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Magazine - Year 1963 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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भावनाओं का जागरण आवश्यक है

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सुरक्षा के लिए प्रगति की नितान्त आवश्यकता है। यह प्रगति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होनी चाहिए। शरीर, मन, धन, संगठन, शस्त्र, शिक्षण, आचरण आदि सभी क्षेत्रों में हमें आज की अपेक्षा कल अधिक प्रगतिशील और सशक्त बनना होगा। हम आज जिस स्थिति में हैं—जिस स्तर पर हैं उसे देखते हुए शत्रुओं को हमारी दुर्बलता भाँपने का अवसर मिलता है और वे भेड़िये की तरह ललचाई आँखों से हमारी ओर देखते हैं। शक्ति का सर्वतोमुखी आह्वान करने के लिए हमें तत्पर होना पड़ेगा। काल-पुरुष ने जिस अग्नि-परीक्षा में हमें डाला है उसमें होकर ठीक तरह से पार होने के लिए हमें अपने को सुधारना, सम्भालना और बदलना पड़ेगा।

भावना की जागृति—

सबसे प्रथम और सबसे आवश्यक कार्य है- भावनाओं का जागरण। सदियों की गुलामी के वातावरण में रहते हुए हमने बहुत कुछ खोया। उनमें से एक वस्तु भावनाओं की तेजस्विता को भी खोया है। यों पिछले स्वाधीनता संग्राम में और आज के ऐसे प्रयत्नों में जनता ने जो योगदान दिया है, जिस त्यागा और बलिदान का परिचय मिला है वह प्रशंसनीय है और आशा जनक भी। पर उतने से ही सन्तुष्ट नहीं रहा जा सकता। भारत माता के प्रत्येक सपूत का अन्तःकरण उन उच्च भावनाओं से तरंगित होना चाहिये जो हमारे प्राचीन आदर्श और गौरव के अनुरूप हैं। देशभक्ति, मानवता और आदर्शवाद के लिए बहुत कुछ करने की उत्कट अभिलाषा जब तक जन मानस में जागृत न होगी तब तक सुरक्षा और प्राप्ति का लक्ष कछुए की चाल से ही अग्रगामी होगा, उतने मात्र से सामने उपस्थित ज्वलन्त समस्याओं का समाधान समय रहते न हो सकेगा।

प्रखरता और तेजस्विता चाहिये—

राष्ट्रीय सशक्तता के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है यदि हमारी भावना प्रखर हो उठे तो वे बात की बात में इकट्ठे हो सकते हैं। इस प्रखरता के अभाव में रो धो कर काम होगा तो सही पर उसमें तेजस्विता न रहेगी। आज सुरक्षा के लिए धन की आवश्यकता है। चालीस करोड़ देशवासी यदि प्रति सप्ताह एक समय का भोजन त्याग कर चार आने भी बचा लें और उस बचत को सुरक्षा कोष में जमा कर दें तो महीने की चार चवन्नियों का एक रुपया होता है। चवालीस करोड़ रुपया प्रतिमास सहज ही जमा हो सकता है। सप्ताह में एक टाइम का उपवास करना ना तो कुछ कठिन है और न हानिकारक। विदेशी से अनाज मंगाने में जो विपुल धन राशि खर्च करनी पड़ती है वह बच सकती है स्वास्थ्य समस्या सहज ही हल हो सकती है। स्वास्थ्य पर इस उपवास का अच्छा असर पड़ सकता है। उससे आध्यात्मिक लाभ भी होता ही है। भावना प्रखर हो तो इतना सा त्याग किसी को कुछ भी भारी नहीं पड़ेगा और हर महीने 44 करोड़ रुपया सहज ही प्राप्त होते रहेंगे। पर हम अखबारों पर नजर डालते हैं तो मन हर्ष और विषाद के झोंके खाने लगता है। हर्ष इस बात का कि असंख्यों निर्धनों और कठिनाइयों में रहने वाले लोगों ने भी अपना सर्वस्व देकर कितनी बड़ी देशभक्ति का परिचय दिया। विषाद इस बात का कि करीब 4 महीने लड़ाई चलते हो गये, कोष में 44 करोड़ रुपये भी अभी जमा नहीं हो पाये। हर व्यक्ति पीछे एक रुपया का औसत भी नहीं आया। इसका कारण लोगों की गरीबी नहीं भावना की कमी है। सोना कुछ खाने पीने की या किसी खास जरूरत को पूरा करने वाली चीज नहीं है। उसे लोग शृंगार के लिए ही पहनते हैं। ईर्ष्या, रखवाली, घिसट, टूट फूट, ब्याज न मिलना आदि कितने ही दोष भी उसके संग्रह में हैं। उसे यदि राष्ट्रीय सम्मान और सुरक्षा की आवश्यकता से अधिक महत्वपूर्ण हम न समझते तो अरबों रुपयों का सोना सरकार के पास होता और उसके बदले में मशीनें विदेश से मँगा ली गईं होती जो हथियार बनाने की आवश्यकता पूरा करतीं। लोगों की कंजूसी, संकीर्णता और स्वार्थपरता सोने को छिपाने में सहायक हो रही है और हमारे कर्णधार चिन्ताग्रस्त बैठे हैं। यदि हमारी देशभक्ति इस अवसर पर भामाशाह की भावनाओं की तरह उमड़ पड़ी होती तो आज दूसरे ही दृश्य सामने होते। हमें विदेशों की सहायता माँगनी नहीं पड़ती वरन् दूसरों को देने की स्थिति होती।

