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Magazine - Year 1959 - Version 2

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संसार की व्यवस्था करने वाला सिद्ध-संघ

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(श्री. भगवान सहाय वाशिष्ठ)

आध्यात्मिक ज्ञान अथवा आत्म-विद्या भारत वर्ष की विशेषता है। यहाँ बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा व्यक्ति भी इस सम्बन्ध में कुछ न कुछ विचार रखता है और उन बातों की महत्ता को स्वीकार भी करता है। इस मनोवृत्ति के कारण इस देश में साधु, महात्माओं का बड़ा मान है। उच्चकोटि के विद्वान अथवा तपस्वियों की तो क्या बात, साधारण साधु वेषधारी लोग भी यहाँ जन-श्रद्धा के आधार पर सम्मान और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते रहते हैं। इतना ही नहीं बहुसंख्यक धूर्त, ढोंगी और ठग श्रेणी के व्यक्ति भी इस वेष में अपने को छिपाकर सर्व साधारण के पूजनीय बन बैठते हैं और जब तक किसी घटनावश उनका भंडा फोड़ नहीं होता तब तक मौज करते रहते हैं। इस सबके मूल में यही भाव काम करता है कि हमारे देश में सदा से बड़े-बड़े साधु, महात्मा, योगी, सिद्ध पुरुष होते आये हैं और वे इसी वेष में रहते थे। इसलिये लोग किसी भी साधु वेषधारी को देखकर सोचते हैं कि कहीं यह भी कोई पहुँचा हुआ महात्मा न हो और इसकी सेवा से हमारी मनोकामनाएं पूर्ण हो सकें।

इसमें तो सन्देह नहीं कि हमारे यहाँ प्राचीन काल से बड़े-बड़े त्यागी और तपस्वी महात्मा होते आये हैं, जिन्होंने लोगों के कल्याण के लिये अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया और अनगिनत व्यक्तियों को आपत्तियों से मुक्त किया। यहाँ पर ऐसे महापुरुषों का भी आविर्भाव हो चुका है जो मुक्ति प्राप्त करके भी संसार में केवल इसी कारण बने रहे जिससे कि उनके द्वारा साधारण मनुष्यों को उन्नति-मार्ग में सहायता मिलती रहे। पुराणों में हमको ऐसे महान व्यक्तियों के नाम भी मिलते हैं जो अमर-पद को प्राप्त कर चुके हैं और आज भी संसार के किसी भाग में और किसी भी रूप में रहकर भूमंडल की व्यवस्था में सहयोग कर रहे हैं। पर हमारे देश में बीच के समय में शिक्षा का अभाव हो जाने के कारण इन सब बातों का वास्तविक रहस्य लोग भूल गये और इस सम्बन्ध में तरह-तरह की भ्रमपूर्ण कल्पनाएं करके इनको कहानी किस्से की तरह कहने-सुनने लगे। यही कारण है कि आधुनिक ढंग के पढ़े लिखे व्यक्ति इन बातों को कोरी गप्प समझते हैं और उन्होंने विशिष्ट शक्ति सम्पन्न महापुरुषों अथवा सिद्ध महात्माओं पर विश्वास करना ही छोड़ दिया है। पर इधर कुछ समय से इस देश और विदेशों के अनेक शिक्षित व्यक्तियों के मन में आध्यात्मिक भाव का उदय हुआ है और वे इन विषयों की खोज तथा व्याख्या करके कितने ही छिपे हुए रहस्यों का उद्घाटन कर रहे हैं। इस सम्बन्ध में थियोसॉफिकल सोसायटी (ब्रह्म विद्या-समाज) के कितने ही संचालकों तथा साधकों ने विशेष रूप से श्रम किया है और संसार की व्यवस्था में भाग लेने वाले इन “महात्माश्रों” का सर्वांगपूर्ण विवरण अपनी पुस्तकों में लिखा है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने जो कुछ लिखा है वह ज्यों का त्यों ठीक है, पर इतना अवश्य है कि उनकी बातें कम से कम बुद्धिसंगत ढंग से कही गई हैं। आध्यात्मिक ज्ञान से शून्य अथवा उसके विरोधी लोगों के लिये तो इस प्रकार की बातें सर्वथा निरर्थक और निराधार कल्पना के सिवाय कुछ नहीं हो सकतीं, पर जो लोग इस भूमि की आध्यात्मिक शक्ति पर विश्वास रखते हैं और “हिमालय के दुर्गम भागों में रहने वाले महात्माओं “ के चमत्कारों का वर्णन कहते और सुनते रहते हैं उनके लिये यह वर्णन निस्सन्देह अत्यन्त आकर्षक जान पड़ेगा।

