Magazine - Year 1963 - Version 2
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Language: HINDI
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आत्म संतोष और आत्म सम्मान
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विश्व-शान्ति के दो आधार—
गहरी और स्थायी प्रसन्नता के आधार दो हैं, सत्कर्मों द्वारा उत्पन्न होने वाला अपने भीतर का आत्म सन्तोष और इससे आत्मजनों द्वारा किया हुआ अपने साथ सद्व्यवहार, आत्म सम्मान। यह मानसिक सुख है। मन का महत्व शरीर की अपेक्षा कहीं अधिक है, इसलिए इन सुखों की अनुभूति भी बहुत अधिक होती है। आत्मा की आकाँक्षा इन्हीं दो सुखों को प्राप्त करने की बनी रहती है और यदि उसकी पूर्ति नहीं होती तो उसे सब कुछ सूना-सूना लगता है और अन्तःप्रदेश में असन्तोष एवं खिन्नता की स्थिति बनी रहती है। आज उसी खिन्नता और असन्तोष से सारा मानव-समाज खिन्न बना बैठा है। आत्म सन्तोष के अभाव में जो अन्तर्द्वन्द्व चलते हैं और दूसरों के असद् व्यवहार के कारण जो विक्षोभ पैदा होते हैं वे इतने दुखदायी होते हैं कि कई बार तो उनको सहन करना कठिन हो जाता है। जो सहते हैं वे मर्मान्तक पीड़ा अनुभव करते हैं। आज ऐसी ही विपन्न मनोभूमि हम सब की बनी हुई है। हर कोई भीतर-ही-भीतर खिन्न और असन्तुष्ट दिखाई पड़ता है। भौतिक उन्नति के लिए बहुत कुछ प्रयत्न किये जाने पर, सुख सुविधा के अनेक साधन उपलब्ध कर लिये गये हैं, पर यह दुर्भाग्य की ही बात है कि मानव को स्थायी सुख शान्ति प्राप्त हो सके इस दिशा में सर्वत्र उपेक्षा ही दृष्टिगोचर होती है।
आत्म-हनन का पातक—
आत्म प्रताड़ना सबसे बड़ा दण्ड है। जिस व्यक्ति की आत्मा भीतर-ही-भीतर उसके दुष्कर्मों एवं कुविचारों के लिए कचोटती रहती है, जिसे कुमार्ग पर चलने के कारण आत्मा धिक्कारती रहती है, वह अपनी दृष्टि में आप ही पतित होता है। पतित अन्तरात्मा वाला व्यक्ति उन शक्तियों को खो बैठता है जिनके आधार पर वास्तविक उत्थान का समारम्भ सम्भव होता है। हम ऊँचे उठ रहे हैं या नीचे गिर रहे हैं इसकी एक ही परीक्षा, कसौटी हैं कि अपनी आँखों में हमारा अपना मूल्य घट रहा हैं या बढ़ रहा है। आत्म सन्तोष जिसे नहीं रहता, जो अपनी वर्तमान गतिविधियों पर खिन्न एवं असंतुलित है उसे उन्नतिशील नहीं कहा जा सकता। जिसने अपनी आन्तरिक शान्ति गँवा दी, उसे बाहर शान्ति कहाँ मिलने वाली है? धन कमा लेने से, कोई ऊँचा पद प्राप्त कर लेने से, कई प्रकार के सुख साधन खरीदे जा सकते हैं, पर उनसे आत्मसन्तोष कहाँ मिल पाता है?
सन्मार्ग पर पदार्पण—
मनुष्य की महान विचार शक्ति का यदि थोड़ा सा ही भाग आत्मसन्तोष के साधन ढूंढ़ने, और आत्म शान्ति के मार्ग को खोजने में लगे तो उसे वह रास्ता बड़ी आसानी से मिल सकता है जिस पर चलना आरम्भ करते ही उसका हर कदम आत्मिक उल्लास का रसास्वादन कराने लगे। संसार की सम्पदा भी तो लोग सन्तोष प्राप्त करने के लिए ही कमाया करते हैं फिर उस क्षणिक एवं तुच्छ सन्तोष की अपेक्षा यदि चिरस्थायी आत्मशान्ति उपलब्ध करने का अवसर जिसे मिल रहा होगा वह उल्लास, उत्साह और प्रफुल्लता का अनुभव क्यों न करेगा?
