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Magazine - Year 1959 - Version 2

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दृढ़ इच्छा-शक्ति के चमत्कार

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(श्री रामखेलावन चौधरी)

जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिये, जिन गुणों की आवश्यकता होती है, उनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है—”दृढ़ इच्छा शक्ति।” अन्य गुण, जैसे ईमानदारी, साहस, परिश्रम और लगन आदि, दृढ़ इच्छा-शक्ति के अभाव में व्यर्थ हो जाते हैं। प्रायः ऐसा देखा गया है कि एक व्यक्ति के पास धन है, बल है और विद्या है परन्तु वह अपने जीवन-काल में कुछ भी नहीं कर पाता। यदि ऐसे व्यक्तियों के मानसिक जीवन का विश्लेषण किया जाय, तो स्पष्ट पता चल जायगा कि उनमें इसी दृढ़ इच्छा-शक्ति का अभाव था। इसके विपरीत ऐसे अनेक व्यक्ति इतिहास प्रसिद्ध हो गये हैं जो साधनविहीन थे परन्तु अपने मनोबल के कारण, वे कुछ का कुछ बन गये।

श्री रामचन्द्र जी प्रवासी बने रहे और उनके पास केवल धनुष-बाण ही था परन्तु अपनी दृढ़ता के बल पर उन्होंने तमाम साधन और अनुयायी जुटा लिये। उन्होंने रावण को पराजित किया और अपनी कीर्ति को अमर बना गये। इसीलिये कहा गया है—”क्रिया सिद्धिः सत्वे भवति महताँ नोपकरणे।” यह ‘सत्व’ और कुछ नहीं दृढ़ इच्छा-शक्ति ही है। यह सत्व जितनी अधिक मात्रा में मनुष्य में वर्तमान होगा, उतना ही वह जीवन में सफल होगा। सिकंदर नेपोलियन, महमूद गजनवी और चन्द्रगुप्त मौर्य आदि विजेता अपने निश्चय पर हिमालय की भाँति अटल रहे। लोग उनके लक्ष्य को असंभव बता कर उनकी हँसी उड़ाते रहे परन्तु उन्होंने अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति का कभी भी तिरस्कार नहीं किया। कोलंबस के मन में बड़ी तीव्र इच्छा थी कि वह अटलाँटिक को पार करके नया संसार खोज निकाले। उसके नाविकों ने हिम्मत हार दी और उसका भरसक विरोध किया परन्तु उसने जो कुछ करना था कर दिखाया। बँगला के प्रसिद्ध कवि माइकेल मधुसूदन दत्त को अँगरेजी का सफल कवि बनने और इंग्लैंड का भ्रमण करने की तीव्र इच्छा थी। वह अल्पायु में सफल कवि बने। महात्मा गाँधी तो दृढ़ इच्छा-शक्ति के मानो अवतार ही थे। उन्होंने अकेले ही संसार के सबसे बड़े साम्राज्य को हिलाकर झकझोर डाला। कहने का तात्पर्य यह है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति जीवन में सफलता प्राप्त करने की कुँजी है।

यह दृढ़ इच्छा-शक्ति क्या है? इसका अर्थ है—”मैं यह काम करूंगा और करके ही रहूँगा चाहे जो कुछ हो।” ऐसी बलवती इच्छा को जिसकी ज्योति अहर्निश कभी मंद न हो, दृढ़ इच्छा-शक्ति कहते हैं। यह ‘ढुलमुलयकीनी’ की विरोधी प्रवृत्ति है। बहुत से लोग ठीक से निश्चय नहीं कर पाते कि वे क्या करें। उनका मन हजार दिशाओं में दौड़ता है। वे दृढ़ इच्छा-शक्ति के चमत्कार को क्या समझ सकते हैं? इस शक्ति के अंतर्गत दृढ़ निश्चय, आत्मविश्वास कार्य करने की अनवरत चेष्टा और अध्यवसाय आदि गुण आ जाते हैं। यह शक्ति मनुष्य के मुखमंडल पर अपूर्व तेज उत्पन्न करती है और आँखों में सम्मोहन का जादू लाती है। यही कारण है कि दृढ़ इच्छा-शक्ति संपन्न व्यक्ति के संपर्क में आते ही निर्बल चित्त वाले मनुष्य उसी प्रकार उसकी ओर आकर्षित होते हैं जैसे चुँबक की शिला की ओर लौह कण। उसके मस्तिष्क से मानसिक तरंगें निकल कर वायुमंडल में लहराती हैं ओर आस-पास के व्यक्तियों को अज्ञात रूप से प्रभावित करती हैं। रूप-रंग, धन-यौवन में उतना आकर्षण नहीं होता जितना दृढ़ इच्छा-शक्ति में होता है।