थियोसॉफी सिद्धान्त के अनुसार पवित्रता के मार्ग के चार दर्जे हैं—1 श्रोतापत्ति, 2 सकृदागामी, 3 अनागामी और 4 अर्हत्। इनको सिद्ध करके इनसे आगे का—अशेष नाम का पद प्राप्त करने से मनुष्य उतनी उन्नति साध चुकता है जितनी इस कल्प में साधनी चाहिये। फिर उसे इस पृथ्वी पर या किसी दूसरे गोले (ग्रह) पर जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। ऐसे मनुष्य के सामने जब सात मार्ग आते हैं जिनमें से वह कोई भी एक ग्रहण कर सकता है। उनमें से बहुत मार्ग तो ऐसे हैं कि जिनको ग्रहण करने से मनुष्य इस पृथ्वी को छोड़ कर दूसरे भारी कामों में लगता है। शायद वे काम सारे सौर-मंडल से संबंध रखते हैं। इसलिये जो लोग अभी तक अशेष पद को प्राप्त हो चुके हैं उनमें से बहुतों का हाल हम लोगों को मालूम नहीं हो सकता।

बाकी के जो लोग हम नरतन धारियों के लिये कार्य कर रहे हैं उनके दो विभाग हो सकते हैं, एक स्थूल देहधारी और दूसरे वे जिन्हें स्थूल देह नहीं है वे “निर्वाण काय” कहाते हैं। मान लो कि वे इस भूलोक और निर्वाणलोक के बीच में स्थित हैं। वे मनुष्य जाति के कल्याणार्थ आत्मिक बल उत्पन्न करने में अपना सारा समय बिताते हैं। यह बल या शक्ति एक कुण्ड में जमा होती है और पृथ्वी पर स्थित महात्मा तथा उनके शिष्य मनुष्य जाति के हित के जो कार्य करते हैं उनमें से इस बल का उपयोग करते हैं।

स्थूल देहधारी महात्माओं की संख्या बहुत थोड़ी है। ये किसी एक देश से संबंध नहीं रखते वरन् इनका कार्य सारे जगत से संबंध रखता है। इस भूलोक में वे सब इकट्ठे नहीं रहते, पर ऊँचे के लोकों में वे एक दूसरे से सदैव मिलते रहते हैं। उन्हें पुनर्जन्म का बंधन तो है नहीं, इसलिये एक शरीर के जीर्ण हो जाने पर ये अपने कार्य की आवश्यकतानुसार जहाँ चाहें वहाँ दूसरा शरीर ग्रहण कर लेते हैं। इसलिये इनका शरीर किस देश का है यह कोई महत्व की बात नहीं। इस समय कई के शरीर तो भारतीय हैं, एक चीन का, दो अंगरेजी, एक-इटली का, एक हंगरी का और एक सीरिया के शरीर वाला है। पर हम फिर यह बतला देना चाहते हैं कि इन लोगों के लिये किसी खास देश का शरीर होना कुछ भी महत्व नहीं रखता। यह वर्णन हमने सिर्फ इसलिये किया है ताकि लोग समझ सकें कि महात्माओं को किसी एक जाति का मानना भूल की बात है।

इस “सिद्ध-संघ” के मुख्य अधिपति के विषय में अधिक कहने में भक्तिवश हमको संकोच लगता है। बड़े महाद्वीपों और खण्डों की व्यवस्था इनके हाथ में है। कोई एक करोड़ अस्सी लाख वर्ष बीते जब कुछ महर्षिगण इस पृथ्वी के विकास-क्रम में सहायता देने यदि यहाँ आये थे। उस समय तक मनुष्य शरीरों की उन्नती बिल्कुल नहीं थी और उनमें यह शान्ति नहीं थी कि वह सिद्ध-सम्प्रदाय में किसी पद के योग्य हो सकता। इस लिए इन शुक्रलोक के महर्षियों ने मानव जाति को उन्नति का मार्ग दिखलाया जिससे धीरे-धीरे यह भी अनेक उन्नती-प्राप्त जीव उत्पन्न होने लगे। तब ये महर्षिगण दूसरे लोकों में वहाँ के विकास में सहायता देने के लिये मुक्त हो गये। पर उनमें एक अब भी हमारे यहाँ सर्वोच्च पद पर अधिष्ठित हैं। इस पृथ्वी के विकास की सब व्यवस्था इन्हीं के हाथ में है, मनुष्य का विकास ही नहीं, वरन् पशु, वनस्पति, खनिज और उसके नीचे के भौतिक वर्ग और सब छोटे-बड़े देव वर्गों के विकास की व्यवस्था भी ये ही करते हैं।

