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Magazine - Year 1963 - Version 2

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आस्तिकता की अभिवृद्धि से विश्व-कल्याण की सम्भावना

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(श्री ज्ञानानन्द ब्रह्मचारी)

यह संसार भगवान द्वारा विनिर्मित और उसी से ओत-प्रोत है। यहाँ जो कुछ श्रेष्ठता दिखाई पड़ती है वह सब भगवान की ही विभूति है। जीव ईश्वर का ही पुत्र-अंश है। उसमें जो कुछ तेज और ऐश्वर्य दिखाई पड़ता है वह ईश्वरी या अंशों की अधिकता के कारण ही उपलब्ध होता है। आत्मा की प्रगति, उन्नति और विभूति की संभावना भगवन् के सान्निध्य में ही संभव होती है।

समस्त सद्गुणों का केन्द्र परमात्मा है। जिस प्रकार पृथ्वी पर ताप और प्रकाश सूर्य से ही आता है, उसी प्रकार मनुष्य को आध्यात्मिक श्रेष्ठताएँ और विभूतियाँ परमात्मा से ही प्राप्त होती हैं। इस संसार में समस्त दुःख, पापों के ही परिणाम हैं। अथवा मनुष्य अपने किये पापों का दण्ड भुगतता है या फिर दूसरों के पापों की लपेट में आ जाता है। दोनों प्रकार के दुःखों का कारण पाप ही होते हैं। यदि पापों को घटाया जा सके तो मानव जाति के दुःखों में निश्चय कही कमी हो सकती है। कुविचारों और कुकर्मों पर नियंत्रण धर्म-बुद्धि के विकसित होने से ही संभव होता है और यह धर्म-बुद्धि परमात्मा पर सच्चे मन से विश्वास रखने से उत्पन्न होती है। जो निष्पक्ष, न्यायकारी परमात्मा को घट-घटवासी और सर्वव्यापी समझेगा उसे सर्वत्र ईश्वर ही उपस्थित दिखाई पड़ेगा। ऐसी दशा में पाप करने का साहस खड़ा देख कर तो दुस्साहसी चोर भी अपनी हरकतें बन्द कर देता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति परमात्मा को निष्ठुरतापूर्वक कर्म फल देने वाला और सर्वव्यापी समझ लेना वह आस्तिक व्यक्ति पाप करने की बात सोच भी कैसे सकेगा?

ईश्वर का अविश्वास ही पापों की जड़ है, इस अविश्वास से प्रेरित होकर ही मनुष्य मर्यादाओं का उल्लंघन करके स्वार्थ और अहंकार की पूर्ति के लिये स्वेच्छाचारी बन जाता है। आत्म-नियंत्रण के लिए ईश्वर-विश्वास की अनिवार्य आवश्यकता मानी गई है। व्यक्ति सदाचार और सामूहिक कर्तव्य-परायणता के पालन के लिये ईश्वरीय विश्वास के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं हो सकता। इसलिए मनीषियों ने मनुष्य के दैनिक आवश्यक कर्तव्यों ईश्वर उपासना को सबसे प्रमुख और अनिवार्य माना है। जो इसकी उपेक्षा करते हैं उनकी भर्त्सना की और उन्हें कई प्रकार के दण्डों का भय भी बताया है।

खेद है कि आज नास्तिकता की सत्यानाशी बाढ़ तेजी से बढ़ती चली जा रही है। भौतिकवाद विचारधाराओं ने यह प्रतिपादित किया है कि ईश्वर न तो आँखों से दिखाई पड़ता है और न वैज्ञानिक शालाओं की जाँच द्वारा सिद्ध होता है इसलिए उसे मानने की आवश्यकता नहीं। अति उत्साही लोग इतनी बात से बहक जाते हैं और ईश्वर की आस्था पर अविश्वास करने लगते हैं। न तो वे कर्म फल के ईश्वरीय विधान पर विश्वास करते हैं और न उपासना की कोई आवश्यकता अनुभव करते हैं।

