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Magazine - Year 1967 - Version 2

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आगामी विश्व-युद्ध और संसार का कायाकल्प

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इस समय संसार एक महा भयंकर विश्व-युद्ध की तरफ अग्रसर हो रहा है। वास्तविकता तो यह है कि मनोमय जगत में युद्ध प्रारम्भ हो चुका है और वियतनाम, कश्मीर, इसराइल जैसे स्थानों में उसकी चिनगारियाँ भी प्रकट होती रहती हैं, पर प्रमुख राष्ट्र अभी उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा में आगा-पीछा कर रहे हैं। यही कारण है कि दिव्य-दृष्टि वाले संत-पुरुषों के भविष्य कथन में भी अन्तर पड़ जाता है। हमने सन् 1940 में एक भविष्य-वाणी प्रकाशित की थी जिसमें 1964 तक विश्व-युद्ध होकर नवयुग आगमन की बात थी। सामान्य जनों की दृष्टि में तो यह भविष्य-कथन ठीक नहीं उतरा, पर हम जानते हैं कि सन 1960 में क्यूबा की समस्या पर रूस और अमरीका में युद्ध की पूरी तैयारी हो गई थी। रूस ने अमरीका की छाती पर स्थिति क्यूबा द्वीप पर दूरमारक अड्डे बना लिए थे। इस पर अमरीका के सैनिक अधिकारी लड़ाई आरम्भ करने के लिये पूरी तरह तैयार हो गये। पर प्रेसीडेन्ट कैनेडी की नीतिज्ञता और पं. नेहरू की मध्यस्थता से यह संघर्ष होते-होते रुक गया और रूस ने अपने अड्डे क्यूबा से हटा लिये। सृष्टि-चक्र और मानव जाति के विकास के ज्ञाता पुराकालीन दिव्यदर्शी सन्त पुरुष इस तथ्य को समझते थे और इसलिए वे युद्ध, अकाल आदि जैसी घटनाओं की कोई खास तारीख नहीं कहते थे वरन् संभावित काल का ही निर्देश कर देते थे। घटना की ठीक तारीख में तो सामयिक नेताओं और शासन-सूत्रधारों की मनोवृत्ति, सूझबूझ अथवा प्रवृत्ति के अनुसार कुछ शीघ्रता अथवा देर भी हो सकती है।

इसी तथ्य के आधार पर भारतीय भविष्यकर्ताओं ने संसार में होने वाली घटनाओं के लिये शताब्दियों का हिसाब ही बतलाया है। किस युग में मानव-समुदाय की प्रवृत्तियाँ मुख्य रूप से किस प्रकार की होंगी और उनका परिणाम दैवी रूप में किस प्रकार का होगा इसका संकेत उन्होंने कर दिया है और घटनाओं के ठीक समय के निर्माण का कार्य तत्कालीन विद्वानों के लिये छोड़ दिया है। इस दृष्टि से भारतीय शास्त्रकारों की निम्न भविष्य-वाणी, विशेष महत्व की है-

ततस्तुमुल संघाते वर्तमाने युग क्षये।

यदा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्य बृहस्पति॥

एक राशौ समेष्यन्ति प्रयत्स्यति तदा कृतम्।

कालवर्षी च पर्जन्यो नक्षत्राणि शुभानि च॥

क्षेमं सुभिक्षमारोग्यं भविष्यति निरामयम्॥

(महाभारत, वन पर्व 1। 90)

इसमें कहा गया है कि- “जब चन्द्रमा, पुष्प, नक्षत्र और बृहस्पति एक राशि पर समान अंश में हो जायेंगे, तब पुनः कलि की अंतर्दशा समाप्त होकर सतयुग की अंतर्दशा आरम्भ होने का समय आ जायगा। उस अवसर पर सर्वत्र बड़ी संघर्ष और हलचल की स्थिति होगी। इसके पश्चात् फिर यथासमय वर्षा होकर सब पदार्थों की बहुतायत और सुभिक्ष होगा और सब लोग स्वस्थ तथा सुखी होंगे।”