इन अधिपति जो कि नीचे अन्य विभागों की व्यवस्था करने वाले महात्मा हैं उनके कार्यों का पूरा वर्णन कर सकना भी कठिन है। उनमें से एक भूल जाति में “मनु” होते हैं जिनका कार्य बड़ी अड़चनों का होता है। दूसरे धर्माधिपति होते हैं। इस संसार में जहाँ जैसे धर्म की आवश्यकता पड़ती है वहाँ वे वैसा ही धर्म प्रचार करते हैं। कभी इस कार्य के लिये आवश्यकतानुसार अपने किसी शिष्य को भेज देते हैं और कभी स्वयं ही जन्म लेते हैं इन्हें पूर्वीय देशों में बहुधा “बोधिसत्व” कहते हैं। हाल में इस पद पर भी मैत्रेय ऋषीश्वर विराजमान हैं। इनसे पूर्व इस पद पर “गौतमबुद्ध विराजमान थे। “बुद्ध” का पद प्राप्त होने के बाद जीव का इस पृथ्वी पर फिर जन्म नहीं हो सकता और अपना किसी उत्तराधिकारी को अपने काम सौंप कर बहुधा पृथ्वी के संबंध से बाहर चला जाता है। पर भगवान गौतम बुद्ध ने “बुद्ध” पद पाकर भी पृथ्वी को सहायता देने के हेतु से उससे किसी प्रकार का संबंध जारी रखा है। हर वर्ष एक बार सिद्ध-संघ को उनके दर्शन होते हैं और उनका आशीर्वाद मिलता है जिसे वे सारी पृथ्वी में फैला देते हैं। आर्य जाति को आरम्भ की उप जातियों में धर्म की शिक्षा देने के लिये इनके लिये इन्होंने बार-बार जन्म लिया था। मिश्र देश में रहस्य-ज्ञान-समाज का ज्ञान बताने वाले “हर्मीज” ये ही थे। सूर्य और अग्नि की पूजा के पारसी धर्म की स्थापना करने वाले आदि जटदुश्त ये ही थे, ग्रीस देश की रहस्य-ज्ञान-समाज (मिस्टरीज) का ज्ञान प्रकट करने वाले आरफियास ये ही थे। इसी प्रकार इन्होंने और कितने ही धर्मों की स्थापना करके विभिन्न देशों के निवासियों को विकास-मार्ग में आगे बढ़ाया था।

इस विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि इस जगह का विकास “राम भरोसे” नहीं चल रहा है जैसा लोग बिना विचारे मान लेते हैं। इसके विपरीत जगत की व्यवस्था और शासन विधिविधान के अनुसार बहुत चतुराई से किया जाता है। यह “महात्मा-संघ” इस कार्य को यथासंभव साधता है। मनुष्य की जो स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति है उसमें बाधा न डाल कर जितनी व्यवस्था हो सके उतनी ही ये करते हैं। ये संसार के प्रमुख मनुष्यों के साथ मिल कर काम करने का प्रयत्न करते रहते हैं। ये उनके चित्त में सलाह और सूचनाओं को प्रेरित करते हैं और उनको समस्त जगत के भ्रातृत्व की ओर चलने की प्रेरणा करते हैं जिससे आगे चलकर युद्ध का सर्वथा लोप हो जाय। पर हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि उन्हें सब लोगों के भाग्य-प्रारब्ध का भी विचार करना पड़ता है और उसमें बाधा नहीं डाली जा सकती।

पर सब कुछ होने पर भी ये “महात्मा” हमारे समान मनुष्य ही हैं। उनके शरीर हम लोगों की अपेक्षा बहुत अधिक शुद्ध और पूर्ण हैं जिससे वे हमारे लिये असंभव कार्यों को सहज में करते रहते हैं। वे वास्तव में पर्वतों के ऐसे स्थानों पर आश्रम बनाकर रहते हैं, जहाँ उनकी अनुमति बिना कोई पहुँच नहीं सकता। पर साधन करने से मनुष्य उन तक पहुँच कर उनका कृपा पात्र बन सकता है और उनकी सलाह से बड़े-बड़े कार्यों को सम्पन्न कर सकता है। कहा जाता है कि थियोसोफिकल सोसाइटी की संस्थापिका मैडम ब्लेवटस्की ने तिब्बत के पहाड़ों में स्थित सिद्धाश्रम में रह कर ही अपनी “सीक्रेट डाक्ट्रिन” पुस्तक लिखी थी और उनके बाद इस समाज के और भी कई प्रमुख सदस्य अपने साधन के बल से आश्रम में जाकर महात्माओं के दर्शन कर चुके हैं।

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