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Magazine - Year 1967 - Version 2

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संसार का नवीन धर्म-अध्यात्म

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First 9 11 Last
इस शीर्षक को पढ़ कर शायद अनेक पाठकों को कुछ कौतुहल हो कि हमने ‘अध्यात्म’ को संसार का नवीन धर्म क्यों कहा? कारण यह कि अध्यात्म ही दुनिया की प्रगति का आधार है। इसी के आधार पर मनुष्य पशु श्रेणी से निकल कर मानव-श्रेणी में आया है और देव श्रेणी में पहुँचने का प्रयास करता रहता है।

निस्सन्देह अध्यात्म ही सच्चा और अनादि धर्म है। भौतिक धर्म सदैव अस्थायी, परिवर्तनशील और दृढ़ आधार बन सकने के अयोग्य होता है जबकि अध्यात्म मनुष्य को स्थायी सफलता और शाश्वत सुख प्रदान करने की सामर्थ्य रखता है। पर इधर बहुत समय से मनुष्य अध्यात्म को भूल कर भौतिकता के पीछे दौड़ने में प्रवृत्त हो रहे हैं, जिससे होते-होते आजकल प्रायः सभी सुशिक्षित और बुद्धिमान कहे जाने वाले व्यक्ति अध्यात्म को एक असंभव या काल्पनिक आदर्श समझने लगे हैं और भौतिकवाद को लाभ का एकमात्र द्वार मान कर उसी तरफ निरन्तर बढ़ते जाते हैं। फिर नये सिरे से उसकी शिक्षा देने, उसकी आवश्यकता समझाने का प्रयत्न करना पड़ता है। इस समय लोगों को यह बतलाने की आवश्यकता है कि यह प्रत्यक्ष फल की दुनिया ही एकमात्र दुनिया नहीं है। इसके अतिरिक्त एक अध्यात्म की दुनिया भी है, जिसमें फल का बीज अथवा कारण रहता है। इस अध्यात्म-जगत की विशेषताओं का विवेचन करते हुये एक विद्वान ने कहा है-

“बड़े-बड़े परिवर्तन जो व्यक्तियों और देशों के जीवन पर प्रभाव डालते हैं इस अदृश्य आध्यात्मिक जगत में ही जन्म लेते हैं। ये दैवी बुद्धि से उत्पन्न होते हैं और बाद में इस पृथ्वी तक पहुँच जाते हैं। इस समय समग्र कारण-जगत तेजी से गतिशील हो रहा है और उसी की प्रतिक्रिया पृथ्वी के पदार्थों पर भी दिखलाई पड़ रही है। इसका प्रभाव मनुष्यों के हृदय, मस्तिष्क, विचार और कार्यों पर भी पड़ रहा है।”

“जब साधारण बातचीत में हम कहते हैं-’अमुक व्यक्ति गलती कर रहा है’ तो इसका वास्तविक आशय यह नहीं समझना चाहिये कि मनुष्य दैवी-विधान के विरुद्ध चलने की सामर्थ्य रखता है। उसमें ऐसी शक्ति नहीं है। इसका अर्थ यही समझना चाहिये कि मनुष्य में अहंभाव उत्पन्न किया गया है और उसे कार्य करने की थोड़ी-सी स्वाधीनता दी गई है। इससे वह कुछ हद तक इच्छानुसार कार्य कर सकता है और बाद में अपनी गलती का सुधार हो जाने पर वापस लौट आता है। वास्तव में गलती करना और उसका सुधार होना दोनों दैवी विधान के अंग हैं।”

इस दृष्टि से जब वर्तमान समय में लड़े जाने वाले युद्धों और आगामी विश्वयुद्ध पर विचार करते हैं तो हमको यही निर्णय करना पड़ता है कि यह कार्य गलत होते हुये भी ठीक है। सामान्य दृष्टि से युद्ध एक बुरा कार्य है क्योंकि उसके फलस्वरूप धन-जन का घोर नाश होता है और जनता को असहनीय कष्ट उठाने पड़ते हैं। पर दूसरी दृष्टि से यह ठीक भी है क्योंकि इसी के द्वारा पुराना युग खत्म होकर नया युग जल्दी पास आता है। युद्ध मनुष्य के अहंकार को दबा कर उसे ईश्वर के सामने आत्म-समर्पण की प्रेरणा देता है और विकास के आगामी दर्जे के लिये नवीन अनुभव भी प्रदान करता है।