ज्योतिर्विज्ञान के ज्ञाताओं के मतानुसार ऐसा योग सन् 1943 में आ चुका है और तभी से हम संसार में एक नया परिवर्तन तथा भारत, इण्डोनेशिया, मिस्र और अनेक अन्य देशों को दासत्व से छूट कर स्वतन्त्रता के मार्ग पर चलता देख चुके हैं। पर इसका यह आशय समझना गलत है कि उक्त ग्रह-योग के आने पर एक दिन में पुराना युग समाप्त होकर नया युग पूरे लक्षणों सहित आरम्भ हो जायगा। जो लोग युग परिवर्तन के विषय को इस प्रकार कोई चमत्कार या जादू का खेल समझते हैं वे काल-चक्र की गति को समझने में अयोग्य हैं। महाभारत के उक्त वर्णन में जहाँ युग बदलने की बात कही गई है, वहाँ यह भी लिखा है-

द्विजातिपूर्वको लोकः क्रमेण प्रभविष्यति।

दैव कालान्तरेऽन्यस्मिन्पुनर्लोक विवृद्धये॥

इसमें स्पष्ट कहा गया है कि- “जब युग-परिवर्तन होगा तब ‘क्रम’ से सुसंस्कार सम्पन्न लोगों का अभ्युत्थान होगा और समाज की वृद्धि तथा उन्नति होने लगेगी।” इसी तथ्य को दृष्टिगोचर रख कर समस्त शास्त्रों में युगों का हिसाब बतलाते हुये कह दिया है कि जिस युग की अंतर्दशा जितने हजार वर्ष की होती है उतने ही सौ वर्ष की उसकी संध्या और संध्याँश भी होती है। अर्थात् जिस प्रकार सतयुग की अंतर्दशा 4000 वर्ष की है तो उसके आगे-पीछे 400-400 वर्ष का समय ऐसा व्यतीत होगा जिसमें उस युग की क्रमशः उन्नति अथवा अवनति होगी। इसी प्रकार सन् 1943 में जो कलि की अंतर्दशा समाप्त हुई है उसका संध्याँश 100 वर्ष तक चलेगा अर्थात् उसके समाप्त होने का संघर्ष और हलचल सौ वर्ष तक चलते रहेंगे और उनमें होकर क्रमशः नये युग का आविर्भाव होगा। उसके पश्चात् भी सतयुग की अंतर्दशा एकदम न आ जायगी, वरन् उसकी 400 वर्ष तक की संध्या आरम्भ होगी जिसमें क्रमशः होते हुये सन् 2500 में सतयुग की वास्तविक अवस्था दिखाई पड़ने लगेगी। जो लोग विकास के इस नियम को नहीं समझ सकते और “चट्ट मँगनी पट्ट ब्याह” वाली मनोवृत्ति का ही परिचय देते हैं, वे युग-परिवर्तन के विषय में अपना सर न खपाये यही अच्छा है।

महाभारत के ‘हरिवंश पर्व’ में इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में युग-परिवर्तन के वे लक्षण बतलाये गये हैं जो इस समय हमको अपने सम्मुख दिखलाई पड़ रहे हैं-

परस्पर हृतश्वाश्च निराकंद्य सदुःखिता।

एवं कष्ट मनुप्राप्तः कलि सन्ध्याँशके तदा॥

प्रजाक्षय प्रयस्येति साध्यं कलियुगे न ह॥

क्षीणो कलियुगे तस्मिन्ततः कृतयुगं पुनः॥

प्रयत्स्येत यथान्यायं स्वभावादेवनान्यथा।

एते चान्ये च बहवो दिव्या देवगुणैर्युतः॥

प्रादुर्भावा पुराणेषु गीयन्ते ब्रह्मवादिभिः।

विश्वत्व श्रृणु में विष्णोर्हरित्वं च कृतेयुगे॥

अर्थात्- “कलि समाप्त होने पर उसके संध्याँश के समय प्रचण्ड व्याधियाँ उठ खड़ी होती हैं। प्रजा में असन्तोष बढ़ता है और घोर युद्ध भी होते हैं जिनमें जनता का अत्यन्त नाश होता है। सतयुग आरम्भ होने के पहले एक बार पाप और अशाँति की पराकाष्ठा हो जाती है। ऐसा होने पर ही समझना चाहिये कि कलियुग क्षीण हुआ। फिर सुधरी हुई परिस्थिति कृतयुग के रूप में प्रकट होती है। और मनुष्यों में दिव्य गुणों का आविर्भाव होता है। उस समय शास्त्रों के आदेशानुसार लोग अध्यात्मवादी और ब्रह्मपरायण होने लगते हैं।”

