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Magazine - Year 1963 - Version 2

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First 14 16 Last
कामे दुग्धे विप्रकर्षत्यलक्ष्मीं,

कीर्ति सूते दुष्कृतं या हिनस्ति।

ताँचाप्येताँ मातरं मंगलानाँ,

धेनुः धीराः सूनृता वाच माहु॥

सब मंगलों की जननी सत्य मिश्रित मधुर वाणी को ही कामधेनु कहते हैं। वह मनुष्य की सब कामना पूरी करती है, दरिद्रता दूर करती है, यशस्वी बनाती है और पाप नष्ट करती है।

असंतुलित न हों—

सम्पत्ति और विपत्ति में मानसिक संतुलन को बनाये रहना, धीर पुरुषों का काम है। कायर ही हड़बड़ी मचाते हैं। हमें कायर नहीं, धीर वीर बनना चाहिए। जीवन में आती रहने वाले रंग-बिरंगी, कड़ुई मीठी, धूप छाँह को संतुलित मन से देखना चाहिए और उनकी ओर विशेष ध्यान न देकर अपने कर्तव्य पथ पर धैर्यपूर्वक अनासक्त रहते हुए जीवन की ओर साहस पूर्वक चलते रहना चाहिए।

धर्म पुराणों की कथा-गाथाएँ

नेक सलाह

महाभारत का युद्ध आरम्भ हो गया। दुर्योधन अपनी माता गान्धारी से आशीर्वाद लेने पहुँचा। गान्धारी ने कहा—पुत्र होने के नाते सहज स्नेह तो तुम्हारे लिए है पर आशीर्वाद तो उन्हीं के लिए है जिनके साथ सत्य और धर्म है।

आँखों पर पट्टी बाँध कर अपने अन्धे पति की स्थिति में आजीवन बनी रहने वाली गान्धारी के तप बल का मूल्य दुर्योधन समझता था। उसे आशा थी कि माता का आशीर्वाद मिलने पर मेरी विजय सुनिश्चित हो जायगी पर जब उसे गान्धारी का ऐसा उत्तर मिला तो वह उदास हो गया।

दूसरी बार दुर्योधन ने फिर पूछा—माता, आप आशीर्वाद नहीं दे सकतीं तो मुझे ऐसा उपाय ही बता दीजिए जिससे मेरी जीत हो जाय। गान्धारी ने कहा—बेटा, तुम धर्मराज युधिष्ठिर के पास जाओ और उनसे वह युक्ति पूछो। धर्मात्मा लोग सलाह माँगने वाले शत्रु को भी उसके लाभ की ही सम्मति देते हैं। अपने स्वार्थ के लिए तुम्हारा अहित करने वाली सलाह युधिष्ठिर कदापि न देंगे। तुम निस्संकोच उनके पास चले जाओ। सज्जन किसी के भी शत्रु नहीं होते। वस्तुतः वे हर किसी के लिए मित्र के समान ही उपयोगी होते हैं।

माता की बात मान कर दुर्योधन युधिष्ठिर के पास पहुँचा और अपनी विजय का उपाय पूछने लगा।

भ्राता दुर्योधन का उचित सम्मान करने के साथ युधिष्ठिर ने सलाह दी कि वह गान्धारी के सामने नग्न शरीर होकर उपस्थित हो, और उन्हें एक बार सारे शरीर पर दृष्टिपात करने के लिए मना ले। पति-भक्ति की भावना में आजीवन नेत्रों से पट्टी बाँधे रहने के कारण गान्धारी की दृष्टि में अब वह शक्ति आ गई है कि वह जिसे भी एक बार देख ले वह वज्र के समान सुदृढ़ हो जायगा और फिर कोई उसका कुछ बिगाड़ न सकेगा।

यह युक्ति दुर्योधन को बहुत पसंद आई और वह प्रसन्न मन घर लौट आया। माता को उसने इसके लिए मना लिया। दुर्योधन नग्न-बदन उपस्थित हुआ। गान्धारी ने आँखों से पट्टी खोली दुर्योधन का सारा शरीर देखा । देखते-देखते वह सचमुच वज्र जैसा सुदृढ़ हो गया।

दैव दुर्विपाक की प्रबलता ही कहिये कि दुर्योधन लज्जावश कटि वस्त्र पहन कर आया। उसका वह भाग गान्धारी की दृष्टि से छिपा रहा और दुर्बल रह गया। युद्ध में भीम ने उसी मर्म स्थल पर प्रहार करके दुर्योधन को परास्त किया ।

