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Magazine - Year 1967 - Version 2

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यहूदी जाति और विश्वयुद्ध

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“यहूदी लोग जगत्कर्त्ता की योजना को प्रकट करने के लिये एक विशिष्ट जाति की तरह हैं, यह बात इस जाति के इतिहास पर निष्पक्ष भाव से विचार करने वाले किसी व्यक्ति को विदित हो सकती हैं। ऐसा क्यों है? इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि भगवान की दैवी योजना का मुख्य उद्देश्य मानव जाति का विकास है और इसके लिये उसने यहूदियों को ही चुना है। जिस प्रकार सौर परिवार के नवग्रहों में से केवल पृथ्वी को ही जीव विकास के विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये चुन लिया गया है, इसी प्रकार इस बात का भी कोई कारण नहीं बतलाया जा सकता है कि भगवान ने अपने अगम्य अभिप्राय की पूर्ति के लिये इसी एक जाति को क्यों चुना? ‘बाइबिल’ में कहा गया है कि भगवान ने तुमको पृथ्वी तल पर निवास करने वाले समस्त मनुष्यों में से एक विशेष जाति के रूप में चुना है। इसका कारण यह नहीं है कि तुम अन्य जाति वालों की अपेक्षा अधिक संख्या में हो वरन् इसका कारण यह है कि भगवान तुमको प्यार करते हैं और उस वचन को पूरा करना चाहते हैं जो उन्होंने तुम्हारे पूर्वजों को दिया था। ‘बाइबिल’ के अतिरिक्त हम अन्य जातियों के इतिहास लेखकों की रचनाओं से भी जान सकते हैं कि यहूदी जाति अति प्राचीन काल से है, उनके पूर्वज इब्राहीम चैल्डिया देश के ‘उर’ नामक स्थान के निवासी थे। मिस्र वालों ने आक्रमण करके उनको दास बना लिया और चार सौ वर्ष उनको उसी स्थिति में काटने पड़े। अन्त में छुटकारा पाकर उन्होंने पैलेस्टाइन का अधिकार प्राप्त किया और वहाँ जरुशलम का नगर बसाया। उस काल में ऐसे बादशाह (शाह सलैमान आदि) हुए जिनके नाम और कर्मों का वर्णन उस युग की अन्य जातियों के कीर्तिस्तम्भों पर खुदा हुआ मिलता है।”

एक यहूदी लेखक की पुस्तक का उपर्युक्त उद्धरण बतलाता है कि किस प्रकार यहूदी लोग अपने को संसार की अन्य जातियों से उच्च और श्रेष्ठ मानते है और दूसरों के साथ व्यवहार में उस भाव को प्रकट करने में भी संकोच नहीं करते। वे बात का प्रमाण देते हैं कि उनकी जाति का मुख्य पुरुष जोसफ मिस्र का शासक बन गया था, फिर हजरत मूसा के नेतृत्व में उनको वहाँ से बहिष्कृत होना पड़ा। इसके पश्चात सुलैमान ने जरुशलम में प्रथम मन्दिर बनाया और शेवा की रानी तथा अन्य प्रमुख व्यक्तियों ने उसकी महानता को स्वीकार किया।

यह भी कहा गया है कि परमात्मा ने जरुशलम के मन्दिर का नक्शा अनेक वर्ष पहले आकाश में दिखला दिया था और बाद में सुलैमान ने उसी के अनुसार उसका निर्माण कराया। दैवी आदेश के अनुसार यहूदी जाति के व्यक्तियों को बारह राशियों के आधार पर बारह फिर्कों में बाँट दिया गया था। जरुशलम के मन्दिर में बारह फिर्कों के लिये बारह विभाग थे। बीच के मुख्य ‘हाल’ में ‘सर्वोच्च पुजारी’ बैठता था जिसकी छाती पर बारहों राशियों के प्रतीक के रत्नों से जड़ा एक तमगा लटकता रहता था।

बाइबिल के प्राचीन भाग (ओल्ड टेस्टामेंट ) में यहूदी जाति के सम्बन्ध में अनेक भविष्यवाणियाँ दी गई हैं जिनमें यह संकेत दिया गया कि इस जाति ने परमात्मा के एक आदेश को अमान्य किया जिसके फलस्वरूप उनका पैलेस्टाइन का राज्य नष्ट हो गया और उन्हें अपनी जीवन-रक्षा और निर्वाह के लिये संसार के अन्य देशों पर निर्भर रहना पड़ा। यहूदी लेखकों का मत है कि यह प्रक्रिया यद्यपि यहूदियों के लिये महा कष्ट कारक थी, पर इसमें परमात्मा का उद्देश्य यह भी था कि विभिन्न देशों में जाकर यहूदी लोग सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करें और अपने उद्योग से उन देशों के विकास में सहयोग करें। यद्यपि अंग्रेजी के महान साहित्यकार शेक्सपीयर के एक नाटक के कारण यहूदी योरोप भर में कंजूस और शोषण कर्ता प्रसिद्ध हो गये हैं, पर उनके व्यापार कुशल तथा उपयोगी होने से इनकार नहीं किया जा सकता। भारतवर्ष के औद्योगिक विकास में जो स्थान मारवाड़ी जाति का है और जिस प्रकार निजी रहन सहन में कंजूस मशहूर होने पर भी वे भारतवर्ष के व्यावसायिक और औद्योगिक विकास के मुख्य आधार बने हुए हैं, उसी प्रकार यहूदियों ने योरोप अमरीका के विभिन्न स्थानों में पहुँच कर तरह-तरह के व्यवसायों और उद्योग धन्धों की स्थापना तथा वृद्धि की इसे मानने से इनकार नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार अपने मूल निवास स्थान के छिन जाने से यहूदी एक अन्तर्राष्ट्रीय जाति बन गये। वे रुपये के लेन−देन और बैंक व्यवसाय में स्वभावतः ही निपुण थे, इसलिये वे जहाँ गये उन्होंने वहाँ की अर्थ व्यवस्था को अधिकाँश में अपनी मुट्ठी में कर लिया। पर चूँकि उन्होंने अपनी पुरानी जातीयता को नहीं त्यागा और वे विभिन्न देशों में रहने पर भी अपने को वहाँ के पक्के निवासी न बना सके, इसलिये रुपया पा जाने पर भी कहीं उनको उच्च नागरिक सम्मान प्राप्त न हो सका।