दूसरे प्रकार के नास्तिक इनसे भी गये-बीते हैं वे अपने को आस्तिक कहते और किसी ईश्वर को मानते भी हैं पर उनका यह कल्पित ईश्वर वास्तविक ईश्वर से सर्वथा भिन्न होता है। वे समझते कि ईश्वर तो केवल पूजा-स्तुति ही चाहता है, इसे से ही वह प्रसन्न होकर मनुष्य के पापों पर ध्यान नहीं देता। पूजा करने वालों के समस्त पाप किस सामान्य धार्मिक कर्मकांड के कर लेने से दूर हो जाते हैं। साथ ही वे ईश्वर से यह भी आशा रखते हैं कि जरा से पाठ, पूजन के बदले, बिना उनके योग्यता, पुरुषार्थ और लगन की जाँच किये वह मनमाना वरदान दे सकता है और उनके समस्त कामनाओं की पूर्ति कर सकता है। ये लोग ऐसा भी सोचते हैं कि साधु, ब्राह्मण परमात्मा के अधिक निकट हैं इसलिये यदि उन्हें दान दक्षिणा देकर प्रसन्न कर लिया जाय तो अपनी तगड़ी सिफारिश परमात्मा के यहाँ पहुँच सकती है और फिर तुरन्त ही मनमाने वरदान पाने और पाप के दण्ड से बचने की सुविधा हो सकती है। हम देखते हैं कि आजकल नाममात्र की आस्तिकता इसी विडम्बना की धुरी पर घूम रही है।

यह प्रच्छन्न नास्तिकता दिखाई तो ईश्वर-विश्वास जैसी ही पड़ती है, पर इससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है। आस्तिकता का असली लाभ पाप से भय उत्पन्न करना है। इसके विपरीत जिस मान्यता के अनुसार दस-पाँच मिनट में पूरे हो सकने वाले कर्मकाण्डों द्वारा ही समस्त पापों का फल नष्ट हो सकने का आश्वासन दिया गया हो, उससे तो उलटे पाप के प्रति निर्भयता ही बढ़ेगी। जब पाप-फल से बच सकना इतना सरल मान लिया गया तो दुष्कर्मों द्वारा प्राप्त होने वाले आकर्षणों को छोड़ना कौन पसन्द करेगा? ऐसी मान्यता से प्रभावित होकर मध्यकालीन राजाओं और सरदारों ने बर्बर अत्याचार और अनैतिक आचरण करने के साथ-साथ पूजा-पाठ के भी बड़े-बड़े आयोजन किये थे। उन्होंने मंदिर भी बनवाये और भगवान को प्रसन्न करने वाले उत्सव आदि भी किये। पंडितों और ब्राह्मणों को कथा-भजन करने के लिये वृत्तियां भी दीं। सम्भवतः वे यही समझते थे कि उनका पहाड़ के बराबर अनैतिकता का कार्य-क्रम इस प्रकार धन द्वारा रचाई पूजा-पाठ की धूमधाम के पीछे छिप जायेगा। पंडितों और पुजारियों ने अपनी आजीविका की दृष्टि से ऐसे आश्वासन भी गढ़कर रख दिये, जिससे कुमार्गगामी व्यक्ति थोड़ा बहुत दान-पुण्य करते रहने तो तत्पर रहें। दान पुण्य की परिभाषा भी इन लोगों ने बड़े विचित्र ढंग से की कि केवल ब्राह्मण वंश में उत्पन्न हुये व्यक्ति को जो कुछ दिया जायेगा, वह अवश्य पुण्य माना जायेगा।

विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस प्रकार की अज्ञानमूलक धारणा व्यक्ति और समाज के लिये हानिकारक परिणाम ही उपस्थित कर सकती है। पापों के दण्ड से बच निकलने का आश्वासन पाकर लोग चरित्र गठन की उपेक्षा करने लगे, पापों का भय जाता रहा। ऐसी अनेक कथा-कहानियाँ गढ़ी गई जिनमें निकृष्ट से निकृष्ट कर्म जीवन भर करते रहने वाले व्यक्ति केवल एक बार अनजाने धोखे से-’नारायण ‘ का नाम लेने से मुक्त हो गये। इन कथाओं से सत्कर्मों की व्यर्थता सिद्ध होती है और प्रतीत होने लगता है कि जीवन-शोधन के लिये श्रम और त्याग करने की अपेक्षा थोड़ा-बहुत पूजा पाठ कर लेना ही अधिक सुविधाजनक है। ऐसी शिक्षा देने वाला अध्यात्म वस्तुतः अपने लक्ष्य से ही भ्रष्ट हो जाता है। आस्तिकता का मुख्य उद्देश्य मनुष्य को सदाचारी और कर्तव्य परायण बनाना है। यदि इस बात को भूलकर लोग देवताओं को माँस, मदिरा या मिष्ठान्न की रिश्वत देकर मनमाने लाभ प्राप्त करने की बात सोचने लगें तो यह माना जायेगा कि उन्होंने ईश्वर को भी रिश्वत लेकर उल्टा-सीधा काम करने वाला मान लिया है। फिर तप, त्याग, संयम, धर्म, कर्तव्य आदि के कष्टसाध्य मार्ग की उपयोगिता क्या रह जायगी? जब ईश्वर अपनी प्रतिमा के दर्शन करने वाले, स्तुति गाने वाले और भोग लगाने वाले पर ही प्रसन्न होने लगा तो फिर यही मार्ग हर किसी को पसन्द आने लगेगा। फिर कोई क्यों उस संदर्भ के नाम पर कष्ट सहने को प्रस्तुत होगा जिसमें सर्वस्व त्याग और तिल-तिल कर जलने की अग्निपरीक्षा में होकर गुजरना पड़ता है।

इन्हीं मान्यताओं का फल आज हम यह देख रहे हैं कि पूजा-अर्चना में बहुत धन और समय खर्च करने वाले व्यक्ति भी चारित्रिक दृष्टि से बहुत गये गुजरे देखे जाते हैं। मन्दिर, झाँकी भजन-कीर्तन में बहुत उत्साह दिखाने वाले भी गुप्त-प्रकट रूप से बुरी तरह पाप पंक में डूबे रहते हैं। ‘जो कुछ होता है ईश्वर की इच्छा से ही होता है’- ऐसा मानने वाले आलसी और अकर्मण्य बनकर अपनी हीन स्थिति का दोष ईश्वर को लगाते रहते हैं और प्रगति के लिये कि यह प्रतीक्षा करते रहते हैं कि जब कभी ईश्वर की इच्छा हो जायगी तभी अनायास सब कुछ हो जायेगा। ऐसे लोग अनीति और अत्याचारों को भी ईश्वरेच्छा मान कर चुपचाप सहते रहते हैं। वे किसी दीन दुखी और निराश्रित की सेवा सहायता करने से भी इसीलिये विमुख रहते हैं कि इससे ईश्वर के इच्छा का विरोध होगा। इन्हीं मान्यताओं के आधार पर एक हजार वर्ष तक हम विदेशी आक्रमणकारियों के बर्बर अत्याचार सिर झुकाये सहते रहे। सोमनाथ मंदिर की अपार संपत्ति लुटते देखकर हमें भगवान की प्रार्थना करने के सिवाय कर्तव्यपालन का कोई अन्य मार्ग न सूझा। आस्तिकता का असली स्वरूप भुला कर जो अविवेकपूर्ण धारण हमने अपनाई, उसके कारण हम वस्तुतः ईश्वर से अधिकाधिक दूर होते गये आस्तिकता के नाम पर हमने दिखावटी पूजापाठ का जो भाव अपनाया उससे हमने पाया कुछ नहीं, केवल खोया ही खोया।