महाभारत समाप्त हुए हजारों वर्ष बीत गये परन्तु यह सनातन तथ्य अभी तक ज्यों का त्यों बना हुआ है कि श्रेष्ठ आत्माएं अपने पराये का भेद न कर के सत्य के प्रति ही गान्धारी की तरह शुभ कामना रखती हैं; और युधिष्ठिर की तरह शत्रु को भी केवल नेक सलाह ही देती हैं।

तप की सामर्थ्य

देवता और असुरों का युद्ध बहुत दिन चलता रहा। असुर तगड़े पड़े। देवता अपनी सज्जनता वश उतनी धूर्तता बरत न पाते थे जितने निश्शंक होकर असुर छल करते थे। वृत्रासुर के नेतृत्व में असुरों की विजय दुँदुभी बजने लगी।

निराश देवता ब्रह्माजी के पास पहुँचे और पूछा-भगवन्! विजय के लिए हम किस अस्त्र का प्रयोग करें?

ब्रह्माजी ने कहा—धातुओं से बने अस्त्र उतने प्रभावशाली नहीं हो सकते जितने तप और त्याग से बने आयुध प्रभावशाली होते हैं। तपस्वी की हड्डियों से ही वज्र बनाया जा सकता है। यदि तुम लोग तप त्याग विनिर्मित वज्र बना सको तो जीत तुम्हारी ही होगी। जाओ इसके लिए प्रयत्न करो।

देवता तपस्वी को तलाश करने लगे और उसकी हड्डियाँ प्राप्त करने का उपाय सोचने लगे। अभीष्ट वस्तु की तलाश में उन्होंने गिरि, कानन और कन्दराओं को तलाश करना आरंभ कर दिया।

महर्षि दधीचि अपनी दिव्य दृष्टि से इस कौतुक को देख रहे थे। उन्होंने देवताओं को पास बुलाया और प्रेमपूर्वक अपनी हड्डियाँ देने के लिए शरीर का परित्याग कर दिया।

तपस्वी दधीचि की अस्थियों से वज्र बना। वृत्रासुर मारा गया और उसकी सेना परास्त हुई। तब से देवताओं का सर्वश्रेष्ठ आयुध इन्द्र का वज्र का माना जाने लगा।

विजयोल्लास मनाने के लिए एकत्रित हुई देव सभा में गुरु बृहस्पति ने कहा-देवताओं, विजय का स्थायित्व शक्ति पर निर्भर है और शक्ति आयुधों से नहीं तप त्याग से भरी रहती है। यदि तुम सदैव अपराजित रहना चाहते हो तो तप और त्याग की शक्ति एकत्रित करो। इसमें प्रमाद करोगे तो फिर कभी कोई वृत्रासुर तुम्हें परास्त करने आ खड़ा होगा। दधीचि की माँगी हुई हड्डियों से कब तक काम चलेगा। तुम में हर एक को वज्र बनने के लिए दधीचि जैसा आत्म-बल एकत्रित करना चाहिए।

देवताओं ने वस्तुस्थिति को समझा और सुर गुरु के आदेशानुसार आत्मनिर्माण का प्रयत्न आरम्भ कर दिया।

मर्यादा का पालन-

शुक्राचार्य के पास जाकर कच संजीवनी विद्या का अध्ययन करने लगा। आचार्य ने छात्र को पुत्रवत् पाला और सांगोपांग ज्ञान देने में कोई कमी न रखी।

आचार्य की कन्या देवयायी कच के साथ ही पढ़ती थी। बहुत दिन साथ-साथ रहते-रहते स्नेह सौजन्य भी दोनों में बहुत बढ़ गया था।

अध्ययन पूरा करके कच जब चलने लगा तो देवयानी ने उसकी जीवन सहचरी बनने की अभ्यर्थना की। कच इस प्रस्ताव को सुनकर अवाक् रह गया। वह देवयान से भरपूर प्रेम करता था, पर प्रेम का अर्थ दाम्पत्य सम्बन्ध में ही परिणत होना चाहिए यह बात उसको समझ में कभी भी न आई थी। गुरु कन्या सगी बहिन की तरह होती है उसने सदा यही जाना और माना था। इस मान्यता को बदलने का कोई कारण भी उसे प्रतीत नहीं होता था।

कच ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। देवयानी की आकाँक्षाओं पर तुषारपात हुआ तो वह तिलमिला गई। उसने शप दिया कि मेरे पिता से जो कुछ तुमने पढ़ा है सो निष्फल हो जायगा।