यह भविष्य कथन उन्हीं के लिये उपयोगी और कल्याणकारी है जो गम्भीरतापूर्वक उसके तथ्य को समझने की चेष्टा करते हैं और धैर्यपूर्वक उसकी पूर्ति की घटनाओं को देखते और समझते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति ही अपनी बुद्धि के अनुसार परिवर्तन की प्रक्रिया और उसके विभागों को समझने में समर्थ हो सकते हैं और समय पर उचित सावधानी बर्तते हुये लाभ उठा सकते हैं। पर जो लोग इसमें ज्योतिषियों से किये जाने भाग्य सम्बन्धी प्रश्नों की तरह व्यवहार करते हैं, वे सदैव निराश होते हैं और उल्टी-सीधी आलोचना, आक्षेप आदि करते रहने के अतिरिक्त इसका कोई अन्य उपयोग नहीं कर पाते।

भविष्य के सम्बन्ध में प्राचीन शास्त्रों का सिद्धाँत तो हमने ऊपर बतला दिया, यहाँ हम पिछले दो-चार सौ वर्षों के भीतर होने वाले दिव्यदर्शी सन्तों के कुछ वचन लिखते हैं जिससे इस समय युग-परिवर्तन का आभास मिलता है। इस सम्बन्ध में एक भजन महात्मा सूरदास जी के नाम से बहुत प्रसिद्ध है जो नीचे दिया जाता है-

अरे मन धीरज क्यों न धरे।

मेघनाद रावण का बेटा सो पुनि जन्म धरे।

पूरब पश्चिम उत्तर दक्खिन चहुँ दिशि राज करे॥

अकाल मृत्यु जगमाहीं ब्यापै परजा बहुत मरे।

दुष्ट-दुष्ट को ऐसा काटे जैसे कीट जरे।

एक सहस्र नौ सौ के ऊपर ऐसा योग परे।

सहस्र वर्ष लों सतयुग बीते धर्म की बेल बढ़े॥

स्वर्ण फूल पृथ्वी पर फूले, पुनि जग दशा फिरे।

स्रदास यह हरि की लीला टारे नाहिं टरे॥

इस पद में संवत् 1900 लिखा है। यों तो संसार में विशेष परिवर्तन का आरम्भ संवत् 1900 के पश्चात् ही हुआ है और इस दृष्टि से यह कथन ठीक ही है। यह भी हो सकता है कि इसके रचयिता का आशय शक संवत् से हो, जो भारत के एक बड़े भाग में प्रचलित है और जिसे अब सरकार ने भी राष्ट्रीय संवत् मान लिया है। वह इस समय 1989 है और 11 वर्ष में 1900 आ जायगा। जो लोग युग-संधि के सिद्धाँत को जानते हैं कि किसी भी युग के बदलने में सौ-दो सौ वर्ष का समय लगा ही करता है, वे शताब्दियों की दृष्टि से ही बातें करते हैं, क्योंकि सामयिक कारणों से किसी भी घटना में दस-बीस वर्ष का अन्तर पड़ जाना स्वाभाविक ही है। बुन्देलखण्ड केसरी महाराज छत्रसाल के गुरु योगी प्राणनाथ ने भी ऐसा ही लिखा है। उन्होंने भगवान की शक्तियों के द्वारा युग-परिवर्तन की चर्चा करते हुये इसका समय संवत् 2000 के आसपास बताया है-