जर्मनी के डिक्टेटर हिटलर ने यहूदियों के साथ जो अमानुषिक व्यवहार किया और उनके ऊपर जोर-जुल्म का पहाड़ ढाह दिया, उसके लिये वह संसार भर में बदनाम है। पर इसका मूल कारण क्या था यह बहुत कम लोगों को मालूम है। जर्मनी में यहूदियों की संख्या बहुत अधिक थी और बड़े-बड़े कारबार तथा बैंक आदि उनके अधिकार में थे। सन् 1914 के प्रथम विश्व युद्ध में उन लोगों ने राष्ट्र का साथ बहुत कम दिया। युद्ध समाप्त होने पर उन पर यह आरोप लगाया गया कि युद्धकाल में भी वे गुप्त रूप से शत्रु देशों से व्यापार करके धन कमाने में ही लगे रहे और युद्ध संचालन के लिये धन की कमी हो जाने पर भी वे चालाकी से अपने धन को छिपा कर बचाये रहे। पर उस समय जर्मनी हार गया था और उस पर विदेशियों का दबाव था इसलिये यहूदियों से कुछ कहा नहीं जा सका। जब हिटलर दूसरे महायुद्ध की तैयारी करने लगा तो उसने अनुभव किया कि पहले इन घर के भेदी और राष्ट्र विरोधी तत्वों का सफाया कर दिया जाय, जिससे युद्ध संचालन में कोई बाधा न खड़ी हो। उसने ऐसा ही किया और लाखों यहूदियों को या तो मार दिया या आतंकित करके भगा दिया।

जैसा ऊपर कहा जा चुका है पैलेस्टाइन यहूदियों का मुख्य निवास स्थान था, पर सन् 700 के लगभग जब अरब में मुसलमानी धर्म का आविर्भाव हुआ और वे लोग नये उत्साह से प्रेरित और संगठित होकर विजय अभियान के लिये अग्रसर हुए तो उन्होंने सबसे पहले अपने निकटवर्ती पड़ोसी यहूदियों पर ही आक्रमण किया और उनकी राजधानी जरुशलम को नष्ट-भ्रष्ट करके उनको मार भगाया। तब से दो-तीन सौ वर्ष तक यहूदी जाति को घोर कष्ट सहने पड़े और वे कहीं स्थायी ठिकाना न मिलने के कारण जगह जगह मारे-मारे फिरते रहे। फिर जब सन् 1000 के आसपास मुसलमानों की ताकत घटने लगी तब वे लोग अपने निर्वाह की कुछ व्यवस्था बना सके। इसके कुछ समय पश्चात योरोप में उद्योग धन्धों की तरक्की होने लगी और सन् 1400 से लगभग अमरीका की खोज हो जाने से योरोप की फालतू आबादी को बाहर निकल कर प्रगति करने का अवसर मिल गया। यहूदियों ने इस अवसर का अच्छा लाभ उठाया। कष्ट सहते हुए और विपत्तियों से संघर्ष करते हुए उनकी कार्य क्षमता का बहुत कुछ विकास हो चुका था और अपना कार्य बड़ी मितव्ययिता से चला सकने का भी उनको अभ्यास था, इससे स्वतंत्र वातावरण में वे बहुत जल्दी वृद्धि करने लगे और संसार के आर्थिक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। आज आर्थिक दृष्टि से संसार की बागडोर अमेरिका के हाथ में है, और अमेरिका के सबसे बड़े बैंकर अधिकाँश में यहूदी ही हैं।

द्वितीय महायुद्ध के पश्चात जब जर्मनी से निष्कासित यहूदियों की समस्या सामने आई तो इंग्लैंड और अमेरिका ने उन्हें पैलेस्टाइन में बसाने की योजना की, जो उस समय इंग्लैंड के अधिकार में था। यद्यपि अरबों ने इसका बड़ा विरोध किया पर उनकी शक्ति विश्रृंखलित होने कारण वे कुछ अधिक न कर सके। यहूदियों को अपने संसार भर के धनी जाति भाइयों का सहयोग प्राप्त था, इससे उन्होंने पैलेस्टाइन में जगह पाते ही उस उजाड़ मुल्क को सरसब्ज बनाना शुरू कर दिया। अपने रुपये के जोर से उन्होंने धीरे-धीरे अरबों की अधिकाँश जमीनें खरीद लीं और वे बेघरबार के होकर इधर उधर मारे मारे फिरने लगे। तब प्रतिशोध की भावना में उनमें कितने ही लोगों ने अपने छापामार दल बना लिये और वे यहूदियों के प्रदेश ‘इसराइल’ में घुस कर तोड़-फोड़ और लूटमार करने लगे। इससे इन दोनों जातियों में कटुता का भाव बढ़ने लगा और वही आज नाशकारी युद्ध के रूप में प्रकट हो रहा है।

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