इतने दिन के श्रम और अध्ययन के निष्फल चले जाने पर भी कच विचलित न हुआ वरन् उसके अधरों पर सन्तोष की एक लहर दौड़ गई। छात्र ने गुरु और गुरु कन्या का साष्टाँग अभिवन्दन करते हुए कहा- आदर्शों और मर्यादा की रक्षा आवश्यक है। इसके लिए किसी व्यक्ति का अहित होता है तो उसमें चिन्ता की कोई बात नहीं। मेरा अध्ययन निष्फल जाना और देवयानी का इच्छित पति न मिलना निश्चय ही कष्टकारक है। इस दुखान्त प्रकरण में हममें से कोई प्रसन्न नहीं। पर मनुष्य की प्रसन्नता तुच्छ है। आदर्शों की रक्षा के लिए आकाँक्षाओं का बलिदान होता हो तो उसे सुखान्त प्रक्रिया की तरह सहन ही किया जाना चाहिए।

शुक्राचार्य की आँखें भर आई। कच भी भारी हृदय लेकर वापिस लौटा। देवयानी का तो हृदय ही टूटा जा रहा था। तीनों अपना पराभव अनुभव कर रहे थे। पर मर्यादा को जीतती देखकर तीनों की अन्तरात्मा एक हलका-सा संतोष अनुभव कर रही थी।

ऐश्वर्य का मद

नहुष को पुण्य फल के बदले में इन्द्रासन प्राप्त हुआ। वे स्वर्गलोक में राज्य करने लगे।

ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हें न आवे ऐसे कोई विरले ही होते हैं। नहुष सत्ता मद से प्रभावित हुये बिना अछूते न रह सके।

उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी। वे उसे अपने अन्तःपुर में लाने की विचारणा करने लगे। प्रस्ताव उनने इन्द्राणी के पास भेज ही तो दिया।

इन्द्राणी बहुत दुखी हुई। राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उसने अपने में न पाया तो एक दूसरी चतुरता बरती। नहुष के पास उनने सन्देश भिजवाया कि वह ऋषियों को पालकी में जोते और उस पर चढ़कर मेरे पास आवे तो प्रस्ताव स्वीकार कर लूँगी।

आतुर नहुष ने अविलम्ब वैसी व्यवस्था की। ऋषि पकड़ बुलाये गये। उन्हें पालकी में जोता गया। उस पर चढ़ा हुआ राजा जल्दी-जल्दी चलने की प्रेरणा करने लगा।

दुर्बलकाय ऋषि दूर तक इतना भार लेकर तेज चलने में समर्थ न हो सके। अपमान और उत्पीड़न से वे क्षुब्ध हो उठे। एक ने कुपित होकर शाप दे ही तो डाला—”दुष्ट! तू स्वर्ग से पतित होकर पुनः धरती पर जा गिर”। शाप सार्थक हुआ। नहुष स्वर्ग से पतित होकर मर्त्यलोक में दीन-हीन की नाईं विचरण करने लगे।

इन्द्र पुनः स्वर्ग के इन्द्रासन पर बैठे। उन्होंने नहुष के पतन की सारी कथा ध्यानपूर्वक सुनी और इन्द्राणी से पूछा—भद्रे, तुमने ऋषियों को पालकी में जोतने का प्रस्ताव किस आशय से किया था?

शची मुस्कराने लगीं। वे बोली-नाथ, आप जानते नहीं, सत्पुरुषों का तिरस्कार करने उन्हें सताने से बढ़कर सर्वनाश का कोई दूसरा कार्य नहीं। नहुष के अपनी दुष्टता समेत शीघ्र ही नष्ट करने वाला सबसे बड़ा उपाय मुझे यही सूझा। वह सफल भी तो हुआ।

देव सभा में सभी ने शची से सहमति प्रकट कर दी। सज्जनों को सताकर कोई भी नष्ट हो सकता है। बेचारा नहुष भी उसका अपवाद कैसे रहता!

साथी के प्रति कर्तव्य

धर्मराज युधिष्ठिर के स्वर्गारोहण का समय आया। स्वर्गलोक का विमान उन्हें सशरीर परमधाम ले जाने के लिये आ पहुँचा।

हिमालय के उच्च शिखर पर युधिष्ठिर अकेले ही न थे उनका साथी कुत्ता भी था। धर्मराज ने देवगणों से कहा—स्वर्ग ही चलना होगा तो हम दोनों ही चलेंगे, नहीं तो यह धरती ही हमारे लिये क्या बुरी है?

देव सभा में प्रश्न की गम्भीरता पर विचार हुआ। स्वर्ग में तो केवल मनुष्यों को ही प्रवेश मिलता है पशुओं को वहाँ कैसे लाया जाय?