विजयाभिनन्दन बुद्धजी, और निष्कलंक. इत आय।

मुक्ति देसी सबन को, मेट सबै असुराय॥

एक सृष्टि धनी भजन एकै, एक ज्ञान, एक आहार।

छोड बैर मिलै सब प्यार सों, भया जगत में जैजैकार॥

कहा जमाना आबसी झूठा और नुकसान।

यार असहाब होसी कतल, तलवार उठसी सब जहान॥

अक्षर के दो चश्मे, नहासी नूसर नजर।

बीस सौ बरसें कायम होसी बैराट सचराचर॥

प्राणनाथ जी का यह भी कहा है कि बीसवीं शताब्दी में जब यह युग-परिवर्तन का कार्य पूर्ण हो जायगा और एक विराट (विश्वव्यापी) दैवी विधान समस्त देशों में व्याप्त हो जायगा। तब विभिन्न मतमतान्तरों की द्विविधा मिट कर सब लोग एक ही पर-ब्रह्म को स्वीकार करेंगे, एक ही उपासना पद्धति पर चलेंगे, एक सी मान्यतायें होंगी और रहन-सहन, खान-पान में ही एकता पैदा हो जायगी। उस समय आपस की फूट, बैर का अन्त हो जायगा, सब सद्भावपूर्वक रहते हुये दैवी-जीवन व्यतीत करने लगेंगे। यही आदर्श आजकल संसार के समस्त अध्यात्मवादी विद्वान स्वीकार कर रहे हैं और इसी का प्रचार किया जा रहा है।

पंजाब में एक प्राचीन कहावत गुरु नानक के नाम से प्रसिद्ध है कि- “जब आवे संवत बीसा, तो मुस्लिम रहे न ईसा।” इसका आशय यही है कि बीसवीं सदी में मुसलमान और ईसाइयों में ऐसा भयंकर युद्ध होगा कि दोनों की अत्यन्त बर्बादी हो जायगी।

राधास्वामी सम्प्रदाय के प्रधान गुरु स्वामी ब्रह्मशंकर (हजूर महाराज) ने कहा है कि- “निकट भविष्य में ही दैवी क्षेत्र में से आध्यात्मिक लहरें हमारी पृथ्वी पर आधिपत्य जमाने वाली हैं। इस समय हम जितनी आपत्तियों को अनुभव कर रहे हैं वे सब गायब हो जायेंगी और सतयुग से भी बढ़ कर प्रेम, आनन्द और कल्याण की दशा, सर्वत्र व्याप्त हो जायगी। जो आत्मिक शक्तियाँ इस समय छिपी पड़ी हैं तब वे बहुत कुछ प्रकट हो जायेंगी।”

श्री एन.के. बोस का कथन है कि- “मैंने रावण के ज्योतिष सूत्रों का विशेष रूप से अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला है कि 1962 के आरम्भ में ही अष्टग्रही योग भावी विपत्ति के बीज बो देगा जिसके फल से अवस्था लगातार गम्भीर होती चली जायगी। सन् 1964 में जब शनि और गुरु वृश्चिक राशि में आयेंगे तो इसका प्रत्यक्ष फल दृष्टिगोचर होने लगेगा और आगामी आठ वर्षों (1972 तक) में जो घटनायें होंगी उनसे नये युग की स्थापना हो जायगी।”

महाप्रभु जगतबन्धु ने कहा था- “कलियुग की अवधि पूरी हो चुकी, अब नवयुग का प्रकाश होगा और एक हजार वर्ष तक मेरी लीला चलेगी। इस बार सभी भगवान के नाम का अमृत चखेंगे। इस महाव्रत का उद्यापन इसी बीसवीं शताब्दी के भीतर पूर्ण रूप से हो जायगा।”

और भी अनेक महात्माओं ने यही विचार प्रकट किया है कि- इस समय जो पापकर्म, भ्रष्टाचार, अनैतिकता की वृद्धि हो रही है उसका कारण कलियुग समाप्त होकर एक श्रेष्ठ युग का आगमन होना ही है। जिस प्रकार दीपक बुझने के पहले एक बार जोर से भभक उठता है उसी प्रकार पाप-युग की समाप्ति होने से पहले एक बार वह अपना समस्त बल लगा कर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करता है, जिससे बाह्य दृष्टि वालों को परिस्थिति और भी बिगड़ी जान पड़ती है। पर जिनको अंतर्दृष्टि प्राप्त है वे ऐसे समय में और भी आशान्वित हो जाते हैं कि यह पाप-समूह अब जल्दी ही क्षीण हो रहा है और इसके पश्चात् धर्म-युग का प्रकाश बिखरेगा। यह भी आशा की जा रही है कि चूँकि इस समय संसार के अधिकाँश देश भौतिकवाद के पीछे भाग रहे हैं, केवल भारत में ही प्राचीन काल के अध्यात्म-ज्ञान के कुछ अवशेष बाकी हैं, इसलिये आधुनिक युग का दैवी संगीत यहीं से प्रारम्भ होगा।