अब प्रश्न यह है कि ऐसी सम्मोहक दृढ़ इच्छाशक्ति को उत्पन्न कैसे किया जाय? उत्तर है-अभ्यास के द्वारा। अब से एक शताब्दी पूर्व तक मनोवैज्ञानिकों का विचार था, दृढ़ इच्छा-शक्ति एक सहज अर्थात् प्रकृति-प्रदत्त गुण है। आज यह विश्वास बदल रहा है। वह गुण मस्तिष्क के किसी अंग की सबलता या निर्बलता से संबन्धित नहीं है। वास्तव में यह मनुष्य की परिस्थितियों, आदतों और अभ्यास के अनुसार बनता अथवा बिगड़ता है। इस गुण का बीजारोपण जन्म से लेकर लालन-पालन के काल से ही हो जाता है। ऐसे परिवार में जो साधन संपन्न है, जिसमें बालक की प्रत्येक इच्छा पूरी की जाती है या जिसमें बालक माता-पिता की एक मात्र संतान होने के कारण प्रेम का भाजन होता है, पलने पर एक बालक में दृढ़-इच्छा शक्ति का उत्पन्न होना स्वाभाविक है, परन्तु हर दशा में ऐसा ही होता हो, यह नहीं कहा जा सकता। इच्छा शक्ति में दृढ़ता लाने के लिये यह आवश्यक है कि बालक कुछ अवरोधों का अनुभव करता रहे। साथ ही यह अवरोध ऐसे भी न हों जिन्हें बालक पार न कर सके और हतोत्साह हो जाय। अस्तु, बालक के लालन-पालन में माता-पिता को बहुत जागरुक रहना चाहिये। अज्ञानतावश या दुलार के कारण बालक की प्रत्येक इच्छा पूरी करने पर, उसमें ‘जिद’ करने का अवगुण पैदा हो जाता है। यह ठीक है कि बालक हर प्रकार से अपनी बात मनवाने का प्रयत्न करता है परन्तु ‘जिद’ के साथ अविवेक और स्वार्थ का अंश मिल जाने के कारण उसे दृढ़ इच्छाशक्ति कहना अनुचित है। दृढ़-इच्छाशक्ति के साथ विवेक सद्प्रयत्न और न्याय का संभोग होना चाहिये।

दृढ़ इच्छा-शक्ति के विकास में सबसे बड़ी बाधा भय और दुश्चिंता से उत्पन्न होती है। इसलिये बचपन से ही बच्चों को इन कुभावों से बचाना चाहिये। इच्छा की दृढ़ता से मनुष्य की ‘स्वतन्त्र सत्ता’ का बोध होता है, भय पराधीनता का सूचक है। जब बच्चों को हर प्रकार से भयग्रस्त रक्खा जाता है, तो उनमें दबने की आदत पैदा हो जाती है। वे दूसरों की इच्छा के आगे झुकने लगते हैं और उनकी स्वयं की इच्छाशक्ति निर्बल हो जाती है। इसी प्रकार चिंता भी एक दूषित मनोभाव है। यह चित्त में अस्थिरता और विभ्रम पैदा करती है। चिन्ता से मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ होकर किसी भी निर्णय पर पहुँचने में असमर्थ हो जाता है। बच्चों के लालन-पालन में इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उन्हें यथासंभव दुश्चिंता से दूर रक्खा जाय। दुश्चिंता का मूलकारण है बालक की शक्ति और उसकी सफलता के बीच समन्वय का न होना। जब बालक किसी वस्तु को प्राप्त करना चाहता है परन्तु इस कार्य में उसकी शक्ति अपर्याप्त होती है, तो वह चिंता से पीड़ित हो उठता है। यह बात मनोरंजन, पढ़ाई और घरेलू कामों के विषय में भी लागू होती है। जहाँ तक संभव हो, बालक को कोई भी ऐसा कठिन काम न देना चाहिये, जिसे पूरा करने में वह सर्वथा असमर्थ हो। इसके अतिरिक्त घर का वातावरण भी शुद्ध और पवित्र होना चाहिये। अभाव, गृह-कलह और अनैतिकता भी बालकों के मन में भीषण अन्तर्द्वन्द्व पैदा करते हैं और बालकों की दृढ़ इच्छाशक्ति को निर्बल बनाते हैं। बालकों को इनसे दूर रखना उचित है।