स्नेह, सद्भाव और सौजन्य—
विचार शक्ति का एक दूसरा मोड़ इस दिशा में भी दिया जाना चाहिये कि मनुष्य-मनुष्य के बीच में स्नेह, सद्भाव और सौजन्य की मात्रा निरन्तर बढ़ती रहे। हम एकाकी जीवनयापन नहीं कर सकते, हमारी आवश्यकताएँ ऐसी हैं जिनके लिए विवश होकर दूसरों से सम्बन्ध बनाना पड़ता है। एकान्त गुफाओं में रहने वाले वैरागियों को भी आसन, कमंडल, ईंधन, दियासलाई, माला, कोपीन, कम्बल, पुस्तक एवं भोजन की आवश्यकता पड़ती है। और इसके लिये उन्हें दूसरों की सहायता अपेक्षित होती है। हर व्यक्ति समाज के साथ किसी-न-किसी रूप में जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे सामाजिक सद्भाव की आवश्यकता पड़ेगी ही। द्वेष, कलह, अपमान, प्रवञ्चना, अशिष्टता, उद्दण्डता के व्यवहार की आशा हम दूसरों से नहीं करते हैं। हर किसी की स्वाभाविक इच्छा यही रहती है कि उसके साथ दूसरे लोग प्रेम सौजन्य, आदर, ईमानदारी, सम्मान, सज्जनता एवं उदारता का व्यवहार करें। प्रेम की भूख मानव-प्राणी की सबसे बड़ी भूख है। इस संसार में सबसे मधुर, सबसे आकर्षक एवं आनन्ददायक एक ही वस्तु है और वह है—प्रेम। जिसे किसी का सच्चा प्रेम नहीं मिला वह अभागा इस संसार में मरघट के ब्रह्मराक्षस की तरह अशान्त, उद्विग्न, तृषित और असंतुष्ट भ्रमण करता रहेगा। जिसे सच्चे प्रेम का एक कण भी मिल जाता है वह अपने भाग्य को सराहता है। अभाव और दरिद्रता के रहते हुए भी जिसे प्रेम के कुछ कण उपलब्ध हो जाते हैं वह अपने आपको किसी बड़े अमीर से कम सुखी नहीं मानता। माता का, पत्नी का, भाई का, मित्र का, जनता का प्रेम जिसे प्राप्त है उसे जीवन की सबसे बड़ी विभूति मिल गई यही मानना पड़ेगा।
आत्मीयता की गहराई—
प्रेम के मूल में आत्मीयता रहती है। स्वार्थ, मोह, रूप, यौवन, वासना, उपयोगिता, प्रतिभा, आदि के बाह्य आकर्षणों से भी कई बार प्रेम जैसी लगने वाली घनिष्ठता उत्पन्न हुई दिखाई देने लगती है, पर उसकी जड़ नहीं होती, इसलिये वे बाह्य कारण समाप्त होते ही वह तथाकथित प्रेम भी बालू की भीति की तरह ढह जाता है। प्रेम में गहराई, स्थिरता एवं आत्मत्याग की स्थिति तभी रहेगी जब आत्मीयता की निष्ठा का समावेश हो। जो अपना है उसके साथ त्याग, सेवा, सौजन्य, स्नेह और उदारता के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार का व्यवहार नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार ईश्वर को घट-घट वासी सर्वव्यापी, निष्पक्ष और कर्मफल प्रदाता मानने वाला सच्चा आस्तिक मनुष्य कुविचारों और कुकर्मों से दूर ही रहेगा उसी प्रकार प्रेम की भावनाएँ जिसके मन में उमड़ेंगी वह दूसरों के साथ सौजन्य पूर्ण सद्व्यवहार ही करेगा, उदारता बरतेगा और स्वयं कष्ट में रहकर दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करता रहेगा। आस्तिकता और प्रेम की भावनाएँ