ईसाई धर्म वालों का विश्वास-

जिस समय ईसामसीह अपना प्रचार कार्य कर रहे थे उस समय कहा गया था कि - कुछ समय बाद वे फिर आकर ईश्वरीय-कार्य की पूर्ति करेंगे। उनके वक्तव्य के आधार पर अनेक ईसाई सैंकड़ों वर्षों से उनके आगमन की राह देख रहे हैं। ‘बाइबिल’ के कथनानुसार इस अवसर पर प्रकट होकर ईसामसीह पृथ्वी पर धर्मराज्य की स्थापना करेंगे और सब प्रकार के दोष दुर्गुणों को संसार से दूर कर देंगे। ‘बाइबिल’ का कथन इस प्रकार है-

“मैंने एक फरिश्ते को आसमान से आते देखा जिसके हाथ में एक बड़ी जंजीर थी। उसने शैतान को जंजीर से बाँध कर अथाह गड्ढे में फेंक दिया और उसे बन्द कर दिया। इसके बाद पृथ्वी पर एक हजार वर्ष तक ईसामसीह राज्य करेंगे।”

इसकी व्याख्या करते हुये पादरी बैक्सटर साहब ने लिखा है कि- “इन घटनाओं के फल से पृथ्वी की जनसंख्या बहुत कम हो जायगी और दुनिया सुनसान-सी जान पड़ने लगेगी, पर इसके बाद जब पृथ्वी का शासन ईसामसीह तथा सन्त-पुरुष करने लगेंगे तो लोग धर्म मार्ग के अनुयायी बन जायेंगे और उनके सब कष्ट और दुःख दूर हो जायेंगे। उस समय संसार में जल और स्थल सेनाओं का नाम भी न रहेगा। लोग तलवारों को तोड़ कर हल का फार बना लेंगे। एक देश के निवासी दूसरे देश के निवासियों से लड़ाई-झगड़ा न करेंगे, युद्ध सदा के लिए बन्द हो जायेंगे। सब लोग मेहनत और खेती आदि द्वारा उपार्जन करके अपना निर्वाह करेंगे। जमीन की पैदावार बहुत बढ़ जायगी और ऊसर जमीन में भी फल−फूल उत्पन्न होने लगेंगे। इस युग में शासन-कार्य केवल उन्हीं लोगों के हाथ में रहेगा जिनका चरित्र शुद्ध और पवित्र होगा और जो नम्र, विनयशील और गरीबी को पसन्द करने वाले होंगे।”

धर्म प्रेमी संगठित हों-

इस समय भी ईसाई धर्म के अनुयायी ईसा के आगमन का प्रचार करके लोगों को नवयुग का सन्देश सुना रहे हैं। इस सम्बन्ध में मिस एडिल बेयर नामक आध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न महिला ने धर्मप्रेमी सज्जनों के नाम एक खुला पत्र भेजा है, जिसमें संसार पर आने वाली कठिनाइयों को चेतावनी देते हुये कहा है-

‘अपने गुरु और स्वामी ईसामसीह की अनुमति से मैं अपने समस्त मित्रों और परिचितों को कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें बतलाना चाहती हूँ। यद्यपि मैं वर्तमान समय में संसार के ऊपर मंडराने वाली घटनाओं का रूप या कार्यक्रम तो प्रकट नहीं कर सकती, पर कुछ ऐसी बातें कह सकती हूँ जिनकी इस समय आवश्यकता है। सम्भव है इन बातों को आपने अन्य स्थानों से भी सुन रखा हो। इनमें सबसे प्रधान बात यही है कि अब पूर्ण रूप से मिल कर सहयोगपूर्वक काम करने का समय आ गया है। अब ऐसा जमाना आ रहा है कि आपको आपस के सब भेदभाव और विचार तथा कार्यों की भिन्नता दूर करके एकता की भावना पर ही जोर देना चाहिए।”

