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Magazine - Year 1967 - Version 2

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सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में होने वाले नवीन परिवर्तन

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“युग कोई ऐसी वस्तु नहीं जो एक नियत समय पर ही आवेगी और फिर चिरकाल के लिये दृष्टि पथ से ओझल हो जायगी। हम अपना सतयुग और कलियुग अपनी प्रेरणा से आप बना सकते हैं। जब मनुष्य इस जागृत-जीवन के अधिकार को भूल कर सूक्ष्म स्थान पर पहुँच जाता है, वासना, कामना, संस्कार आदि से नाता तोड़ लेता है, उसी समय सतयुग का पुनः उदय हो जाता है। इस समय पृथ्वी तल पर रहने वाली मानव-जाति बुद्धि, मन और शरीर को ही सर्व प्रधान मानती है, इन्हीं के चक्कर में पड़कर वह नाना प्रकार की लीलायें किया करती है। वह स्वर्ग लोक की खोज खबर लेना बिल्कुल भूल गई है। इसलिये आज हमें नये सिरे से अनुष्ठान करना होगा। शक्ति को पुनः जगाना होगा। अहंकार का सिर हमें नीचा करके रखना होगा। हम दिव्य-लोक के अधिकारी हैं इस बात का हमें फिर से ज्ञान प्राप्त करना होगा। इसी से नवयुग की-सतयुग की स्थापना होगी। तब हम ज्ञानरूपी अमृत का कलश लेकर संसार में ही अमर लोक की लीला करेंगे।”

-महायोगी अरविन्द

हमारे देश में चार युगों की कल्पना ने बड़ा अद्भुत रूप धारण कर लिया है। लाखों वर्ष तक किसी एक युग का बने रहना और उतने समय में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों का अनिवार्य रूप से भला या बुरा बन जाना एक ऐसी बात है जिस पर विश्वास करने से सिवाय हानि के किसी प्रकार का लाभ नहीं दिखाई देता। उदाहरण के लिये हम सदैव भारतवर्ष के अशिक्षित और अल्प शिक्षित मनुष्यों के मुँह से कलियुग की निन्दा और उसके कारण दुनिया में पापों की अधिकता की बात सुनते रहते हैं। इन बातों को सुनते-सुनते लोगों के मन में यह बात बैठ जाती है कि इस जमाने में पापों का किया जाना स्वाभाविक ही नहीं एक दैवी विधान है, जिसे मनुष्य की शक्ति नहीं रोक सकती। इस प्रकार की भावनाओं से मनुष्य का पापों का विरोध करने वाला संकल्प-बल ढीला पड़ जाता है और वह सत् कर्मों की अपेक्षा दुष्कर्मों की तरफ प्रेरित होने लगता है।

इसलिये जब महायोगी अरविन्द से सतयुग-आगमन के विषय में जिज्ञासा की गई तो उन्होंने यही समझाया कि सतयुग-कलियुग का निर्माता मनुष्य स्वयं ही है। वह चाहे तो सत् कर्म करता हुआ सतयुग बुला ले और चाहे तो दुष्कर्मों में लिप्त रह कर कलियुग की स्थापना करता रहे। यह अवश्य है कि परिस्थितियों तथा देश के सामाजिक, राजनीतिक वातावरण का प्रभाव मनुष्यों पर अवश्य पड़ेगा और उससे बुरी या भली प्रवृत्तियों को प्रेरणा मिलेगी। उदाहरण के लिये जिस प्रकार आजकल जन-संख्या की अनियंत्रित वृद्धि होती जाती है, उसमें मनुष्यों में संघर्ष का बढ़ना तथा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये अनुचित उपायों का आश्रय लेना अधिक सम्भव हो जाता है।

पर इन परिस्थितियों का निर्माता भी अधिकाँश में मनुष्य ही होता है। जैसे आजकल भारत तथा चीन जैसे देश आबादी को इस प्रकार बढ़ने दे रहे हैं कि वह उपज के अनुपात से कही अधिक परिणाम में दिखलाई दे रही है, पर अमरीका और इंग्लैण्ड की स्थिति इससे भिन्न है। वहाँ दस वर्ष में शायद 10 प्रतिशत वृद्धि होती हो पर भारत आदि में वह 20-25 प्रतिशत तक बढ़ जाती है। इंग्लैंड में पैदावार बहुत कम है इसलिये वहाँ वृद्धि भी इससे कहीं कम है।

