिये यह पुराण प्रामाणिक है।
(14)वामन-पुराण— इसमें विष्णु के भिन्न-भिन्न अवतारों की कथाएँ हैं, परन्तु वामन-अवतार का वर्णन विशेष रूप से है। अनेक तीर्थों और वनों का माहात्म्य भी इसमें दिया गया है।
(15)मार्कण्डेय-पुराण— इसमें मरणोत्तर जीवन की कथा है। ब्रह्मवादिनी महिषी मदालसा की कथा बड़े विस्तार के साथ दी गई है। ‘दुर्गा सप्तशती’ इसी पुराण का एक विशिष्ट अंग है। श्राद्ध-कर्म का वर्णन, योग के विघ्न, उनसे बचने के उपाय, प्रणव की महिमा आदि बातें भी हैं।
6—आमूल परिवर्तित पुराण :-
(16)कूर्म-पुराण— डॉ. हरप्रसादजी शास्त्री की सम्मति में इस पुराण में ऐसा संशोधन किया गया है कि उसका कलेवर ही बदल गया है। इसमें सब जगह शिव ही मुख्य देवता के रूप में बतलाये गये हैं। इस ग्रन्थ में शक्ति -पूजा पर भी बड़ा जोर दिया गया है। शक्ति के सहस्र नाम का वर्णन है। उत्तर भाग में ईश्वर-गीता और व्यास-गीता दी गई हैं।
(17)वराह-पुराण— इस पुराण में 24000 श्लोक बतलाये जाते हैं, पर जो संस्करण एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित हुआ है, उसमें 10700 श्लोक ही हैं। इसमें विष्णु से सम्बन्धित अनेक व्रतों का वर्णन है। इसके दो अंश विशेष महत्व के हैं—(1) मथुरा महात्म्य, जिसमें मथुरा के समस्त तीर्थों का बड़ा विस्तृत वर्णन है, (2) नचिकेतो पाख्यान, जिसमें यम और नचिकेता की विस्तृत कथा है जिसमें स्वर्ग-वर्ग का विशेष वर्णन मिलता है।
(18)मत्स्य पुराण— इसमें श्राद्ध विधि का वर्णन सात अध्यायों में है। व्रतों का वर्णन इसकी एक विशेषता है। प्रयाग का भौगोलिक वर्णन तथा वहाँ के तीर्थों की महिमा का कथन है। काशी का माहात्म्य अनेक अध्यायों में दिया गया है। इसके सिवाय इसकी चार बातें विशेष महत्व की हैं—(1) समस्त पुराणों की विषयानुक्रमणिका 53 वें अध्याय में दी गई है। (2) प्रवर ऋषियों के वंश का वर्णन है। (3) राज-धर्म का विशिष्ट वर्णन है। (4) भिन्न-भिन्न देवताओं की प्रतिमाओं की नाप-जोख दी गई है। इससे विदित होता है कि हमारी मूर्ति निर्माण कला तथा स्थापत्य कला वैज्ञानिक पद्धति पर अवलम्बित थी।
पुराणों का आरम्भ ब्रह्म पुराण से और अन्त ब्रह्माण्ड पुराण से होता है तथा मध्य में दसवें पुराण ‘ब्रह्मवैवर्त’ में ब्रह्म की स्मृति करा दी है कि पुराण सृष्टि-विद्या का प्रतिपादन करते हैं, जो ब्रह्म से आरम्भ करके ब्रह्माण्ड तक ज्ञान को पहुँचाती है। वह आदि, मध्य और अन्त में ब्रह्म का कीर्तन करती हुई, ब्रह्म पर हमारे ध्यान को स्थिर कर देती है। इसीलिए यह उक्ति प्रसिद्ध है—
‘आदावन्ते च मध्यं च हरिः सर्वत्र जीयते।’