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अध्यात्म का अर्थ घरबार त्याग कर, लँगोटी लगा कर जंगल या गुफाओं में रहना और कन्द मूल आदि खाकर जीवन निर्वाह करना मानते हैं। ऐसे भी अन्य लोग मौजूद हैं जो दाढ़ी और जटा बढ़ा लेने, शरीर पर भस्म पोत लेने अथवा गर्मियों में धूनी तपने, जाड़ों में नदी के जल में दो-बार घण्टा खड़े रह कर जप करने आदि काया-कष्ट को अध्यात्म समझे बैठे हैं। पर हम बतलाना चाहते हैं कि ये सब भ्रमयुक्त विचार हैं इस संबंध में एक विचारक ने कुछ समय पहले एक लेख में कहा था-

“हमारा विश्वास है कि निकट भविष्य में जिस नये युग का आविर्भाव हो रहा है-उसमें सबसे मुख्य परिवर्तन मनुष्यों की चित्तवृत्तियों में होगा और वे सच्चे अर्थ में धार्मिक बनने की चेष्टा करेंगे। यह कोई जरूरी बात नहीं कि इसके लिये जंगल में जाकर ही तपस्या की जाय या कुर्ता, धोती, कोट, पाजामा आदि छोड़ कर कोपीन धारण की जाय, छाल तथा पत्तों के वस्त्र धारण किये जायें। ये सब तो ऊपरी बातें हैं जो देशकाल के अनुसार अपने आप बदलती रहती हैं। कोई जमाना था जब देश का अधिकाँश भाग जंगल था और कातने-बुनने की कला का प्रचार बहुत कम हुआ था, तब लोग मरे हुये या मारे गये हिरन, शेर आदि की खाल से ओढ़ने, बिछाने, पहनने का काम निकाल लेते थे, पर इससे वे सभी आध्यात्मिक बन जाते थे यह कोई नहीं मान सकता। अब भी तिब्बत आदि में ऐसे मनुष्य पाये जाते हैं जो ठण्ड के कारण गुफाओं में रहते हैं, दाढ़ी, जटा आदि बढ़ाये रहते हैं और देखने वाले को वनवासी साधू या ऋषि की तरह ही जान पड़ते हैं, पर जो वास्तव में डाकू का पेशा करते हैं या मनुष्यों को मार कर खा जाने वाले नर-राक्षस हैं। यही हाल अफ्रीका के कई हब्शी फिर्के वालों का है, जो पत्तों की लंगोटी लगाकर पूर्णतः प्राकृतिक जीवन बिताते हैं, पर जिनको मनुष्य का माँस मिल जाय तो उसे सबसे अच्छा भोजन मान कर बड़े आग्रह के साथ खाते हैं।”

अध्यात्म का अर्थ है-संसार में एक ही आत्म-तत्व व्याप्त होने की अनुभूति और तदनुसार प्रत्येक मनुष्य को-प्राणी को अपने ही समान समझना, उसके सुख-दुःख का भी अपने सुख-दुःख की तरह ख्याल रखना। भविष्य के मनुष्य इसी धर्म के मानने वाले होंगे। चाहे वे घन्टों तक मन्दिर में बैठ कर मूर्तियों की पूजा आरती न करें और मजहब के नाम पर दूसरे सम्प्रदायों की निन्दा करने, मरने-मारने को उद्यत न हों, पर वे सबको अपने समान एक ही विराट आत्मा का अंश मान कर सबके साथ प्रेम, सहानुभूति, उदारता का व्यवहार करेंगे। आजकल अलग-अलग मजहब वाले ईश्वर और धर्म के नाम पर जो झगड़े करते रहते हैं और अन्य धर्म वालों की हत्या करने को भी पुण्य कार्य समझते हैं, वैसी मूढ़ता भविष्य में दिखाई न देगी। वरन् उस समय ईश्वरोपासना का सबसे श्रेष्ठ रूप यही होगा कि अन्य सभी मनुष्यों की सहायता और सेवा की जाय और घृणा तथा कलह का नाम-निशान भी न रहे।