मरने से डरना क्या ?—

हर साल करोड़ों आदमी मौत बीमारी में सड़-सड़ कर मरते हैं। उनमें से लाखों नौजवान भी होते हैँ। मौत मनुष्य जीवन की एक बिलकुल स्वाभाविक स्थिति है और किसी के लिए भी, कभी भी आ सकती है। जिस तरह छींक कभी भी आ सकती है और उसे कोई रोक नहीं, इसी प्रकार मौत का भी क्या ठिकाना? कर्त्तव्य पालन करते हुए मौत मिलना मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी सफलता और सार्थकता मानी गई है। यदि यह भावना भारत के बच्चे-बच्चे में भर जाय तो युद्ध मोर्चे पर हम टिड्डी दलों की तरह पहुँचें और आन्तरिक सुरक्षा व्यवस्था के मोर्चे पर भी कोटि-कोटि नागरिक सेना उमड़ती हुई दृष्टिगोचर होने लगे। धर्मयुद्ध में जूझने वाले शिवाजी, प्रताप, लक्ष्मीबाई, भगतसिंह आदि का जयघोष करते समय जो उत्साह हमारे चेहरे पर आता है, यदि उसकी मात्रा थोड़ी और भर जाय तो हम स्वयं भी आज अनायास ही सामने आये हुए ठीक वैसे ही अवसर पर स्वयं को भी उन्हीं की पंक्ति में खड़ा कर सकते हैं। जरूरत केवल भावना की है। भावना नहीं तो मौत के डर से कायर और कातर की तरह अपनी ही बचत की बात सोची जायगी। ऐसे लोग स्वयं भी मरते हैं और साथ में राष्ट्र की सुरक्षा को भी ले डूबते हैं।

सुरक्षा प्रयत्नों में उतनी सहायक कोई साधन सामग्री नहीं हो सकती जितनी देशभक्ति और त्याग बलिदान की भावना। इस भावना का जागरण यदि परिपूर्ण मात्रा में हो सके तो 44 करोड़ लौह स्तम्भों का बना हमारा राष्ट्र-दुर्ग युग युगों तक अभेद्य ही रहेगा, कोई उसकी ओर आँख उठाकर भी न देख सकेगा। यदि हम अपना सर्वस्व मातृ-भूमि की बलिवेदी पर चढ़ाने के लिये उद्यत हों तो इतनी सम्पदा और साधन सामग्री आज हमारी अपनी ही इकट्ठी हो जायगी कि विदेशी सहायता की बात सोचना भी व्यर्थ प्रतीत होगा। भावना स्तर यदि प्रसुप्त पड़ा रहे, लोग देशभक्ति की बात एक फैशन या प्रदर्शन की तरह ही कहें और आचरण में स्वार्थ परता एवं कंजूसी को ही गले लगाते रहें तो हम कमजोर ही रहेंगे, वह कमजोरी प्रगति और सुरक्षा के दोनों मोर्चों को कमजोर बनाये रहेगी।