“अब जो नवयुग आने वाला है उसमें ऐसे लोगों का अस्तित्व रहना कठिन होगा जिनमें आत्मिक शक्ति की कमी या अभाव पाया जायगा। यद्यपि वे टिके रहने की चेष्टा करेंगे, पर ज्यादा दिन न ठहर सकेंगे। आकाश से आने वाली विश्व-किरणें (कॉस्मिक रेज) उनके लिये ‘तीव्र औषधि’ का काम करेंगी। ऐसे लोगों को, जब वे आत्मिक मार्ग में आवश्यक प्रगति कर लेंगे तब नवीन जगत में फिर से जन्म लेने का मौका दिया जायगा। इस समय तो हमारा कर्तव्य यही है भगवान पर पूर्ण विश्वास करके अपने को उस पर ऐसे ही छोड़ दें, जैसे बालक माता के भरोसे सर्वथा निश्चिंत हो जाता है। भगवान ऐसे ही श्रद्धा रखने वालों को नवीन आकाश और नई पृथ्वी पर स्थान देगा।”

संसार में इस समय जो विषम परिस्थिति उत्पन्न हो गई है उसका मूल कारण पारस्परिक वैमनस्य और दूसरों को दबाने की प्रवृत्ति ही है। मनुष्य में स्वार्थभाव और अहंकार के बढ़ जाने से वह दूसरों के अधिकारों और हितों की चिन्ता नहीं करता और यही चाहता है कि चाहे सब मरें, कष्ट सहन करें, पर मेरा लाभ अवश्य हो। खासकर व्यापार-व्यवसाय के क्षेत्र में मनुष्य ईमानदारी और सच्चाई के व्यवहार को बहुत हद तक त्याग चुका है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो व्यापार में चालाकी, धूर्तता करना उसका एक अंग मानते हैं और इसमें किसी तरह की लज्जा अनुभव नहीं करते। उदाहरण के लिये आजकल खाद्य पदार्थों में मिलावट करना मामूली बात हो गई है। लोग आटे में सेलखड़ी, लकड़ी का बुरादा, धनिये में जानवरों की लीद, हल्दी में रामरज नाम की पीली मिट्टी, लाल मिर्चों में गेरू, काली मिर्चों में पपीते के बीज, नमक में पत्थर आदि मिला देना मामूली बात समझने लग गये हैं। यद्यपि ये सब अत्यन्त जघन्यता के कार्य हैं और ऐसे व्यक्तियों को समाज का शत्रु मान कर बहिष्कार का दण्ड देना चाहिये, पर आजकल चूँकि इस प्रकार के भ्रष्टाचारियों की संख्या बहुत बढ़ गई है और अधिकाँश अपने-अपने पेशे में ऐसे अनैतिक कार्य करते ही हैं, इसलिये कोई किसी से कुछ नहीं कहता। भेद खुलने पर चाहे ऐसे व्यक्ति सरकार से दण्डित हो जायें, पर समाज में उनकी साख और प्रतिष्ठा में अन्तर नहीं पड़ता। इस कारण वे थोड़ा जुर्माना देकर या कुछ दिन की सजा भोग कर फिर वैसा ही कुकर्म करने लग जाते हैं।

आवश्यकता इस बात की है कि सज्जन लोग अपने संगठन बनायें और समाज-विरोधी कार्यों को रोकने और वैसा करने वालों को सामाजिक दण्ड दिये जाने की व्यवस्था करें। आज लोग छोटे-मोटे राजनीतिक आँदोलनों में तो मारधाड़, आगजनी, तोड़-फोड़ की कार्यवाही करने लग जाते हैं, स्कूल और कालेजों के विद्यार्थी मामूली बातों पर हंगामा मचा देते हैं, पर समाज में रह कर तरह-तरह के भ्रष्टाचार करने वालों के विरुद्ध कोई उँगली भी नहीं उठाता। चाहे जीवन-निर्वाह के लिये आवश्यक पदार्थों का ‘ब्लैक’ करने वालों के खिलाफ लोग जबानी शिकायत किया करें, उन्हें गालियाँ देते रहें, पर संगठित होकर कोई ऐसे सक्रिय कदम उठाना जिससे वे अपने अनैतिक कर्म के लिये लज्जित हों अथवा हानि होने का भय अनुभव करने लगें, ऐसा कोई यत्न नहीं किया जाता। जैसा मिस एडिल वेयर ने कहा है-यदि संसार के सब सज्जन पुरुष अपने-अपने क्षेत्र में संगठित होकर पाप-कर्मों के निरोध और पुण्यकर्मों के प्रचलन में हार्दिक सहयोग दें तो धर्म-नीति का उल्लंघन करने वालों का जोर बहुत कुछ घट सकता है।