उस समय राजनीति का स्वरूप भी बदल जायगा और लोग राष्ट्रीयता तथा जातीयता के नाम पर एक-दूसरे का नाश करने के बजाय समस्त संसार में एक सम्मिलित शासन स्थापित करके मनुष्य मात्र को सुखी बनाने की कोशिश करेंगे। आज जो अरबों खरबों रुपया युद्ध की तैयारी और घातक अस्त्र-शस्त्र बनाने में खर्च हो जाता है उसका उपयोग जरूरतमंदों को भोजन, वस्त्र, घर तथा अन्य आवश्यक वस्तुएँ पहुँचाने में किया जायगा। इससे सबको लाभ होगा और दुष्टता, दुर्जनता के भाव मिट कर सज्जनता का व्यवहार किया जाने लगेगा।

यद्यपि आज भी राष्ट्र-संघ (यूनाइटेड नेशन्स) कायम है और वह युद्धों को रोकने का भी कुछ प्रयत्न कर रहा है पर लोगों के मनों में मैल होने से उसे बहुत ही कम सफलता मिल पाती है। राष्ट्र-संघ के भीतर भी गुटबन्दी मौजूद है और वहाँ अपने-अपने हित के पक्ष का समर्थन और दूसरों का विरोध किया जाता है, इस बात का ख्याल कोई नहीं करता कि सच्चाई किस तरफ है। आज संसार के सब राष्ट्र युद्ध की तैयारी में संलग्न हैं और अपनी शक्ति को बढ़ाने के लिये भले-बुरे सब प्रकार के उपायों का सहारा ले रहे हैं। इस समय ध्यान देकर देखा जाय तो भौतिकता और स्वार्थपरता चरम सीमा पर पहुँच रही है। लोग इसे घोर कलियुग बतलाते हैं पर हम मानते हैं कि यह अध्यात्म-युग अथवा धर्म-युग तक पहुँचने की एक सीढ़ी है। मनुष्य बहुत-सी बाधाओं और विघ्नों को पार कर चुका है, अब यह राष्ट्रीयता अथवा जातीयता की कृत्रिम बाधा और शेष रह गई है, जिसके पार होते ही मानवता का सूर्योदय होगा और सब मनुष्य प्रथम बार सच्ची सुख और शाँति का अनुभव करने लगेंगे।

जो लोग कहते हैं कि शाँति-स्थापना के लिए संसार में से युद्ध को मिटाया जाय, निशस्त्रीकरण किया जाय, वे इस समस्या का पूर्ण समाधान नहीं कर सकते। केवल युद्ध का विरोध करने या उसे रोकने की चेष्टा करने से काम नहीं चल सकता वरन् हमें उन मूल कारणों को ही दूर करना चाहिये जिनके सबब से पारस्परिक कलह और द्वेष की उत्पत्ति होती है। आज स्थिति यह है कि जब अस्त्र-शस्त्रों द्वारा युद्ध और मारकाट नहीं भी होती तब भी ‘शीत-युद्ध’ चलता रहता है, अर्थात् विभिन्न राष्ट्र अपने प्रतिद्वन्द्वियों को डराने-धमकाने के लिए अपनी शक्ति का अप्रत्यक्ष रूप से प्रदर्शन करते रहते हैं जिससे अशाँति का वातावरण पैदा होता है और वही बढ़ते-बढ़ते अन्त में युद्ध के रूप में फूट पड़ता है। इतना ही नहीं पाकिस्तान और चीन जैसे उच्छृंखल देश तो शाँति के समय में भी छुपे तोर पर सशस्त्र घुसपैठ करते रहते हैं जिसमें दस-बीस व्यक्तियों का मरना मामूली बात होती है, पर उसे युद्ध का कार्य नहीं समझा जाता और विरोध-पत्र भेज कर ही मामला खत्म कर दिया जाता है। इसलिए अगर संसार को वास्तव में युद्ध की विभीषिका से मुक्त कराना है तो उसका उपाय यही है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जो द्वेष और कलह की भावनायें फैली हुई हैं उनको मिटाया जाय।