जन सहयोग की आवश्यकता—

प्रगति के मोर्चे पर अगणित रचनात्मक काम किये जाते हैं। वह सब सरकार नहीं कर सकती। सरकार करेगी तो टैक्स ही वसूल करके करेगी, उसमें जनता की विवशता रहेगी देशभक्ति नहीं। ऐसे रचनात्मक कार्य होते तो हैं और उन पर सरकारी कर्मचारी और सरकारी साधनों से प्रगति के लिये बहुत कुछ किया जा रहा है, पर उसमें वह सजीवता दृष्टिगोचर नहीं होती जो त्याग और बलिदान की भावना में ओतप्रोत उत्साह के वातावरण में जनता या जन सेवकों द्वारा कुछ किये जाने पर दीखती है। श्रमदान विनिर्मित छोटे-छोटे बाँध, रास्ते, पुल और स्कूल अपने में एक गौरव, गर्व, आदर्श और प्रेरणा का प्रकाश भरे रहते हैं। उन्हें देखते ही उत्साह और आशा की लहर दौड़ती है। दूसरों में वैसा ही अनुकरण करने की इच्छा जगती है। सच्ची प्रगति ऐसे ही उत्साहपूर्वक, भावनामय वातावरण में प्रस्तुत किये गये कार्यों पर निर्भर रहती है। सरकार द्वारा किये गये प्रयत्नों से काम तो चल जाता है पर त्याग और वातावरण का पुट रहने वाले कार्यों की बात ही कुछ दूसरी होती है।

वह चीन जो कल तक अफीम की पिनक में पड़ा हुआ संसार की गई गुजरी स्थिति के देशों में गिना जाता था आज भारत जैसे महान देश पर आक्रमण करने की शक्ति इकट्ठी कर सकता है। उसकी इस सफलता का श्रेय जन भावनाओं के जागरण में ही सम्मिलित है। चीन ने अपनी नदी बाढ़ समस्या को जिस अच्छे ढंग से सुलझाया उसका अध्ययन करने के लिए भारत सरकार ने सन् 1954 में एक शिष्ट मण्डल वहाँ भेजा था। उस शिष्ट मण्डल ने लौट कर जो रिपोर्ट दी उसमें कहा गया था कि “चीन ने नदियों की बाढ़ का प्रश्न हल करने के लिए बड़ी-बड़ी नहरें बनाई हैं। उसकी उत्तरी सिक्याँग की नहर सबसे बड़ी और लम्बी है जो 40 लाख एकड़ जमीन खींचती है और जहाज रानी का काम भी देती है। इसका निर्माण कार्य उच्च कोटि का हुआ है। उसके तल की चौड़ाई 420 फुट और लम्बाई 100 मील है। इसके बनाने में 247 करोड़ घन फुट मिट्टी खोदी गई। यह पूरी नहर केवल 80 दिन में बन कर तैयार हो गई। इस नहर को खोदने का सम्पूर्ण कार्य बिना मशीनों की सहायता के केवल जन शक्ति द्वारा ही सम्पन्न हुआ। याँग्सी नदी पर बना विशाल बाँध 75 दिन में और हुवाई नदी का बाँध 150 दिन में बना जब कि इसके लिए बालू पत्थर आदि 45 से 150 मील तक से लाना पड़ा।”

जो कार्य बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाने, बहुत समय और धन लगाने पर भी ठीक तरह नहीं हो सकते वे भावनाएँ जागृत होने पर जन शक्ति के सहयोग से सहज ही पूरे हो सकते हैं। भावनाओं का जागरण ही राष्ट्र का वास्तविक जागरण है। जब तक जनमानस में कर्तव्य बुद्धि और सामूहिकता के प्रति निष्ठा न होगी तब तक अन्य प्रयत्न उतने उपयोगी सिद्ध नहीं हो सकते।

जन भावनाओं के अभाव में हम प्रदर्शनात्मक और प्रचारात्मक तो बहुत कुछ कर सकते हैं पर

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