इस परिस्थिति का मुख्य कारण यह है कि अब से सौ वर्ष तक ऐसी परिस्थिति थी कि मनुष्य प्रकृति का मुकाबला नहीं कर सकता था, वरन् जिस प्रकार प्रकृति रखती थी वैसे ही रहता था। इसलिये जितनी वृद्धि होती थी वह युद्ध, महामारी, अकाल आदि से बहुत कुछ खत्म हो जाती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि अंक शास्त्रियों के मतानुसार ईसवी सन् के आरम्भ में समस्त पृथ्वी की जनसंख्या 10-20 करोड़ के बीच थी, वह सन् 1900 तक बढ़ कर कुल एक अरब हुई। पर इन 66 वर्षों में वही जनसंख्या 1 अरब से बढ़ कर पौने तीन अरब के लगभग पहुँच चुकी है। कारण यह है कि इस बीच में मनुष्य ने विज्ञान में जो उन्नति की है उसने महामारी और अकाल से होने वाली मृत्युओं को अधिकाँश में रोक दिया है और मनुष्य की आयु का औसत भी बढ़ा दिया है।

इस दृष्टि से विचार करने पर हमको महायोगी अरविंद के इस वक्तव्य में किसी प्रकार की शंका नहीं होती कि युग का निर्माण हमारे अपने ही हाथ में है। हम अपनी भावनाओं, विचारों, कार्यों को जैसा अच्छा या बुरा रखेंगे वैसा ही युग भी बन जायगा। वर्तमान समय के किसी कवि ने भी इस बात को इन प्रेरणादायक शब्दों में कहा है कि-’मर्द वे हैं जो जमाने को बदल देते हैं।” यह ठीक है कि किसी भी युग या जमाने में सब मनुष्यों का एक-सा होना सम्भव नहीं है। पुराणों की कथाओं के अनुसार सतयुग में हिरनाकुश और त्रेता में रावण जैसे व्यक्ति थे ही जो अपने कर्मों से दानव और राक्षस कहलाये और जिन्होंने धर्म-विरुद्ध कार्यों द्वारा पाप-युग का दृश्य उपस्थित कर दिया। इधर ‘कलियुग’ कहे जाने वाले समय में विक्रमादित्य और भोज जैसे राजाओं की कथायें प्रसिद्ध हैं जिनके राज्य में शेर और बकरी एक घाट पर पानी पीते थे। इसलिये यही मानना पड़ता है कि जिस जमाने में जैसे व्यक्तियों तथा कर्मों की प्रधानता होगी वैसा ही युग बन जायगा।

युग परिवर्तन के चिन्ह-

हमारा यह निश्चित मत है कि वर्तमान समय में जो अत्यन्त संकटपूर्ण परिस्थिति पैदा हो गई है उसका कारण वर्तमान समय के मनुष्यों में स्वार्थपरता और अस्वाभाविक संचय की प्रवृत्ति का बहुत अधिक बढ़ जाना है। इस समय व्यापार, व्यवसाय, मालिक-मजदूर, निजी जायदाद आदि के नियम इतने दोषपूर्ण हो गये हैं कि उनके रहते समाज में कभी शाँति और सुख की आशा की ही नहीं जा सकती। आज हम देखते हैं कि एक तरफ खाद्य-सामग्री गोदाम में बन्द सड़ती जा रही है और दूसरी तरफ उससे बीस गज के फासले पर ही रहने वाले व्यक्ति भूख से मर रहे हैं। इधर कपड़े की किसी मिल में कपड़े का इतना स्टॉक जमा हो गया है कि कारखाने को कुछ समय के लिये बन्द कर देना पड़ता है और उधर उसी कारखाने में काम करने वाले मजदूरों में कितनों के ही पास तन ढकने को भी पूरा कपड़ा नहीं है। एक व्यक्ति पचास-सौ आलीशान मकानों का स्वामी बना हुआ अधिक किराया पाने की लालसा से दस बीस को खाली रखे हुए है और उसके पड़ोस में ही ऐसे लोग मौजूद हैं जिनको मकान के अभाव से एक गन्दी कोठरी में भेड़-बकरियों की तरह घिच-पिच रहना पड़ता है और इस तरह अपने स्वास्थ्य को खराब करना पड़ता है।