इस प्रकार की भावनायें प्रायः अहंमन्यता और स्वार्थपरता की अधिकता से वृद्धि को प्राप्त होती हैं। जब तक मनुष्य भौतिकता की दृष्टि से काम करता है और अपने स्वार्थ को दूसरों के स्वार्थ से भिन्न अथवा विरोधी समझता है तब तक उसमें शत्रुता के भाव बढ़ते जाते हैं और दूसरों को हानि पहुँचा कर अपना मतलब पूरा करने को वह एक प्रशंसनीय काम मानता रहता है। जिस समाज, देश या राष्ट्र में ऐसी भावना वाले व्यक्तियों की अधिकता होती है वहाँ मारकाट और अशाँति का भी दौर-दौरा रहता है। पर जब मनुष्य अपने भीतर रहने वाली चैतन्य सत्ता को समझ जाता है और यह भी अनुभव करने लगता है कि सभी मनुष्यों में वही एक सत्ता काम कर रही है तो उसकी भेद-भाव की दृष्टि मिटने लगती है और वह अध्यात्म पथ का पथिक बन कर सहयोग और मेल-जोल का जीवन व्यतीत करने लगता है। इस दृष्टि से आध्यात्मिकता का प्रचार संसार में से युद्ध को मिटा कर शाँति स्थापन का प्रधान साधन है।

जो लोग दुनिया में फैली हुई अशाँति का कारण रोटी का प्रश्न बतलाते हैं, वे भी किसी हद तक भ्रम में पड़े हैं। केवल ‘रोटी’ को मनुष्य का लक्ष्य समझना उसे ‘पश-श्रेणी’ में रखना है। पशु का जीवन उद्देश्य केवल आहार प्राप्त करना होता है। वह इससे ऊँची किसी बात को समझता ही नहीं। पर मनुष्य की विशेषता उसका ज्ञान और विवेक है। इसी के द्वारा वह अनेक मार्गों में से सर्वश्रेष्ठ मार्ग को चुन सकता है। जीवन धारण के लिए रोटी अनिवार्य तो है, पर जीवन में अनेक वस्तुएँ उससे भी बड़ी हैं। उदाहरण के लिये उच्च मनोवृत्ति के व्यक्ति स्वाभिमान तथा धर्मरक्षा के लिए अवसर पड़ने पर ‘रोटी’ के प्रश्न की उपेक्षा कर देते हैं और अनेक बार उनको इस कार्य में अपने प्राण भी गँवा देने पड़ते हैं।

हम मानते हैं कि उपर्युक्त उदाहरण किसी विशेष परिस्थिति और विशेष व्यक्तियों के लिए ही है। साधारण व्यक्ति भूखा रह कर अथवा कोई हानि सहन करके आध्यात्मिकता का अनुयायी नहीं बन सकता तो भी अन्य लोगों से सत्य, न्याय और सहानुभूति का व्यवहार करना, किसी के साथ वैसा व्यवहार न करना जैसा कि हम अपने लिये नहीं चाहते, अध्यात्म के ऐसे नियम हैं जिनको सही मानने में किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। व्यक्ति का हित, समाज का हित, संसार का हित इसी पर निर्भर है। यह कोई जरूरी बात नहीं कि सब लोग अपना धर्म, जातीयता, भाषा, पहनाव छोड़ कर एक से बन जाएं, पर अपनी संस्कृति, धर्म की रक्षा करते हुये हमें दूसरे की संस्कृति और धर्म का भी आदर करना चाहिये। कलह या संघर्ष की वृद्धि तब होती है जब मनुष्य दुराग्रह या पक्षपात के कारण उचित को छोड़ अनुचित का समर्थन करता है। इसलिये यदि हम संसारव्यापी शाँति, सुख, प्रगति के पक्षपाती हैं और चाहते हैं कि हम स्वयं तथा अन्य लोग सुखी जीवन व्यतीत करें तो उसके लिए आध्यात्मिक मार्ग पर चलना ही हमारा कर्तव्य है। इसके लिए हमारा प्रथम कर्तव्य यही है कि अपने सुख-दुःख को भी समझें। हमारे धर्म की दृष्टि से प्राणीमात्र को और विशेषतः सभी मनुष्यों को आत्मीयता के दृष्टिकोण से देखना ही बुराई को मिटा कर भलाई को लाने का प्रमुख उपाय है।

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