देव गुरु ने कहा मित्र का साथ निबाहने के लिए स्वर्ग तक का त्याग करने वाले महापुरुष का साथी भी उन भावनाओं वाला ही होगा। कुत्ता है तो क्या पर है तो युधिष्ठिर का साथी ही। उसे स्वर्ग बुलाने में संकोच न किया जाय।

कुत्ता समेत युधिष्ठिर स्वर्ग पहुँचे। साथी का साथ अन्त तक निबाहने का उनका आदर्श स्वर्गवासियों के लिए भी चर्चा का विषय बना रहा।

मौन की महत्ता

महाभारत का अन्तिम श्लोक पूर्ण हुआ। गणेश जी की अनवरत चलती रहने वाली लेखनी को विश्राम मिला।

महर्षि व्यास ने हँसते हुए गणेश जी से पूछा—भगवन्! मैं इतने श्लोक बोलता रहा। अनेक प्रसंग तथा अनेक व्यवधान बीच में आये पर आप मौन ही रहे। इसका क्या रहस्य है?

गणेश जी हँस पड़े, उनने कहा—व्यासजी, जानते नहीं शक्ति का स्रोत संयम ही तो है। मैंने मौन रह कर ही तो इतना बड़ा महाभारत लिख सकने का कार्य किया है। मौन की महत्ता किससे छिपी है। वाणी का संयम सबसे बड़ा संयम माना जाता है। जो मौन रहता है, कम बोलता है वही तो कुछ कर गुजरता है।

प्रसंग समाप्त होने ही वाला था कि अधूरी बात को पूरी करते हुए नन्दी ने कहा—सभी दीपों में तेल होता है किसी में कम किसी में ज्यादा। अक्षय तेल किसी में नहीं। प्राणियों में शक्ति तो रहती है पर वह विपुल नहीं, अक्षय नहीं। संयम द्वारा जो उसे नष्ट होने से बचा लेते हैं वे ही तो सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं।

व्यास और गणेश दोनों ही इस तथ्य पर सहमत थे। महाभारत की रचना दोनों के सहयोग से इसी आधार पर हो सकी थी।

बड़ा धन क्यों न लूं?

महर्षि याज्ञवलक्य ने संन्यास लेने की आकाँक्षा से अपनी गृह व्यवस्था का उचित प्रबंध कर देने की योजना बनाई।

उन्होंने ने अपनी दोनों धर्म पत्नियों को बुलाया और कहा—मेरे पास जो कुछ धन सम्पत्ति है उसे तुम दोनों आपस में बाँट लो और मुझे परिव्रज्या के लिए जाने दो।

कात्यायनी ने पूछा-भगवन्! आप गृह सुख छोड़ कर संन्यास क्यों ले रहे हैं? याज्ञवलक्य ने उत्तर दिया—भद्रे! गृहस्थ में शरीर सुख है पर संन्यासी होकर जो परमार्थ बन पड़ता है उसका आत्मिक सुख और भी अधिक आनन्ददायक है। इसलिए मैं बड़े सुख के लिए छोटे सुख का त्याग मात्र कर रहा हूँ। इसमें मेरी हानि नहीं लाभ ही है।

“तो फिर मैं ही बड़ा सुख छोड़कर छोटा सुख क्यों स्वीकार करूं? मैं भी आपके साथ परमार्थ साधन के लिये क्यों न चलूँ?” बड़ी पत्नी ने ऐसा ही सोचा और ऐसा ही किया। ऋषि की छोटी पत्नी मैत्रेयी को उत्तराधिकारी की पूरी धन सम्पत्ति देकर कात्यायनी महर्षि याज्ञवलक्य के साथ संन्यास लेकर आत्म कल्याण के लिए चल दी।

मैत्रेयी ने कहा—भगवन्! मैं भी कात्यायनी का अनुसरण कर आपके साथ ही क्यों न चलूँ? महर्षि ने कहा—भद्रे! ज्ञान की परिपक्वता बिना संन्यास व्यर्थ है। तुम अभी गृहस्थ में रह कर उस स्थिति के उपयुक्त अपने को बनाओ। समयानुसार ही हर कार्य ठीक होता है। जिस प्रकार एक स्थिति पर पहुँचे हुए लोगों के लिए संन्यास आवश्यक है उसी प्रकार एक स्थिति के लोगों के लिए गृहस्थ भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

याज्ञवलक्य का आदेश मैत्रेयी को स्वीकार करना ही उचित था, वैसा ही उसने किया भी।

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