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Magazine - Year 1959 - Version 2

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आन्तरिक शत्रुओं से सावधान

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(श्री देवीदत्त एम. ए. बी. टी.)

उलूक-यातु शुशुलूक-यातु जहि

श्व-यातुमुत लोक यातुम।

सुपर्ण-यातुमुत ग्रध्रयातु दृष्टदेव

प्रमृण रक्ष इन्द्र॥

(ऋग् 7। 104। 22)

अर्थात् (1) गरुड़ के समान चाल-चलन अर्थात् घमंड, गर्व, अहंकार (2) गीध के समान बर्ताव अर्थात् लोभ—दूसरों के माँस पर स्वयं पुष्ट होने की इच्छा (3) चिड़ियों के समान व्यवहार अर्थात् अत्यन्त काम विकार (4) कुत्ते के सामान रहना अर्थात् आपस से लड़ना और दूसरे के सामने दुम हिलाना (5) उल्लू के समान आचार अर्थात् मूर्खता का व्यवहार करना, उल्लू जिस प्रकार प्रकाश से भागता है उस प्रकार ज्ञान की ज्योति से दूर भागना (6) भेड़िये के समान क्रूरता—ये 6 राक्षस हैं। गर्व, लोभ, काम, मत्सर, मोह और क्रोध ये छः ऐसे विकार हैं कि जिनको, जैसे पत्थर से पक्षियों को मार कर भगाते हैं, उसी प्रकार दिल को दृढ़ बनाकर दूर करना चाहिये, और इनसे सबको बचाना चाहिये।”

अहंकार, लोभ, मोह, मत्सर, काम, क्रोध आदि मनुष्य के भीतरी शत्रु हैं। संसार में अधिकाँश मनुष्यों के कुछ बाहरी शत्रु भी हुआ करते हैं। पर उनको मनुष्य भली प्रकार पहचानता है और जब वे निकट आते हैं तो उनसे अपनी रक्षा करने को सावधान हो जाता है। पर जो शत्रु हमारे मन के भीतर से ही उत्पन्न होते हैं और मित्र का सा लुभावना वेष रखकर आते हैं, उनसे बच सकना बड़ा कठिन होता है। मनुष्य का कर्तव्य है कि उनके वास्तविक रूप को समझ कर और उनसे अन्त में होने वाली हानियों को जान कर आरम्भ से ही प्रतिकार करता रहे। वेद भगवान ने उनसे दृढ़तापूर्वक दूर रहने का उपदेश देते हुये उनकी उपमा अन्य प्राणियों में पाई जाने वाली बुरी प्रवृत्तियों से की है। जिस प्रकार अहंकार के कारण गरुड़ को परेशान होना पड़ा, भोजन का अति लोभ होने से गिद्ध को उदर पीड़ा सहन करनी पड़ती है, काम वृत्ति की अधिकता से चिड़ियाँ सदैव उद्विग्न रहती हैं, पारस्परिक ईर्ष्या द्वेष के भाव के फलस्वरूप कुत्तों को मार खानी पड़ती है, अंधकार से मोह रखने के कारण उल्लू को निन्दनीय समझा जाता है, और सदैव क्रूरता, क्रोध का भाव मन में रखने से भेड़िए को निकृष्टतम प्राणी कहा जाता है, उसी प्रकार इस तरह की बुरी प्रवृत्तियाँ रखने वाले मनुष्य भी निन्दा के पात्र समझे जाते हैं। मनुष्य का धर्म है कि वह अपने से कहीं नीचे दर्जे के प्राणियों के अवगुणों की नकल कदापि न करे और संसार में रहकर ऐसे आदर्श कार्य करे जिनसे उनका मनुष्य कहलाना सार्थक हो।