वयस्क होने पर हम स्वयं अपनी आदतों के लिये जिम्मेदार होते हैं। दृढ़ इच्छाशक्ति को बनाये रखना हमारे अपने हाथ में है। सर्वप्रथम हमें तुरंत निश्चय करने तथा लक्ष्य चुनने की आदत डालनी चाहिये। जब हमारे सामने दो या दो से अधिक प्रबल आकर्षण हों, तो हमें उनके बीच में लटके नहीं रहना चाहिये या तो स्वयं या अपने किसी अन्तरंग मित्र से सलाह लेकर यह निश्चय कर लेना चाहिये कि हमें कौन-सा मार्ग अपनाना है। दो घोड़ों पर एक साथ सवार होकर चलना असंभव है। हमें एक हमारे परम आत्मीयजन ने इस प्रकार की दुविधापूर्ण स्थिति से निकलने का एक बड़ा ही व्यावहारिक उपाय बताया। वे स्वयं एक ऐसी ही स्थिति में पड़ गये जिसमें उनके सामने दो प्रबल आकर्षण थे। उनका मन कभी एक ओर दौड़ता, कभी दूसरी ओर। उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और वह बड़े संकट में फँस गये। अन्त में वह कागज-कलम लेकर बैठ गये। उन्होंने दोनों आकर्षणों के पक्ष और विपक्ष में सारे तर्क लिख डाले। बाद में दोनों की तुलना करने पर जो आकर्षण उन्हें न्यायोचित और उपयोगी जान पड़ा, उसी को मानकर वे चलने लगे। बस उनके मन में जो संघर्षण था, शाँत हो गया और वे अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल हो गये। उनकी इच्छाशक्ति भी सबल हो गई।

किसी भी पक्ष को ग्रहण करने के पूर्व यह अवश्य सोचना चाहिये कि इस काम को करने में मेरी अधिक से अधिक कितनी हानि हो सकती है। फिर उस हानि को सहन करने के लिये तैयार हो जाना चाहिये और कार्य आरम्भ कर देना चाहिये। इससे मन में दृढ़ता उत्पन्न होती है और मनुष्य प्रलोभनों से बचा रहता है। प्रायः ऐसा भी होता है कि एक निश्चय पर पहुँचने के बाद कार्य आरम्भ किया गया, परन्तु कुछ समय बाद ही कोई अन्य प्रलोभन सामने आ जाती है। फिर वही पहले वाली अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न हो गई। यदि मनुष्य इस नये प्रलोभन का शिकार हो गया तो उसकी इच्छाशक्ति निर्बल पड़ जाता है। अतः अपने प्रथम निश्चय से कभी भी डिगना नहीं चाहिये। प्रलोभनों के अतिरिक्त अपने निश्चय पर अटल रहने में दूसरे प्रकार की बाधाएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं। वे हैं अप्रत्याशित कठिनाइयाँ। मनुष्य कितना ही दूरदर्शी एवं कल्पनाशील हो परन्तु किसी कार्य में सामने आने वाली कठिनाइयों का शतप्रतिशत अनुमान लगा लेना असंभव है। किसी निश्चय पर पहुँचने के बाद जब हम कार्य आरंभ करते हैं, तो अनेक ऐसी कठिनाइयाँ सामने आ जाती हैं, जिनकी हमने कल्पना भी न की थी। बस हमारा मन डाँवाडोल होने लगता है। हमें ऐसी स्थिति का सामना करने के लिये तैयार रहना चाहिये। कार्य सिद्धि के मार्ग में न जाने कौन बाधा कहाँ से आ जाय, अस्तु उसका सामना धैर्यपूर्वक करना चाहिये तभी दृढ़ इच्छा-शक्ति बनी रह सकती है।

हमें आशा है कि यदि पाठक उपर्युक्त विचारों पर अमल करेंगे तो उनकी अनेक दुविधाएँ दूर हो जाएंगी और उनके पास दृढ़ इच्छाशक्ति का गुण स्थायी रूप से वर्तमान रहेगा।

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