ऊपर जिन परिस्थितियों का वर्णन किया गया है वे सब ऐसी हैं जिनसे जन-समाज में अवश्य ही असन्तोष की उत्पत्ति होती है और उसके परिणाम स्वरूप प्रतिहिंसा, द्वेष, कलह, चोरी, डाका, हत्या आदि अनेक दोष बहुत अधिक बढ़ने लगते हैं। जब कुछ लोग होशियारी, चालाकी, तिकड़म, भ्रष्टाचार आदि किसी भी तरीके से बहुत सा धन-सम्पत्ति-सामग्री इकट्ठा कर लेने में सफल हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि यह हमारी चीज है, हम इसका चाहे जो करें, तो अन्य लोग भी लूट-मार, चोरी-डाका, ठगी-जालसाजी आदि किसी भी विधि से उसको हथियाने का प्रयत्न करना आरम्भ कर देते हैं। एक तरफ तो धनवानों के तरह-तरह के हथकण्डों से काम लेते और अपना संचित धन निरन्तर बढ़ाते जाने से अन्य लोगों को भी उसी तरह के नीचे कार्य करके मालदार बनने की धुन लगती है और दूसरी तरफ जो लोग इन साधनों से वंचित रह जाते हैं वे जोर-जबर्दस्ती, छीना-झपटी की नीति को अपनाकर धनवानों के से ही गुलछर्रे उड़ाने की कोशिश करते हैं। इस तरह दोनों प्रकार से समाज और व्यक्तियों का नैतिक तथा आध्यात्मिक पतन होता है।

अब लोग इस बात को अधिकाधिक अनुभव करते जाते हैं कि इस समय संसार में जो दोष-दुर्गुणों की निरन्तर वृद्धि हो रही है, उसका सबसे बड़ा कारण यह सम्पत्ति पर अधिकार कायम करने की चेष्टा है। यह सच है कि जनसंख्या का सीमा से बाहर बढ़ते जाना उसका प्रत्यक्ष कारण है, पर यदि लोग लोभ, लालच, अति-परिग्रह की वृत्ति को अपनाये रहें, तो चोरी-डाके आदि में कमी नहीं हो सकती। ईसामसीह के जीवन-काल में समस्त संसार की जनसंख्या बीस करोड़ के लगभग ही थी और जगह-जगह सैकड़ों कोस लम्बी-चौड़ी जमीनें खाली पड़ी थीं तो भी उस समय मार-काट की कमी नहीं थी। अब तो लोग फिर भी किसी कारणवश, किसी का कोई कसूर बता कर लड़ते हैं, पर उस समय बड़े राजा बिना मतलब ही ‘विजय-यात्रा’ (या नाश-यात्रा) पर निकल पड़ते थे और रास्ते में जो भी राज्य आता था उसे लूटते-पाटते, मारते-काटते आगे बढ़ते चले जाते थे।

आत्म-भाव की स्थापना-

इसलिये आगामी युग में जो सबसे बड़ा परिवर्तन होगा वह मनुष्य-मनुष्य के बीच में आत्म-भाव की स्थापना होगी। वैसे तो यह बात बड़ी कठिन जान पड़ती है, पर यदि समाज और सरकार इसका निश्चय कर लें और बालकों को आरम्भ से वैसे ही शिक्षा दी जाय तो ज्ञानपूर्वक नहीं तो स्वभाववश एक दूसरे से आत्मीय की भाँति व्यवहार करने लगेंगे। जो नियम परम्परागत रीति-रिवाजों में मिल जाते हैं तो लोग चाहे उनका पूरा मर्म न समझ सकें पर पालन करने लग जाते हैं। इसका उदाहरण आज के मंदिरों और तीर्थों के दर्शन तथा पूजा-उपासना से मिल सकता है। यद्यपि बहुत थोड़े लोग इनका रहस्य समझते हैं पर पालन करने वाले व्यक्तियों की संख्या करोड़ों है। ये लोग चाहे पूजा-उपासना, जप-ध्यान आदि का पूरा लाभ न उठा पाते हों तो भी असत् कर्मों से बहुत कुछ बचे रहते हैं और अनेक धीरे-धीरे शुद्ध रूप में व्यवहार भी करने लगते हैं।

अध्यात्म-भावना के प्रसार का परिणाम यह होगा कि मनुष्यों का दृष्टिकोण विशाल बनेगा और वे विश्व-मानव की भावना को ग्रहण करने लगेंगे। आजकल विभिन्न देशों के निवासियों में जो वेषभूषा, भाषा, शिष्टाचार के नियम, सामाजिक रीति-रिवाज के अन्तर पाये जाते हैं, उस समय पारस्परिक सद्भावना, सहयोग और मिलते-जुलते रहने से दिन पर दिन घटते जायेंगे। इससे विभिन्न जातियों और नस्लों के व्यक्तियों के बीच भेद भावना मिटने में बड़ी सहायता मिलेगी और सौ-दो सौ वर्ष बाद ऐसा समय आ जायगा जब कि एक परम पिता के पुत्र होने के नाते समस्त मनुष्य अपने को एक ही मानव जाति का सदस्य समझने लगेंगे।