यद्यपि काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि की प्रवृत्ति न्यूनाधिक परिमाण में सभी मनुष्यों में पाई जाती है और जैसी आज संसार की अवस्था है उसमें इनका सर्वथा निराकरण कर सकना बड़ी कठिन बात है। तो भी मनुष्य का कर्तव्य है कि इनके वशीभूत होने के बजाय इन पर अपना नियंत्रण रखे। जैसे आतताइयों द्वारा आक्रमण किये जाने पर क्रोध की, सृष्टि-संचालन में काम की, संतान पालन में मोह की, गृहस्थी की व्यवस्था में लोभ अथवा मितव्ययिता की आवश्यकता पड़ती है। पर अपनी आवश्यकता के लिये इनका उपयोग करना एक बात है और इनके वशीभूत होकर अनुचित कार्यों को भी करने लगना बिल्कुल भिन्न बात है। जो लोग इन वृत्तियों के वशीभूत होकर इनको ठीक सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं वे बड़े भ्रम में पड़े हैं। चाहे इन वृत्तियों को सामयिक परिस्थिति के कारण कभी-कभी क्षम्य मान लिया जाय, पर ये प्रशंसनीय तो किसी दशा में नहीं मानी जा सकतीं। चाहे इनके द्वारा कोई आर्थिक लाभ उठा ले, साँसारिक सत्ता प्राप्त कर ले, पर वास्तव में ये मनुष्यत्व से गिराने वाली वृत्तियाँ हैं। जिसमें इन वृत्तियों की जितनी कमी होगी वह उतना ही श्रेष्ठ श्रेणी का व्यक्ति समझा जायगा। इसीलिये महात्मा पुरुषों में इनका सर्वथा अभाव माना जाता है, और जो कोई महात्मा का रूप धारण करके भी इन वृत्तियों को नहीं त्याग सकता, उनकी निन्दा होती है। साँसारिक व्यवहारों में लगे हुये व्यक्तियों का कम से कम उपयोग किया जाय। और किसी भी दशा में उनका दास तो बना ही न जाय। जो मनुष्य इन हीन प्रवृत्तियों के फन्दे में इतना अधिक फँस जाता है कि इच्छा करने पर भी उनसे अपने को मुक्त नहीं कर सकता, तो फिर वह “मनुष्य” नाम का अधिकारी भी नहीं रहता।

इस प्रकार वेद का उपदेश बुराइयों को दूर करने का है। इसके लिये अन्य मन्त्रों में बताया गया है कि हमको कभी बुराइयों का चिन्तन नहीं करना चाहिये और न किसी से बुराई की बात सुननी चाहिये। इतना ही नहीं संयोगवश जब कोई बुरी बात हमारे मन में आवे तो तुरन्त सावधान होकर मन को उनकी तरफ से हटा लेना चाहिये क्योंकि बुरी बातों की तरफ आकर्षित होने से हम बुरे कर्म करने में प्रवृत्त हो जाते हैं और उनसे हमारा पतन होता है। इसीलिये जैसे ही इस प्रकार का कोई हानिकारक विचार उत्पन्न हो हमको उसके विपरीत विचार द्वारा उसका खंडन कर देना चाहिये। स्मरण रखो यह बात केवल हमारी दृढ़ता पर आधार रखती है। कमजोर मन के व्यक्ति स्वयं भी और दूसरों के द्वारा बहकाये जाने पर भी बहुत जल्द बुराइयों में प्रवृत्त हो जाते हैं और अपना पतन कर लेते हैं। इसलिये मानव जीवन की सफलता के लिये आत्मिक उत्थान के लिये, हमको अपने मन को सदैव दृढ़ रखना और पतन के मार्ग से बचकर रहना परम आवश्यक है।

वेद का मंगलमय उपदेश यही है कि मनुष्य को सदैव परीक्षा करके अपनी बुराइयों को हटा कर, श्रेष्ठ सद्गुणों को अपने भीतर धारण करना चाहिये। व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न प्रकार के दुर्गुण पाये जाते हैं और उसी प्रकार समाज में दुर्जन व्यक्ति भी होते हैं इन दोनों को दूर रखना चाहिये। अपने मन के विकारों को रोकना और दूर करना हमारा व्यक्तिगत कार्य है। अगर हम ऐसा न करेंगे तो इससे हमको ही हानि उठानी पड़ेगी, क्योंकि विकार युक्त भावनाओं और कार्यों से कभी स्थायी लाभ अथवा कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार समाज में पाये जाने वाले दुर्जन व्यक्तियों का नियन्त्रण सब लोगों को मिलकर सामुदायिक रूप से करना चाहिये। यदि उनको बुरी प्रवृत्तियों से न रोका जायगा और समाज में दुर्जनों की संख्या बढ़ जायगी तो उस समाज का पतन और अंत में नाश अवश्यम्भावी है। आज तक अनेक बड़ी-बड़ी जातियों और राष्ट्रों का अन्त इसी प्रकार हो चुका है। इसलिये व्यक्ति और समाज में से बुरी प्रवृत्तियों को दूर करने का ध्यान हमको सदैव रखना उचित है।

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