उद्धारकर्ता प्रकट होने वाला है-

किसी ऐसे महापुरुष के आविर्भाव की भावना, जो संसार-भर पर प्रभाव डाल कर पाप-युग का अन्त करा सके, सर्वसाधारण में काफी समय से व्याप्त हो रही हैं। हमारे देश में कुछ समय पहले ‘कल्कि’ अवतार के प्रकट होने की बड़ी धूम मची थी और दिल्ली तथा बिहार आदि में कितनी ही संस्थायें भी इस तरह का प्रचार करने लग गई थीं। अनेक व्यक्तियों को ‘अवतार’ घोषित भी कर दिया गया था। इससे मालूम पड़ता है कि मनुष्य में इस प्रकार किसी उद्धारकर्त्ता के प्रकट होने की आकाँक्षा स्वाभाविक है। जब वह अपनी शक्ति से अपने ऊपर आई विपत्तियों का निराकरण नहीं कर सकता तो यह इच्छा करता है कि कोई दैवी शक्ति आकर उसकी सहायता करे। जब तक ऐसी इच्छा उथली रहती है तब तक तो उसका कोई परिणाम नहीं होता, पर जब वह अन्तरात्मा तक पहुँच जाती है और जन-मानस समष्टि रूप से ऐसी भावना से परिपूर्ण हो जाता है तब किसी रूप में दैवी शक्ति का आविर्भाव होता है। हम यहाँ तक कह सकते हैं कि जिस प्रकार दैत्यों से उत्पीड़ित होकर देवताओं ने अपनी-अपनी शक्ति को एकत्रित कर ‘दुर्गा’ के आविर्भाव में सहायता की थी, उसी प्रकार आन्तरिक भावनायें भी जब सम्मिलित हो जाती हैं तब उनका कोई साकार रूप सामने आता ही है।

इस वक्तव्य पर यह विवाद उठाना निरर्थक है कि दैवी-शक्ति किस देश, किस जाति या किस मजहब में प्रकट होगी। प्राचीन युगों में संसार में आवागमन के साधनों का विकास न होने से प्रत्येक देश अपनी सीमाओं में ही आबद्ध रहता था और इस कारण कोई दैवी शक्ति सम्पन्न व्यक्ति प्रकट होता था तो उसका कार्य-क्षेत्र वही देश रहता था। आस-पास के दो-चार देशों में भी उसका समाचार और प्रभाव बहुत कम पहुँचता था।

पर अब परिस्थिति बदल गई है और आवागमन के साधन इतने अधिक पूर्ण हो गये हैं कि संसार के किसी भी दूर से दूर के भाग में 24 घंटे के भीतर ही पहुँचा जा सकता है। इस समय सारा संसार एक छोटे देश की तरह बन गया है और यही वर्तमान विश्व युद्धों का मूल कारण है। इसका एक नमूना पिछले एक-दो सप्ताह में ही दिखलाई पड़ गया है। अरब देशों और इसराइल के यहूदियों में संग्राम आरम्भ हुआ। इन दोनों में से किसी के साथ भारत का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं और वे हमसे कई हजार मील के फासले पर हैं, फिर भी यहाँ की खाद्य समस्या पर तुरन्त उसका प्रभाव पड़ गया और कहा गया कि इस युद्ध के कारण विदेशों से अन्न के जहाजों के आने में बाधा पड़ गई है, इसलिए यहाँ अन्न के भाव में कुछ वृद्धि हो जायगी। इतना ही नहीं अन्न का भाव 4-6 रुपया क्विण्टल बढ़ भी गया।