ऐसे विषम समय में तत्वदर्शी लोग भारी पीड़ा अनुभव कर रहे थे कि क्या इन काली घटाओं की चीर कर फिर कभी सच्ची आस्तिकता का सूर्य उदय होगा? यह प्रार्थना ईश्वर ने सुनी और वह दिन फिर सामने आया जिसमें जन साधारण को आस्तिकता का सच्चा स्वरूप समझने का अवसर मिल सके। युग-निर्माण-योजना को आस्तिकता के पुनरुद्धार का आन्दोलन ही कहना चाहिये। कहते हैं कि किसी समय नारद जी ने भक्ति का घर-घर प्रचार करने का व्रत लिया था और वे अथक श्रम करके सारी पृथ्वी पर अनवरत भ्रमण करते हुये समस्त नर-नारियों को ईश्वर उपासक बनाने में जुट गये थे। युग-निर्माण-योजना के जन्मदाता ने भी आस्तिकता की प्रेरणा करोड़ों आत्माओं तक पहुँचाई हैं और 24 लाख से अधिक व्यक्ति गायत्री के नैष्ठिक उपासक बनाये हैं। अब उनका प्रयत्न यही हैं कि घर-घर में आस्तिकता की आस्था फलती-फूलती नजर आवे। युग निर्माण योजना का प्रथम लक्ष्य आस्तिकता का प्रसार करना ही है। समस्त हिन्दू-जाति को उसकी संस्कृति के उद्गम केन्द्र से परिचित करने और गायत्री के माध्यम से भावनात्मक एकता उत्पन्न करने के लिये जो प्रयत्न किया जा रहा है उससे जातीय एकता का एक नवीन अरुणोदय होगा और हम चारों वेदों की जननी महाशक्ति गायत्री के साथ-साथ उसके 24 अक्षरों में सन्निहित अपनी महान संस्कृति को भी समझ सकेंगे। जातीय उत्कर्ष की दृष्टि से निश्चय ही यह एक बहुत बड़ा काम होगा।

युग-निर्माण योजना के अंतर्गत जिस आस्तिकता का प्रसार किया जा रहा है उसमें जप, तप, हवन, पूजन, भजन, ध्यान, कथा, कीर्तन, तीर्थ, पाठ, व्रत, अनुष्ठान आदि के लिये परिपूर्ण स्थान है, पर साथ ही समस्त शक्ति लगा कर हर आस्तिक के मन में यह संस्कार जमाये जा रहे हैं कि ईश्वर को निष्पक्ष, न्यायकारी और घट-घटवासी समझते हुये कुविचारों और दुष्कर्मों से डरें और उनसे बचने का प्रयत्न करें। प्रत्येक प्राणी में ईश्वर को समाया हुआ समझ कर उसके साथ सज्जनतापूर्ण सद्व्यवहार किया जाय। कर्तव्यपालन को ईश्वर की प्रसन्नता का सबसे बड़ा उपहार मानें और प्रभु की इस सुरम्य वाटिका-पृथ्वी में अधिकाधिक सुख-शान्ति विकसित करने के लिये एक ईमानदार माली की तरह सचेष्ट बना रहे। अपना अन्तःकरण इतना निर्मल का प्रकाश स्वयमेव झिलमिलाने लगे। प्रार्थना केवल सद्बुद्धि, सद्गुण, सद्भावना, सहनशीलता, पुरुषार्थ, धैर्य, साहस और सहिष्णुता के लिये आवश्यक क्षमता प्राप्त करने की ही की जाय। परिस्थितियों को सुलझाने और अभावों की पूर्ति के लिये जो साधन हमें मिले हुये हैं उन्हें ही प्रयोग में लाया जाय और संघर्ष का जीवन हँसते-खेलते बिताते हुये मन को संतुलित रखा जाय।

ये ही सब आस्तिकता के सच्चे लक्षण हैं। युगनिर्माण योजना का प्रयत्न यह है कि इन लक्षणों से युक्त भक्ति और पूजा की भावना को जन-मानस में स्थान मिले और सच्ची आस्तिकता के अपनाने के लिये मानव मात्र का अन्तःकरण उमंगने लगे।

मनुष्य का कल्याण परमपिता परमात्मा की शरण में जाने से ही हो सकता है। असुरता के चंगुल से छुड़ा कर देवत्व की ओर अग्रसर होने की प्रवृत्ति की साधना कहलाती है। साधना से हमारा जीवन सुव्यवस्थित और सुसंस्कृत भी बनता जाता है। पर यह तभी संभव होता है जब हम जड़-विज्ञान तथा स्वार्थपूर्ण दिखावटी आस्तिकता से बचकर सच्चे स्वरूप में ईश्वर की उपासना करेंगे। युग-निर्माण योजना मानव-मात्र के हृदय में सच्ची आस्तिकता उत्पन्न करके उनका हित साधन करने के लिये ही चलाई गई है।

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