संसार में इस प्रकार के मानव-धर्म का विकास होने से वर्तमान समय में जो विभिन्न मजहब वालों में बहुत अधिक घृणा की भावना पाई जाती है वह प्रेम-भाव में बदल जायगी। लोग समझने लगेंगे कि अपने जीवन को उत्कृष्ट बनाना और उसे पर-सेवा, परोपकार में लगाना ही सच्चा धर्म है। शेष बातें कर्मकाँड मात्र हैं, जिनको अपनी इच्छानुसार किया जा सकता है। यदि मूल ठीक दशा में रहेगा तो फूल और फल अपने आप ठीक हो जायेंगे। इस पर आजन्म चलते रहने से लौकिक लाभों के साथ अन्त में मोक्ष का सुख मिलना स्वाभाविक ही है।

ऐसा समय आने पर आजकल भौतिकवाद की अधिकता के कारण व्यक्तियों तथा समाज में जो दोष-दुर्गुण पाये जाते हैं उनका स्वयमेव निराकरण हो जायगा। आज हिन्दू, मुसलमान, ईसाई सब प्रकट में धर्म-कार्यों में भाग लेते हैं और उनमें करोड़ों रुपया खर्च करते हैं, पर जिनकी बाहरी और भीतरी भावनाओं में एकरूपता न होने से उनका कोई अच्छा फल देखने में नहीं आता। आगामी समय में चाहे मनुष्य मंदिरों में आजकल की तरह नियमित रूप से न जायें पर वे उन देवता-स्वरूप व्यक्तियों के सच्चे भक्त, अनुयायी और आदेशों का पालन करने वाले होंगे जो समाज के लिये आत्मोत्सर्ग कर के सार्वजनिक सुख और कल्याण की वृद्धि करेंगे। इसी तरह उनकी तीर्थयात्राएँ भी सन्त एकनाथ की तरह होंगी जिन्होंने रामेश्वर पर चढ़ाया जाने वाला गंगाजल एक प्यास से भरते हुये गधे को पिला दिया और उसकी प्राण रक्षा की। इसी प्रकार उस समय सर्वश्रेष्ठ यज्ञ महाभारत में वर्णित उस तरह के परोपकार के कार्यों को समझा जायगा जिसका वर्णन एक न्यौला ने राजसूय यज्ञ के अवसर पर युधिष्ठिर को सुनाया था।

वास्तव में तब ऐसा समय आयेगा जब कि अध्यात्म कहने-सुनने या मन के भीतर ही गुप-चुप भजन-जप करने की चीज नहीं रहेगी वरन् उसका उपयोग नित्यप्रति जीवन की प्रत्येक क्रिया में होगा। यद्यपि उस समय भी मनुष्य व्यापार, नौकरी, मजदूरी, कारीगरी, कलाकारिता आदि सब कार्य करेंगे, धन भी कमायेंगे, उसका उपभोग भी करेंगे पर उनके दृष्टिकोण में एक बहुत बड़ा अन्तर पड़ जाएगा। आज लोग धन को ही सब सुखों का साधन मान रहे हैं और इसलिये जिस तरह भी धन प्राप्त किया जाय वही ठीक मार्ग है- वही धर्म है! इसके विपरीत उस समय लोग जो कार्य करेंगे वह कर्तव्य की भावना, सेवा के ख्याल से, समाज के ऋण को चुकाने के उद्देश्य से करेंगे जिससे खाने-कमाने का काम ज्यों का त्यों रहने पर भी समाज की स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर पड़ जायगा और दुःखों का सबसे बड़ा कारण दूर हो जायगा।

धर्म और समाज विषयक विचारों में इस प्रकार संशोधन हो जाने से अन्य छोटी-बड़ी विधियों, संस्कारों परम्पराओं आदि में स्वयमेव सुधार हो जायेगा। आज लाख सर पीटने पर भी दहेज का दैत्य हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है, मृतक भोजों की हजार-हजार, पाँच-पाँच सौ व्यक्तियों की दावतें शेष बचे हुये घर वालों को भी मटियामेट कर रही हैं। प्रत्येक छोटे-बड़े संस्कार में नेग-जोग की प्रथायें लोगों की जेब खाली करती रहती हैं, पर आगे चल कर इनका स्वरूप सर्वोपयोगी और कल्याणकारी बन जायगा। सर्वोत्तम ब्रह्म विवाह के लिये हमारे यहाँ जो विधि बतलाई गई है, वह ऐसी है कि दम्पत्ति पर अत्यन्त उच्चकोटि के संस्कार छोड़ते हुए बिना किसी प्रकार के खर्च या आडम्बर के पूरी हो सकती है। इसी तरह मृतक संस्कार के लिये प्राचीन ग्रन्थों में जैसी व्यवस्था देखने में आती है, उसमें भी लम्बी-चौड़ी दावतों की जरा भी आवश्यकता नहीं। छोटे-मोटे रीति-रिवाजों और नेग-जोगों में जो मनमाना खर्च किया जाता है उसका कारण अपनी शान दिखलाना ही होता है पर भावी समाज में से यह सब प्रवृत्तियाँ दूर हो जायेंगी और प्रत्येक मनुष्य ऐसी उलझनों से बच कर सुखी जीवन व्यतीत कर सकेगा।