इसलिए अब जो ‘अवतार’ होगा वह चाहे जहाँ और चाहे जिस जाति और वंश में पैदा हो उसका प्रभाव समस्त संसार पर पड़ेगा और मनुष्य-मात्र उसे सम्मान की दृष्टि से देखेंगे। वह सबके हित की दृष्टि से कार्य करेगा, इसलिए सभी उसको अपना ही समझेंगे। वह सब मतमतान्तरों के मतभेदों को दूर करके एक मानव-धर्म का उपदेश करेगा, इसलिए उसे किसी एक मजहब का बतलाना निरर्थक होगा। वह लोगों को समझायेगा कि-मनुष्य का पहला धर्म समाज की प्रगति में सहयोग देना और व्यक्तियों की सब प्रकार की आवश्यकताओं में यथासम्भव सहायता पहुँचाना है। उसके पश्चात् अगर वह चाहे तो किसी पद्धति या विधि से विश्व-संचालक शक्ति-परमात्मा का ध्यान, उपासना, पूजा भी कर सकता है। पर उस अवस्था में वह सामान्य धर्म-कृत्य किसी प्रकार के पारम्परिक संघर्ष या मतभेद का जन्मदाता न होकर मानव-जाति की एकता और कल्याण की वृद्धि करने वाला ही होगा। आने वाले धर्म-युग की यह भावना केवल हिन्दुओं और ईसाइयों में ही नहीं पाई जाती वरन् संसार में अनेक धर्मों के बहुसंख्यक विद्वान किसी बहुत बड़े महापुरुष के आगमन और नवयुग की स्थापना की बात कह रहे हैं। कुछ वर्ष पहले तिब्बत के एक लामा ने योरोप के जगत प्रसिद्ध विद्वान और चित्रकार रोरीश को बताया था कि-दुनिया की पार्थिव शक्ति के ऊपर धर्म की शक्ति की विजय चंबाला युग (सतयुग) में होगी जो जल्दी ही शुरू होने वाला है। यहूदी लोगों का भी ख्याल है कि उनके धर्मग्रन्थों में बतलाया ‘मुएर गजर’ नामक युग जल्दी ही शुरू होगा। ईरान में अली के अनुयायियों (शिया सम्प्रदाय) वालों का भी ऐसा ही विश्वास है कि उनके ‘मेंहदी’ जल्दी ही प्रकट होकर न्याय का राज्य स्थापित करेंगे। जापानी लोगों का विश्वास है कि उनका ‘अवातेरी’ युग (सतयुग) कुछ समय बाद प्रारम्भ हो जायगा।

यद्यपि युद्ध की प्रवृत्ति मनुष्य की आदिमकालीन बर्बरता का चिन्ह है, पर यह अन्तिम युद्ध मानवता के विकासक्रम की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी की तरह सिद्ध होगा, इस दृष्टि से उसका एक विशिष्ट स्थान है। वास्तव में मनुष्य अब तक ज्ञान, विज्ञान तथा अध्यात्म के क्षेत्र में जितनी प्रगति कर चुका है उसे देखते हुये युद्ध उसके लिए एक लज्जा-निन्दा की वृत्ति ही समझी जायगी। इस समय तक मनुष्य को जितने वैज्ञानिक साधन मिल चुके हैं उनका यदि बुद्धिमानी के साथ उपयोग किया जाय तो समस्त संसार इस समय भी वर्तमान स्थिति से कहीं उन्नत और सुखी जीवन बिता सकता है।

अब भी यदि मनुष्य जंगली पशुओं की तरह एक दूसरे को मारने-काटने, पीड़ित करने लिये उद्यत होता है तो उसका कारण उसकी स्वार्थमयी अनुचित प्रवृत्तियाँ ही हैं। भावी महायुद्ध इसी दूषित अवस्था का अन्त करने के लिये उपस्थित होने वाला है। अभूतपूर्व वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्रों के कारण वह जितना अधिक नाशकारी हो जाय उतना ही कम है। पर इससे मनुष्य की पाशविकता मर कर मानवता जागृत हो जायगी यही इसका सबसे बड़ा लाभ है। उसके बाद मनुष्य अपने को एक ही परमात्मा का अंश समझ कर भ्रातृभाव से रहना सीख जायगा जो संसार की उच्चतम स्थिति है। जब संसार में ऐसी अवस्था आ जायगी तो वही सतयुग होगा, वही कल्कि का धर्मराज्य होगा और वही ईसा का स्वर्गीय शासन होगा।

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