
दुःस्वप्नों को पीछे दौड़ने वाले
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एक बार एक उल्लू ने सपना देखा कि वह कल्पवृक्ष के रम्य उपवन के बिलकुल समीप जा पहुँचा और वह देवदुर्लभ स्थान उससे कुछ ही दूरी पर रह गया है। उतने में उसकी आँख खुल गई।
उल्लू तेजी से उस सपने वाले उपवन की ओर बेतहाशा उड़ चला। आकाश में उड़ते एक सारस ने इतनी तेजी से भागने का कारण पूछा तो उल्लू ने कल्पतरु का उपवन समीप ही होने की बात को सुनाई। सारस भी लोभ संवरण न कर सका, वह भी उल्लू के साथ उड़ चला।
दूसरे पक्षियों ने दोनों की इस दौड़ का कारण पूछा तो वे भी उधर ही उड़ चले। अब तो मोर, पपीहा, बाज, बतख, कौआ, कोयल, तीतर, बटेर, सभी उसी दिशा में भागे। उस दिन कोई पक्षी ऐसा न बचा जो इस उड़न-प्रतियोगिता में सम्मिलित न हुआ हो।
एक बूढ़ा गिद्ध पाकर के पेड़ पर अपने कोटर में बैठा हुआ यह कौतुक देख रहा था। उसके छोटे बच्चे ने उस दौड़ धूप का कारण पूछा तो बूढ़े गिद्ध ने समाधान करते हुए कहा-दुःस्वप्नों के पीछे दौड़ की अन्धी प्रवृत्ति अब मनुष्यों से हटकर पक्षियों में भी लग गई प्रतीत होती है, तो हे पुत्र। अब भगवान ही हम लोगों का रक्षक है।
परोपकार की महत्ता
किसी जिज्ञासु ने ईरान के दार्शनिक कवि शेख सादी से प्रश्न किया-”भगवन्। परोपकारी बड़ा होता है या ताकतवर?” पहले तुम मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो तो मैं तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान कर दूँगा। यह बताओ कि हातिम के समय में सबसे बड़ा पहलवान कौन था।”
जिज्ञासु ने बहुत सोचा-विचारा पर उसे पर्याप्त समय तक प्रयत्न करने पर भी इसका उत्तर न सूझ पड़ा। अन्त में, उसने कहा-”हातिम के उपकार तो विख्यात हैं और उनकी कथा सबको याद है। पर उस जमाने के किसी पहलवान ने ऐसा कोई काम नहीं किया जिसके कारण उसे आज तक याद रखा जाता।”
शेख सादी ने उसे समझाया कि “तुम ने ठीक कहा हैं। इस कथन में ही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर भी मौजूद हैं।” पूछने वाला संतुष्ट होकर चला गया। उसने परोपकार की महत्ता को समझ लिया।
भट्टी और धौंकनी
लुहार की भट्टी और हवा भरने की धौंकनी में एक बार लड़ाई हो पड़ी।
भट्टी ने आग बबूला होकर कहा-मरे जानवर की घृणित खाल से बनी कुरूप धौंकनी, तेरी बदबू भरी साँस मुझे बहुत खलती है, हट, मेरे सामने से।
धौंकनी क्रुद्ध नहीं हुई। उसने शान्त स्वर से कहा-बहिन, भूल गई कि तुम्हारे चेहरे की लालिमा मेरे ही निरन्तर श्वासोच्छासों की परिणित है। मेरे विरत हो जाते ही तुम काली कलूटी कोयल की राख बनकर रह जाओगी।
क्रोध नाश का मूल है
सृष्टि का निर्माण कार्य पूर्ण हो गया। मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, देव, दानव सभी ने अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को समझा और अपने-अपने क्षेत्र में काम करने के लिए चल दिये।
अन्त के लिए शैतान बच गया। उसने भगवान से प्रार्थना की कि मुझे भी कोई काम और क्षेत्र सौंप दीजिए।
भगवान चिन्ता में पड़ गये। यदि शैतान को शरीर मिल गया तो फिर इसके द्वारा उत्पन्न हुए उपद्रवों का पारावार न रहेगा। इसलिए इसे शरीर तो नहीं दिया जा सकता, पर कुछ न कुछ काम तो बताना ही पड़ेगा।
बहुत सोच कर भगवान ने शैतान से कहा-तुम्हें क्रोध का रूप दिया गया। इस संसार में जिन्हें तुम नष्ट होने वाला समझो, उनके सिर पर चढ़ जाया करना।
तब से लेकर अब तक शैतान मारा मारा फिरता है। उसे कोई निश्चित स्थान और काम तो नहीं मिला। पर जिसकी दुर्गति होने वाली भवितव्यता उसे दीखती है उसी के सिर पर क्रोध बन कर चढ़ जाता है।
यह तथ्य सर्व विदित है कि जिसे क्रोध आता है उसका सर्वनाश होकर रहता है। शैतान के कानून को कोई तो जानते हैं और कोई नहीं भी जानते।