
जैसा गुण वैसा ही नाम
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किसी राजा ने एक बिलाव पाल रखा था। वह उसे बहुत प्यार करता था और दुलार से उसका नाम रख दिया था ‘व्याघ्र’।
एक दिन दरबार में ‘व्याघ्र’ नाम पर चर्चा होने लगी। किसी दरबारी ने कहा कि व्याघ्र से अच्छा नाम तो वनराज ‘सिंह’ का है। इसे सिंह क्यों न कहा जाय। यह बात राजा को पसन्द आ गई और उसे सिंह के नाम से बुलाया जाने लगा।
कुछ दिन बाद एक मंत्री ने बातचीत करते-करते यह सम्मति दी कि सिंह से तो मेघ बड़ा होता है जिसकी गर्ज को सुन कर सब जानवर डर जाते हैं। इसलिये इसका नाम मेघ रखा जाना उचित है। राजा ने भी इसको ठीक बतलाया और उस दिन से उसका नाम ‘मेघ’ पड़ गया।
एक दिन कोई विद्वान कवि राजा के दरबार में आये। उन्हें मेघ नाम अच्छा न लगा। पवन के वेग से मेघ जरा-सी देर में छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, इसलिये राजा के बिलाव को पवन क्यों न कहा जाय? राजा इससे सहमत हो गये। उन्होंने बिलाव को पवन कहना आरम्भ कर दिया। कुछ समय पश्चात प्रसंगवश किसी मंत्री ने कहा-”महाराज। दुर्ग, पवन को भी रोक देते हैं। आँधी और तूफान भी उसे हिला नहीं सकते। इस बिलाव का नाम ‘दुर्ग’ रखना बहुत ठीक होगा और लोगों ने भी इसका समर्थन किया और बिलाव ‘दुर्ग’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
पर अभी इस नाम-चर्चा का अन्त नहीं आया था। एक दिन कोई अन्य देशीय अतिथि वहाँ आया। उसने ‘दुर्ग’ नाम की कथा सुनकर कहा कि-चूहा बड़े-बड़े दुर्गों में छेद कर देते हैं। इस दृष्टि से यदि इसे ‘चूहा’ कहा जाय तो अधिक उपयुक्त होगा। कुछ दरबारियों ने भी उसकी हाँ में हाँ मिला दी और बिलाव का नाम बदल कर ‘चूहा’ रख दिया गया।
बहुत दिन तक ‘चूहा’ नाम ही चलता रहा। फिर एक दिन जब नाम की चर्चा चल पड़ी तो प्रधान अमात्य ने कहा कि यह बिलाव तो स्वयं चूहा का शिकार करता है और चूहे इसे देखते ही अन्तर्धान हो जाते हैं। तब चूहा की बजाय बिलाव नाम ही क्या बुरा है? यह बात सब की समझ में आ गई और बिलाव अपने असली नाम से ही पुकारा जाने लगा। अब नाम बदलने की समस्या सदा के लिये समाप्त हो गई।
राज पुरोहित ने इसकी चर्चा करते हुये एक समय कहा-अपना यथार्थ व्यक्तित्व ही सबसे श्रेष्ठ है। हम जैसे हैं वैसे ही कहे जायँ तो कोई हर्ज नहीं। जो अपनी स्थिति नहीं है वैसा बनने में अनिश्चितता और विडम्बना ही रहती है और उससे कोई लाभ भी नहीं निकलता।