राजनीतिक परिवर्तन-

जो युग अभी गुजर रहा है, उसमें अधिक शक्ति और प्रभाव राजनीति का माना जाता है और उसी से सब देशों की जनता के भाग्य का फैसला होता है। सर्वसाधारण का जीवन सुखी है या दुःखी इसका आधार मुख्यतः इसी बात पर है कि वहाँ के राजपुरुष सचाई से जनहित को ध्यान में रख कर काम करते हैं या इसके विपरीत आचरण करते हैं। जहाँ के स्वार्थी राजनैतिक नेता अपने उच्च पदों को कायम रखने के लिये राजनीति और अनाचार से काम लेने में भी संकोच नहीं करते वहाँ के लोग अवश्य दुःखी रहते है और उनका जीवन प्रायः संकटपूर्ण रहता है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज कल हमारे देश में और अनेक अन्य देशों में भी ऐसी ही स्थिति दिखलाई पड़ रही है।

पर हमारा विश्वास है कि यह स्थिति अधिक समय तक कायम नहीं रह सकती। शीघ्र ही मनुष्य युद्ध की निस्सारता को समझ कर सह-अस्तित्व के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेंगे और एक वास्तविक राष्ट्रसंघ बनाने की तरफ अग्रसर होंगे। इस स्थिति के आने के पूर्व एक विश्व-युद्ध होने की आशंका इस समय बहुत प्रबल हो उठी है। यह युद्ध बहुत नाशकारी होगा और उसमें जर्जर होकर-थक कर ही राष्ट्रों को सह-अस्तित्व की बुद्धि आयेगी। तो भी जहाँ तक विश्वास है, इस युद्ध में अणु-अस्त्रों (एटम और हाइड्रोजन बम) का उपयोग नहीं होगा। जैसा हाल ही में अमरीका के प्रेसीडेण्ट ने कहा था- “हाइड्रोजन बम का प्रयोग कोई पागल ही करेगा।” कारण यह है कि अणु-अस्त्रों का प्रयोग जिस प्रकार शत्रु के लिये नाशकारी होता है, वैसे ही अपने लिये भी घातक सिद्ध होता है। यदि कई राष्ट्रों द्वारा इस हथियार का अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाय तो तीन-चौथाई से भी अधिक जन संख्या के नष्ट हो जाने के साथ ही समस्त पृथ्वी का वायुमण्डल ऐसा विषाक्त हो जायगा कि उसमें रह कोई व्यक्ति महा रोगी बने बिना न रहेगा।

भविष्य में जो सरकार बनेगी वह आजकल से बहुत कुछ भिन्न होगी। उदाहरण के लिए हमारे देश में प्रजातन्त्र है, पर अब यह स्पष्ट हो गया है कि इस प्रणाली में भ्रष्टाचार की बहुत गुंजाइश है और दुष्ट तथा धूर्तों को मनमानी करने का बहुत ज्यादा मौका मिलता है। अमरीका, इंग्लैण्ड जैसा पूँजीपति शासन प्रायः युद्धों का कारण बनता है। रूस, चीन जैसा कम्यूनिस्ट शासन व्यक्तिगत स्वाधीनता और आत्मविकास में विशेष रूप से बाधक सिद्ध होता है। इसलिये भविष्य का शासन बुद्धि-जीवी और त्याग-भावना वालों का होगा और उसका उद्देश्य जीवन के विविध क्षेत्रों तथा विभिन्न देशों में समन्वय कायम रखना ही होगा। वह स्थिति समाजवाद की होगी और आगे चल कर अराजकतावादियों के आदर्शानुसार मनुष्यों के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में से सरकार का हस्तक्षेप बहुत ही कम कर दिया जायगा। मनुष्यों को सहकारिता, भ्रातृभाव, एकात्मता के आदर्शों के अनुसार व्यवहार करने की शिक्षा और प्रेरणा दी जायगी, जिससे तुच्छ स्वार्थ जनित संघर्ष समाप्त हो जायगा और मानव-समाज एक सच्चे देव युग में पदार्पण करेगा।

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